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नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
रमानाथ– यह तुम्हारे लिए लाया हूँ। पहनो, ढीली तो नहीं हैं?
(जग्गो सहसा क्रोध से भर कर चूड़ियाँ पटक देती है और भभक उठती है– )
जग्गो– भगवान की दया से बहुत चूड़ियाँ पहन चुकी और अब भी सेर दो सेर सोना पड़ा होगा, लेकिन जो खाया– पहना अपनी मिहनत की कमाई से किसी का गला नहीं दबाया। नीयत नहीं बिगाड़ी। उस कोख में आग लगे जिसने तुम जैसे कपूत को जन्म दिया।
रमानाथ– (काँप कर) अम्माँ, तुम क्या कर रही हो?
जग्गो– यही कि तुम मेरे लड़के होते तो तुम्हें जहर दे देती! क्यों मुझे जलाने आये हो! चले क्यों नहीं जाते! मैंने तुमसे कुछ ले तो नहीं लिया। जाओ….अगर कुशल चाहते हो तो इन्हीं पैरों से आये हो वहीं लौट जाओ। बहू के सामने जा कर क्यों अपना पानी उतरवाओगे। तुम जैसे राक्षस उस देवी के जोग न थे।
(रमानाथ पीला पड़ जाता है।)
रमानाथ– (आहत स्वर) अम्माँ, मैंने बुराई की है और इसके लिए मरते दम तक लज्जित रहूँगा, लेकिन तुम मुझे जितना नीच समझ रही हो उतना नीच नहीं हूँ। अगर तु्म्हें मालूम होता कि पुलिस ने मेरे साथ कैसी– कैसी सख्तियाँ कीं, मुझे कैसी– कैसी धमकियाँ दीं तो मुझे राक्षस न कहतीं।
(जालपा सहसा आगे बढ़ आती है अन्तिम शब्द सुन लेती है। उसका चेहरा तमतमा उठता है और क्रोध की मूर्ति बनी वह भभक उठती है।)
जालपा– अगर तुम सख्तियों और धमकियों से इतना डर सकते हो तो तुम कायर हो। तुम्हें अपने को मनुष्य कहने का कोई अधिकार नहीं। लोगों ने हँसते– हँसते सिर कटा लिये, अपने बेटों को मरते देखा है, कोल्हू में पेले जाना मंजूर किया है पर सचाई से जौ भर भी नहीं हटे। तुम भी तो आदमी हो क्यों धमकी में आ गये? क्यों नहीं छाती खोल कर खड़े हो गये कि इसे गोली का निशाना बना लो, पर मैं झूठ न बोलूँगा! क्यों नहीं सिर झुका दिया?
(रमा काँप उठता है, सिर नहीं उठाता।)
जग्गो– (तिरस्कार से) सिर झुकानेवाले और रोते हैं।
जालपा– (उसी तरह) देह के लिए इसी लिए आत्मा रखी गयी है कि उसकी रक्षा करे। इसलिए नहीं कि उसका सर्वनाश कर दे। इस पाप का क्या पुरस्कार मिला? जरा मालूम तो हो!
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