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नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
रमानाथ– (दबी जबान से) अभी तो कुछ नहीं।
जालपा– (फुँकार कर) ईश्वर करे तुम्हें मुँह में कालिख लगाकर भी कुछ न मिले। लेकिन नहीं, तुम जैसे मोम के पुतले को पुलिसवाले कभी नाराज न करेंगे। तुम्हें कोई जगह मिलेगी। झूठी गवाही, झूठे मुकदमे जाओ, शौक से जिन्दगी के सुख लूटो, पर कहे देती हूँ मेरा तुमसे कोई नाता नहीं है। मैंने समझ लिया कि तुम मर गये। तुम भी समझ लो, कि मैं मर गयी।
(जग्गो सहसा काँप कर बहू को देखती है।)
रमानाथ– (गिड़गिड़ा कर) तुम मेरा कोई उज्र न सुनोगी?
जालपा– (अभिमान से) नहीं।
रमानाथ– तो मैं मुँह में कालिख लगा कर कहीं निकल जाऊँ?
जालपा– तुम्हारी खुशी?
रमानाथ– तुम मुझे क्षमा नहीं करोगी?
जालपा– कभी नहीं, किसी तरह नहीं। (रमानाथ सिर झुका लेता है, फिर जग्गो की ओर मुड़ता है।)
रमानाथ– अम्माँ! दादा आये तो कह देना, मुझसे जरा देर मिल लें। जहाँ कहे आ जाऊँ।
जग्गो– (कुछ पिघल कर) कल यहीं चले आना।
रमा– (जाते हुए) यहाँ अब न आऊँगा, अम्माँ।
(शीघ्रता से चला जाता है।)
जालपा– शान जमाने आये थे, जैसे रईसजादे हों।
जग्गो– (धीरे से) तुम्हारी जगह मैं होती बहू, तो मेरे मुँह से ऐसी बातें न निकलतीं। तुम्हारा हिया बड़ा कठोर है। दूसरा मर्द होता तो इस तरह चुपका– चुपका सुनता! मैं तो थर– थर काँप रही थी कि कहीं तुम्हारे ऊपर हाथ न चला दे। मगर है बड़ा गमखोर।
जालपा– इसे गमखोरी नहीं कहते अम्माँ, यह बेहयाई है।
(देवीदीन का प्रवेश)
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