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नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
डिप्टी– शराब भी कुछ बढ़ा दी जाये।
दारोगा—आइए। मैं अभी सब इंतजाम करता हूँ?
(तीनों बाहर जाते हैं। रमा अंदर आता है। उसने सिगार जला रखी हैं, धुआँ उड़ाता है और सोचता है।)
रमानाथ– (स्वगत) परिस्थिति विकट है। क्या करूँ? उधर जालपा नाराज है। इधर ये जालपा को तंग करने को कहते हैं…
(यही सोचता– सोचता वह कुर्सी पर बैठ जाता है। सोचता है। परदा गिरता है।)
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