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नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
पाँचवाँ अंक
पहला दृश्य
(रमानाथ अपने बँगले के कमरे में रेशमी सूट पहने तेजी से इधर से उधर, उधर से इधर घूम रहा है। वह बहुत उद्विग्न है। उसका मुख सोचने लगता है। उसकी छाती धक– धक करने लगती है।)
रमानाथ– (स्वगत) वह जालपा थी। बेशक, वह जालपा थी, पर उस हुआ क्या? उसके कपड़े कितने मैले थे। वह कितनी दुबली हो रही थी। कलसे का बोझ उसकी गरदन दबा रहा था। मानो कोई बुढ़िया हो, अनाथ। न वह कान्ति, न वह लावणय। न वह चंचलता, न वह गर्व (आँख भर आती है।) पर वह हाड़ा क्यों गयी… क्या उसे देवीदीन ने निकाल दिया? उसे टहलनी बनना पड़ा? टहलनी… नहीं– नहीं। देवीदीन इतना बेमुरौवत नहीं है। वह खुद उसे छोड़ कर चली गयी होगी वह बड़ी मानिनी है, पर जालपा इतनी दुखी…मैं ऐश करूँ और जालपा…
(वह आराम कुर्सी पर बैठ गया। ठोडी पर हाथ रख कर सोचने लगा)
किससे पूछूँ? किससे कहूँ? इन लोगों से कहूँ तो वे मेरा ही बाहर जाना बंद कर दें। तीन महीने में तो आज गया था (फिर खड़ा हो जाता है) पर….पर उसके मुख पर शोक की कितनी गहरी छाया थी, आखों में कितनी निराशा… आह, आह उन सिमटी हुई आखों में जले हुए हृदय से निकलने वाली आहें सिर पीटती हुई मालूम होती थीं, मानों उन पर हँसी कभी आयी ही नहीं…कभी वह कितनी सुंदर थी। वे दिन क्या थे…. आज उसकी यह दशा मेरे कारण…. मैं जोहरा के साथ ऐश करता हूँ!
(तभी जोहरा वहाँ प्रवेश करती है। दमकते वस्त्र, रतनारे नयन, किंचित् श्याम वर्ण, रक्तिक ओष्ठ, मधुर मुस्कान से सिक्त मुख। हावभाव में निपुण। बड़े तकल्लुफ से रमा के पास जाती है, जोहरा उधर ही मुड़ती है।)
जोहरा– (मुस्कराकर) आज किसी की याद आ रही है क्या?
(रमानाथ मुँह फेर लेता है। जोहरा शीघ्रता से उधर ही जाती है।)
जोहरा– सच बताओ, आज इतने उदास क्यों हो? क्या मुझसे किसी बात पर नाराज हो?
रमानाथ– (आवेश से काँपकर) नहीं जोहरा, तुमने एक मुझ अभागे पर जितनी दया की है, उसके लिए मैं हमेशा तुम्हारा एहसानमंद रहूँगा। तुम मुझे रास्ते पर लाने के लिए भेजी गयी थीं, मगर तुम्हें मुझ पर दया आयी। (साँस ले कर) मगर…
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