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नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
चौथा दृश्य
(पुलिस स्टेशन। दारोगा का वही कमरा। दारोगा तेजी से आते हैं। मुँह पर उड़ रही हैं। जैसे वर्षों से बीमार हों। घबराये– काँपते सिपाही भी साथ हैं।)
दारोगा—कुछ पता नहीं लगा। कहाँ गया? बड़ा धोखा हुआ! अब मैं डिप्टी को क्या जवाब दूँगा? (तभी टेलीफोन बज उठता है। दारोगा उसे उठाते हैं।) हैलो, पुलिस स्टेशन। कौन…डिप्टी साहब? जी? रमानाथ ने बड़ा गोलमाल कर दिया? क्या क्या वह जी…जी रात वह मुझसे बहाना करके अपनी बीवी के पास चला गया था।…क्यों जाने दिया?… ऐं। उसने जज से हाल कह दिया है? (काँपकर) क्या…मुकदमे की जाँच फिर से होगी! जी, मुझसे बड़ा भारी ब्लेंडर हुआ! जी, सारी मेहनत में पानी में गिर गयी। क्या बताऊँ? उसने मुझे धोखा दिया। क्या वह सचमुच जज साहब के पास गया था? अच्छा? जज ने भी कायदा तोड़ दिया? फिर से मुकदमे की पेशी करेगा? हैं… रमा बयान बदलेगा? जी मेरा ‘बंगलिंग’ है। जोहरा ने भी दगा दिया? अच्छा हजूर उसका सब सामान लेकर कमिश्नर साहब के पास जाता हूँ। (काँपता हुआ) बहुत अच्छा।
(टेलीफोन बंद हो जाता है। वे सब भौंचक से खड़े रहते है।)
दारोगा—अब सारी पुलिस बदनाम हो जायगी और उसका दंड मुझे भुगतना पड़ेगा। (चिल्ला कर) खड़े क्या देखते हो, लाओ उसका सामान और तलाश करो (धीरे से) यह पता लगाना है कि रमानाथ है कहाँ; बस जिसने पता लगा लिया उसको मालामाल कर दूँगा। (चिल्ला कर) खड़े क्या हो चलो!
(और कह कर वह तेजी से बाहर जाता है। सब उसके पीछे भागते हैं और परदा गिरता है।)
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