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नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
पाँचवाँ दृश्य
(पुलिस स्टेशन। वहाँ मौत का सन्नाटा है। जो हैं वे बुत बने खड़े हैं। दारोगा तेजी से घूम रहे हैं।)
दारोगा—(स्वगत) सब बेकार। सब खत्म। मुलजिमों में से कोई मुखबिर नहीं बना। मैं चाहता तो नयी शहादत बना सकता था, पर मैं क्यों बनाऊँ? अफसर लोगों ने सब दोष मुझ पर डाला, फँसा दिया। मैं तनज्जुल होने वाला हूँ। (क्रोध से) तब मैं क्यों मरूँ? यश अफसरों को मिले, अपयश मातहतों को। मुझे क्या? सब छूटेंगे। (चिढ़ कर) मेरी बेपरवाही रमानाथ निकला। मैंने उसे जाने दिया! जायें। सब जायें।
(सिपाही का भागते हुए प्रवेश)
दारोगा—क्या है?
सिपाही– सरकार ने मुकदमा उठा लिया।
दारोगा—उठा लिया? यानी सब छोड़ दिये गये?
सिपाही– हाँ जी।
(शोर उठता है)
दारोगा—यह क्या है?
सिपाही– उनका जलूस।
(दारोगा दाँतों से ओंठ काटता है। शोर पास आता है। एक अपार भीड़। सब अभियुक्त मालाओं से लदे हैं। उनके साथ जालपा देवी है। देवीदीन भी है। लोग खुशी से पागल हैं।)
जनता– जालपा देवी की जय!
देवीदीन– जालपा देवी की जय!
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