नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
दयानाथ– (त्योरी चढ़ा कर) जो बात जिंदगी– भर नहीं की, वह अब आखिरी वक्त नहीं कर सकता। बहू से साफ– साफ कह दो। आज नहीं तो कल उसे सारा हाल मालूम हो ही जायगा। बस, तीन– चार चीजें लौटा दे तो काम बन जाय। तुम उससे एक बार कहो तो।
जागेश्वरी– (झुँझलाकर) उससे तुम्हीं कहो, मुझसे तो न कहा जायगा। (रमानाथ का प्रवेश। टेनिस की पोशाक में है। गोरे रंग और सुंदर मुखाकृति के कारण रईसी शान लगती है। एक हाथ मैं रैकेट, दूसरे में बेले के गजरे लिये है। माता– पिता की आँखें बचाकर जाना चाहता है। जागेश्वरी टोकती है।) इन्हीं के तो सब काँटे बोये हुए हैं, इनसे क्यों सलाह नहीं लेते? (रमा से) तुमने नाच– तमाशे में बारह– तेरह सौ रुपये उड़ा दिये, बतलाओ, सराफ को क्या जवाब दिया जाय? बड़ी मुश्किल से गहने लौटाने पर राजी हुआ, मगर बहू से गहने माँगे कौन? यह सब तुम्हारी की करतूत है।
रमानाथ– मैंने क्या खर्च किया? जो कुछ किया, बाबू जी ने किया। हाँ, जो कुछ मुझसे कहा गया, वह मैंने किया।
दयानाथ– मैं तुम्हें इल्जाम नहीं देता, भाई। किया तो मैंने ही, मगर यह बला तो किसी तरह सिर से टलनी चाहिए? सराफ का तकाजा है। कल उसका आदमी आयेगा तब उसे क्या जवाब दिया जायगा? मेरी समझ में इसका एक ही उपाय है।
रमानाथ– क्या?
दयानाथ– कि उतने रुपये के गहने उसे लौटा दिये जायँ। गहने लौटा देने में भी वह झंझट करेगा; लेकिन दस बीस– रुपये के लोभ में लौटाने पर राजी हो जायगा। तुम्हारी क्या सलाह है?
रमानाथ– (सलज्ज) मैं इस विषय में क्या सलाह दे सकता हूँ?
मगर मैं इतना कह सकता हूँ कि इस प्रस्ताव को वह खुशी से से मंजूर न करेगी। अम्माँ तो जानती हैं कि चढ़ावे में चन्द्रहार न जाने से उसे कितना बुरा लगा था। उसने प्रण कर लिया कि जब तक चन्द्रहार बन कर न आयेगा कोई गहना न पहनूँगी।
जागेश्वरी– यही तो मैं इनसे कह रही थी।
रमानाथ– वही तो, रोना– धोना मच जायगा और इसके साथ घर का पर्दा भी खुल जायगा।
दयानाथ– उससे परदा रखने की जरूरत ही क्या है? अपनी यथार्थ स्थिति को वह जितना ही समझ ले उतना ही अच्छा।
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