नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
|
11 पाठकों को प्रिय 336 पाठक हैं |
‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
रमानाथ– पर्दा तो एक दिन खुल ही जायेगा, पर इतनी जल्द खोल देने का नतीजा यही होगा कि वह हमें नीच समझने लगेगी। शायद अपने घर वालों को भी लिख भेजे। चारों तरफ बदनामी होगी।
दयानाथ– हमने उसके घरवालों से यह कब कहा था कि हम लखपति हैं।
रमानाथ– तो आपने यही कब कहा था कि हम उधार गहने लाये हैं और दो– चार दिन में लौटा देंगे? आखिर यह सारा स्वांग अपनी धाक बैठाने के लिए ही तो किया था।
दयानाथ– तो फिर किसी दूसरे बहाने से यह माँगना पड़ेगा। बिना माँगे काम नहीं चल सकता। कल या तो रुपये देने पड़ेंगे या गहने लौटाने पड़ेंगे। और कोई राह नहीं।
(क्षणिक सन्नाटा)
जागेश्वरी– और कौन– सा बहाना किया जायगा? अगर कहा जाय, किसी को मंगनी देना है तो शायद वह देगी नहीं। देगी भी तो दो– चार दिन में लौटायेंगे कैसे?
(फिर क्षणिक सन्नाटा)
दयानाथ– मुझे एक उपाय सूझता है।
जागेश्वरी– क्या?
दयानाथ– दो– चार दिन के लिए गहने माँग लिये जायँ और उनके बदले मुलम्मे के गहने दे दिये जायँ।
जागेश्वरी– क्या कहते हो? मुलम्मा कितने दिन ठहरेगा?
दयानाथ– हाँ, बाद को जब मुलम्मा उड़ जायगी तो फिर लज्जित होना पड़ेगा। अक्ल कुछ काम नहीं करती। मुझे तो यही सूझता है कि यह सारी स्थिति उसे समझा दी जाय। थोड़ी देर के लिए उसे दु:ख तो जरूर होगा, लेकिन आगे के वास्ते रास्ता साफ हो जायगा।
रमानाथ– (विरक्ति से) इसमें बेइज्जती के सिवा और कुछ न होगा। आप क्या सराफ को दो– चार– छह महीने नहीं टाल सकते? आप देना चाहें, तो इतने दिनों में हजार– बारह सौ रुपये बड़ी आसानी से दे सकते हैं।
दयानाथ– कैसे?
रमानाथ– उसी तरह जैसे आप के और भाई करते हैं।
|