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उपन्यास >> चंद्रकान्ता

चंद्रकान्ता

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :272
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8395
आईएसबीएन :978-1-61301-007-5

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चंद्रकान्ता पुस्तक का ई-संस्करण

दूसरा भाग

 

पहला बयान

इस आदमी को सभी ने देखा मगर हैरान थे कि यह कौन है, कैसे आया और क्या कह गया? तेजसिंह ने जोर से पुकार के कहा, ‘‘आप लोग चुप रहें, मुझको मालूम हो गया कि यह सब ऐयारी हुई है, असल में कुमारी और चपला दोनों ज़िन्दा हैं, यह लाशें उन लोगों की नहीं हैं!!’’

तेजसिंह की बात से सब चौंक पड़े और एकदम सन्नाटा छा गया। सभी ने रोना-धोना छोड़ दिया और तेजसिंह के मुंह की तरफ देखने लगे। महारानी दौड़ी हुई उनके पास आईं और बोलीं, ‘‘बेटा, जल्दी बताओ यह क्या मामला है? तुम कैसे कहते हो कि चन्द्रकान्ता जिन्दा है? यह कौन था जो एकाएक महल में घुस आया?’’ तेजसिंह ने कहा, ‘‘यह तो मुझे मालूम नहीं कि यह कौन था मगर इतना पता लग गया कि चन्द्रकान्ता और चपला को शिवदत्तसिंह के ऐयार चुरा ले गये हैं और यह बनावटी लाश यहाँ रख गये हैं जिससे सब कोई जानें कि वे मर गईं और खोज न करें।’’ महाराज बोले, यह कैसे मालूम कि यह लाश बनावटी है?’’ तेजसिंह ने कहा, ‘‘यह कोई बड़ी बात नहीं है, लाश के पास चलिए, मैं अभी बतला देता हूँ!’’ यह सुन महाराज तेजसिंह के साथ लाश के पास गये, महारानी भी गईं। तेजसिंह ने अपने कमर से खंजर निकालकर चपला की लाश की टांग काट ली और महाराज को दिखलाकर बोले, ‘‘देखिए इसमें कहीं हड्डी है?’’ महाराज ने गौर से देखकर कहा, ‘‘ठीक है, बनावटी लाश है।’’ इसके पीछे चन्द्रकान्ता की लाश को भी इसी तरह देखा, उसमें भी हड्डी नहीं पाई। अब सबको मालूम हो गया कि ऐयारी की गई है। महाराज बोले, ‘‘अच्छा, यह तो मालूम हुआ कि चन्द्रकान्ता जीती हैं, मगर दुश्मनों के हाथ पड़ गई इसका गम क्या कम है?’’ तेजसिंह बोले, ‘‘कोई हर्ज़ नहीं, अब तो जो होना था सो हो चुका। मैं चन्द्रकान्ता और चपला को खोज निकालूँगा।’’

तेजसिंह के समझाने से सभी को कुछ ढाँढ़स हुआ, मगर कुमार वीरेन्द्रसिंह अभी तक बदहवास पड़े हैं, उनको इन सब बातों की कुछ खबर नहीं। अब महाराजा को यह फिक्र हुई कि कुमार को होश में लाना चाहिए। वैद्य बुलाये गये, सभी ने बहुत सी तरकीबें कीं मगर कुमार को होश न आया। तेजसिंह भी अपनी तरकीब करके हैरान हो गये मगर कोई फायदा न हुआ, यह देख महाराज बहुत घबराये और तेजसिंह से बोले, ‘‘अब क्या करना चाहिए?’’ बहुत देर तक गौर करने के बाद तेजसिंह ने कहा कि ‘‘कुमार को उठवा के उनके रहने के कमरे में भिजवाना चाहिए, वहाँ अकेले में मैं इनका इलाज करूँगा।’’ यह सुन महाराज ने इन्हें खुद उठाना चाहा मगर तेजसिंह ने कुमार को गोद में ले लिया और उनके रहने वाले कमरे में ले चले। महाराजा भी संग हुए। तेजसिंह ने कहा, ‘‘आप साथ न चलिए, ये अकेले में ही अच्छे होंगे।’’ महाराज उसी जगह ठहर गये। तेजसिंह कुमार को लिए हुए उनके कमरे में पहुँचे और चारपाई पर लिटा दिया, चारों तरफ़ से दरवाज़े बन्द कर दिये और उनके कान के पास मुंह लगाकर बोलने लगे, ‘‘चन्द्रकान्ता मरी नहीं, जीती हैं, वह देखो महाराज शिवदत्त के ऐयार उसे लिये जाते हैं। जल्दी दौ़ड़ो, छीनो, नहीं तो बस ले ही जायेंगे!! क्या इसी को वीरता कहते हैं? छिः चन्द्रकान्ता को दुश्मन लिये जायें और आप देखकर भी कुछ न बोलें? राम, राम, राम!’’

इतनी आवाज़ कान में पड़ते ही कुमार ने आंखें खोल दीं और घबराकर बोले, ‘‘हैं! कौन लिये जाता है? कहां है चन्द्रकान्ता?’’ यह कहकर इधर-उधर देखने लगे। देखा तो तेजसिंह बैठे हैं। पूछा, ‘‘अभी कौन कह रहा था कि चन्द्रकान्ता जीती है और उसको दुश्मन लिये जाते हैं?’’ तेजसिंह ने कहा, ‘‘मैं कहता था और सच कह रहा था। कुमारी ज़िन्दा हैं मगर दुश्मन उनको चुरा ले गये हैं और उनकी जगह नकली लाश रख इधर-उधर रंग फैला दिया है जिससे लोग कुमारी को मरी हुई जानकर पीछा और खोज न करें।’’

कुमार ने कहा, ‘‘तुम धोखा देते हो! हम कैसे जानें कि वह लाश नकली है?’’ तेजसिंह ने कहा, ‘‘मैं अभी आपको यकीन करा देता हूँ।’’ यह कह कमरे का दरवाज़ा खोला, देखा कि महाराज खड़े हैं, आँखों से आंसू जारी है। तेजसिंह को देखते ही पूछा, ‘‘क्या हाल है?’’ जवाब दिया, ‘‘अच्छे हैं, होश में आ गये, चलिए देखिए।’’ यह सुन महाराज अन्दर गये। उन्हें देखते ही कुमार उठ खड़े हुए। महाराज ने गले से लगा लिया। पूछा, ‘‘मिजाज़ कैसा है!’’ कुमार ने कहा, ‘‘अच्छा है।’’ कई लौंडियां भी उस जगह आईं जिनको कुमार का हाल लेने के लिए महारानी ने भेजा था। एक लौंडी से तेजसिंह ने कहा, ‘‘दोनों लाशों में से जो टुकड़े हाथ-पैर के मैंने काटे थे उन्हें ले आ।’’ यह सुन लौंडी दौड़ी गई और वे टुकड़े ले आई। तेजसिंह ने कुमार को दिखलाकर कहा, ‘‘देखिए, यह बनावटी लाश है या नहीं, इसमें हड्डी कहां है?’’ कुमार ने देखकर कहा, ‘‘ठीक है मगर उन लोगों ने बड़ी बदमाशी की!’’ तेजसिंह ने कहा, ‘‘खैर, जो होना था, सो हो गया, देखिए अब हम क्या करते हैं।’’

सवेरा हो गया। महाराज, कुमार और तेजसिंह बैठे बातें कर रहे थे कि हरदयालसिंह ने पहुँचकर महाराज को सलाम किया। उन्होंने बैठने का इशारा किया। दीवान साहब बैठ गये और सभी को वहां से हट जाने के लिए हुक्म दिया। जब एकान्त हो गया तो हरदयालसिंह ने तेजसिंह से पूछा, ‘‘मैंने सुना है कि वह बनावटी लाश थी जिसको सभी ने कुमारी की लाश समझा था?’’ तेजसिंह ने कहा, ‘‘जी हां, ठीक बात है!’’ और तब सारा हाल समझाया। इसके बाद दीवान साहब ने कहा, ‘‘और गजब देखिए! कुमारी के मरने की खबर सुनकर सब परेशान थे, सरकारी नौकरों में से जिन लोगों ने यह खबर सुनी, दौड़े हुए महल के दरवाज़े पर रोते-चिल्लाते चले आये, उधर वहां ऐयार लोग कैद थे पहरा कम रह गया, मौका पाकर उनके साथी ऐयारों ने वहां धावा किया और पहरेवालों को जख्मी कर अपनी तरफ से सब ऐयारों को, जो कैद थे, छुड़ा ले गये।’’

यह ख़बर सुनकर तेजसिंह, कुमार और महाराज सन्न हो गये। कुमार ने कहा, ‘‘बड़ी मुश्किल में पड़ गये। अब कोई भी ऐयार उनका हमारे यहां न रहा, सब छूट गये। कुमारी और चपला को ले गये। यह तो गज़ब़ ही किया! अब नहीं बर्दाश्त होता, हम आज ही कूच करेंगे और दुश्मनों से इसका बदला लेंगे।’’ यह बात कर ही रहे थे, तभी एक चोबदार ने आकर अर्ज़ किया कि, ‘‘लड़ाई की खबर लेकर एक जासूस आया है, दरवाज़े पर हाज़िर है, उसके बारे में क्या हुक्म होता है?’’ हरदयालसिंह ने कहा, ‘‘इसी जगह हाज़िर करो।’’ जासूस लाया गया। उसने कहा, ‘‘दुश्मनों को रोकने के लिए यहां से मुसलमानी फौज़ भेजी गयी थी। उसके पहुँचने तक दुश्मन चार कोस और आगे बढ़ आये थे। मुकाबले के वक़्त वे लोग भागने लगे, यह हाल देखकर तोपखाने वालों ने पीछे से बाढ़ मारी जिससे करीब चौथाई आदमी मारे गये। फिर भागने का हौसला न पड़ा, और खूब लड़े, यहाँ तक कि लगभग हज़ार दुश्मनों को काट गिराया लेकिन वह फौज़ भी तमाम हो चली, अगर फौरन मदद न भेजी जायगी तो तोपखाने वाले भी मारे जायेंगे।’’

यह सुनते ही कुमार ने दीवान हरदयालसिंह को हुक्म दिया कि पांच हज़ार फौज़ जल्दी मदद पर भेजी जाये और वहां पर हमारे लिए खेमा रवाना करो, दोपहर को हम भी उस तरफ कूच करेंगे। हरदयालसिंह फौज़ भेजने के लिये चले गये। महाराज ने कुमार से कहा, ‘‘हम भी तुम्हारे साथ चलेंगे।’’ कुमार ने कहा, ‘‘ऐसी जल्दी क्या है! आप यहां रहें, राज्य का काम देखें। मैं जाता हूं, जरा देखूँ तो राजा शिवदत्त कितनी बहादुरी रखता है, अभी आपको तकलीफ़ करने की कुछ ज़रूरत नहीं।’’

थोड़ी देर तक बातचीत होने के बाद महाराज उठकर महल में चले गये। कुमार और तेजसिंह भी स्नान और सन्ध्या-पूजा की फिक्र में उठे। सबसे जल्दी तेजसिंह ने छुट्टी पाई और मुनादी वाले को बुलाकर हुक्म दिया कि, ‘‘तू तमाम शहर में इस बात की मुनादी कर आ कि-‘दन्तारवीर का जिसको इष्ट हो वह तेजसिंह के पास हाज़िर हो’। बमूजिब हुक्म के मुनादी वाला मुनादी करने चला गया। सभी को ताज्जुब था कि तेजसिंह ने यह क्या मुनादी करवाई है।’’

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