उपन्यास >> चंद्रकान्ता चंद्रकान्तादेवकीनन्दन खत्री
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चंद्रकान्ता पुस्तक का ई-संस्करण
चौथा बयान
महाराज शिवदत्त का शमला (मुकुट) लिये हुए देवीसिंह कुंवर वीरेन्द्रसिंह के पास पहुंचे और जो कुछ हुआ था बयान किया। कुमार यह सुन हंसने लगे और बोले, ‘‘चलो, सगुन तो यह अच्छा हुआ!’’
तेजसिंह ने कहा–‘‘सबसे ज़्यादा अच्छा सगुन तो मेरे लिए मेरा शागिर्द पैदा कर लाया!’’ यह कह शमले में से सरपेंच खोल बटुए में दाखिल किया।
कुमार ने कहा, ‘‘भला तुम इसका क्या करोगे, तुम्हारे किस मतलब का है?’’
तेजसिंह ने जवाब दिया, ‘‘इसका नाम फतह का सरपेंच है, जिस रोज आपकी बारात निकलेगी महाराज शिवदत्त की सूरत बना इसी के माथे पर बांध मैं आगे-आगे झण्डा लेकर चलूंगा।’’ यह सुनकर कुमार ने हंस दिया, पर साथ ही इसके दो बूंद आंसू आंखों से निकल पड़ें जिसको जल्दी से कुमार ने रुमाल से पोंछ लिया। तेजसिंह समझ गये कि यह चन्द्रकान्ता की जुदाई का गम है, उनको भी चपला का बहुत कुछ खयाल था, देवीसिंह से बोले, ‘‘सुनो देवीसिंह, कल लड़ाई ज़रूर होगी इसलिए एक ऐयार का यहां रहना जरूरी है और इससे ज़रूरी काम चन्द्रकान्ता का पता लगाना है।’’
देवीसिंह ने तेजसिंह से कहा, ‘‘आप यहां रहकर फौज़ की हिफ़ाजत कीजिये, मैं चन्द्रकान्ता की खोज़ में जाता हूँ।’’
तेजसिंह ने कहा, ‘‘नहीं, चुनार की पहाड़ियां तुमने अच्छी तरह देखी नहीं हैं और चन्द्रकान्ता ज़रूर उसी तरफ होगी। इससे यही ठीक होगा कि तुम यहां रहो और मैं कुमारी की खोज में जाऊं।’’
देवीसिंह ने कहा, ‘‘जैसी आपकी खुशी।’’
तेजसिंह ने कुमार से कहा, ‘‘आपके पास देवीसिंह है। मैं जाता हूँ, जरा होशियारी से रहियेगा और लड़ाई में जल्दी न कीजियेगा।’’
कुमार ने कहा, ‘‘अच्छा जाओ, ईश्वर तुम्हारी रक्षा करें।’’
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