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उपन्यास >> चंद्रकान्ता

चंद्रकान्ता

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :272
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8395
आईएसबीएन :978-1-61301-007-5

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चंद्रकान्ता पुस्तक का ई-संस्करण

तीसरा बयान

कुछ दिन बाकी है, एक मैदान में हरी-हरी दूब पर पन्द्रह-बीस कुर्सियाँ रक्खी हुई हैं और सिर्फ तीन आदमी कुंवर वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह और फतहसिंह* सेनापति बैठे हैं, बाकी कुर्सियाँ खाली पड़ी हैं। उनके पूरब की तरफ सैकड़ो खेमे अर्द्ध-चन्द्राकार खड़े हैं। बीच में वीरेन्द्रसिंह के पलटन वाले अपने-अपने हरवों को साफ और दुरुस्त कर रहे हैं। बड़े-बड़े शामियानों के नीचे तोपें रखी हैं जो हर एक तरह से लैस और दुरुस्त मालूम हो रही हैं। दक्षिण की तरफ घोड़ों का अस्तबल है जिसमें अच्छे-अच्छे घोड़े बंधे हिनहिना रहे हैं। उसके कुछ आगे फीलखाना है जहां बड़े मस्त हाथी सिक्कड़ों से बँधे दिखाई देते हैं। पश्चिम की तरफ बाजे वालों, सुरंग खोदने वालों, पहाड़ उड़ाने वालों और जासूसों का डेरा तथा रसद का भण्डार है। (*फतहसिंह की उम्र पच्चीस वर्ष से ज़्यादा न होगी।)

कुमार ने फतहसिंह सिपहसालार से कहा, ‘‘मैं समझता हूं कि मेरा डेरा-खेमा सुबह तक ‘लोहरा’ के मैदान में दुश्मनों के मुकाबले में खड़ा हो जायेगा? फतहसिंह ने कहा, ‘‘जी हां, ज़रूर सुबह तक वहां सब सामान लैस जो जायेगा। हमारी फौज़ भी कुछ रात रहे यहां से कूच करके पहर दिन चढ़ने के पहिले ही वहाँ पहुंच जायगी।

परसों हम लोगों के हौसले दिखाई देंगे, बहुत दिन तक खाली बैठे-बैठे तबीयत घबरा गई थी।’’ इसी तरह की बातें हो रही थीं कि सामने से देवीसिंह ऐयारी के ठाठ में आते दिखाई दिये। नज़दीक आकर देवीसिंह ने कुमार और तेजसिंह को सलाम किया। देवीसिंह को देखकर कुमार बहुत खुश हुआ और उठकर गले लगा लिया, तेजसिंह ने भी देवीसिंह को गले लगाया और बैठने के लिए कहा। फतहसिंह सिपहसालार ने भी उनको सलाम किया। जब देवीसिंह बैठ गये, तेजसिंह उनकी तारीफ करने लगे। कुमार ने पूछा, ‘‘कहो देवीसिंह, तुमने यहां आकर क्या मालूम किया?’’ तेजसिंह ने कहा, ‘‘इनका हाल मुझसे सुनिए, मैं मुख्तसर में आपको समझा देता हूँ।’’ कुमार ने कहा, ‘‘कहो।’’ तेजसिंह बोले, ‘‘जब आप चन्द्रकान्ता के बाग में बैठे थे और भूत ने आकर कहा था कि ‘खबर भई राजा को तुमरी सुनो गुरूजी मेरे!’’ जिसको सुनकर मैंने जबर्दस्ती आपको वहाँ से उठाया था, वह भूत यही थे। नौगढ़ में भी इन्होंने जाकर क्रूरसिंह के चुनार जाने और ऐयारों को संग लाने की खबर खंजरी बजाकर दी थी। जब चन्द्रकान्ता के मरने का गम महल में छाया हुआ था और आप बेहोश पड़े हुए थे तब भी इन्होंने ही चन्द्रकान्ता और चपला के जीते रहने की खबर मुझको दी थी, तब मैंने उठकर लाश पहचानी, नहीं तो पूरे घर का नाश हो चुका था। इतना काम इन्होंने किया। इन्हीं को बुलाने के वास्ते मैंने सुबह मुनादी करवाई थी, क्योंकि इनका कोई ठिकाना तो था ही नहीं।’’ यह सुनकर कुमार ने देवीसिंह की पीठ ठोंकी और बोले, ‘‘शाबाश! किस मुंह से तारीफ करें, दो घर तुमने बचाये।’’ देवीसिंह ने कहा, ‘‘मैं किस लायक हूँ जो आप इतनी तारीफ करते हैं, तारीफ सब कामों से निश्चिन्त होकर कीजियेगा, इस वक़्त चन्द्रकान्ता को छुड़ाने की फिक्र करनी चाहिए, अगर देर होगी तो न जाने उनकी जान पर क्या आ बने। सिवाय इसके इस बात का भी खयाल रखना चाहिए कि अगर हम लोग बिल्कुल चन्द्रकान्ता ही की खोज में लीन हो जायेंगे तो महाराज की लड़ाई का नतीजा बहुत बुरा हो जायेगा!’’ यह सुनकर कुमार ने पूछा, ‘‘देवीसिंह, यह तो बताओ चन्द्रकान्ता कहाँ है, उसको कौन ले गया?’’ देवीसिंह ने जवाब दिया यही तो मालूम नहीं कि चन्द्रकान्ता कहां है, हां इतना जानता हूँ कि नाज़िम और बद्रीनाथ मिलकर कुमारी और चपला को ले गये, पता लगाने से लग ही जायेगा। तेजसिंह ने कहा, ‘‘अब तो दुश्मन के सब ऐयार छूट गये, वे सब मिल के नौ हैं और हम दो आदमी ठहरे। चन्द्रकान्ता और चपला को खोजें, चाहे फौज़ में रहकर कुमार की हिफाज़त करें, बड़ी मुश्किल है।’’ देवीसिंह ने कहा, ‘‘कोई मुश्किल नहीं है, सब काम हो जायगा। देखिये तो सही, अब पहले हमको शिवदत्त के मुकाबले में चलना चाहिए। उसी जगह से कुमारी के छुड़ाने की फिक्र की जायेगी!’’ तेजसिंह ने कहा, ‘‘हम लोग महाराज से विदा हो आये हैं, कुछ रात रहते यहां से पड़ाव उठेगा, पेशखेमा जा चुका है।’’

आधी-रात तक ये लोग आपस में बातचीत करते रहे, इसके बाद कुमार उठकर अपने खेमे में चले गये। कुमार के बगल में तेजसिंह का खेमा था जिसमें देवीसिंह और तेजसिंह दोनों ने आराम किया। चारों तरफ फौज़ का पहरा फिरने लगा, गश्त की आवाज़ आने लगी। थोड़ी रात बाकी थी कि एक छोटी तोप की आवाज़ हुई। कुछ देर बाद बाजा बजने लगा, कूच की तैयारी हुई और धीरे-धीरे फौज़ चल पड़ी। जब सब फौज़ जा चुकी, पीछे से एक हाथी पर कुमार सवार हुए जिन्हें चारों तरफ से बहुत से सवार घेरे हुए थे। तेजसिंह देवीसिंह अपने ऐयारी के सामान से सजे हुए कभी आगे, कभी पीछे, कभी साथ, कभी पैदल चले जाते थे। पहर दिन चढ़े कुंवर वीरेन्द्रसिंह का लश्कर शिवदत्तसिंह की फौज़ के मुकाबले मंप जा पहुँचा जहां पहले से महाराज जयसिंह की फौज़ डेरा जमाये हुई थी। लड़ाई बन्द थी और मुसलमान सब मारे जा चुके थे, खेमा-डेरा पहले ही से खड़ा था, कायदे के साथ पलटनों का पड़ाव पड़ा।

जब सब इन्तज़ाम हो चुका, कुंवर वीरेन्द्रसिंह ने अपने खेमे में कचहरी की और मुन्शी को हुक्म दिया, ‘‘एक चिट्ठी शिवदत्त को लिखो कि मालूम होता है आजकल तुम्हारे मिजाज़ में गर्मी आ गई है जो बैठे-बैठाये एक नालायक क्रूर के भड़काने पर महाराज जयसिंह से लड़ाई ठान ली है। यह भी मालूम हो गया कि तुम्हारे ऐयार चन्द्रकान्ता और चपला को चुरा लाये हैं, सो बेहतर है कि चन्द्रकान्ता और चपला को इज्जत के साथ महाराज जयसिंह के पास भेज दो और तुम वापस लौट जाओ नहीं तो पछताओगे, जिस वक़्त हमारे बहादुरों की तलवारें मैदान में चमकेंगी, भागते राह न मिलेगी।’’

बमूजिब हुक्म के मीर मुंशी ने चिट्ठी लिखकर तैयार की। कुमार ने कहा, ‘‘यह, खत कौन ले जायेगा?’’ यह सुन देवीसिंह सामने आ हाथ जोड़कर बोले, ‘‘मुझको इज़ाज़त मिले कि इस खत को ले जाऊं, क्योंकि शिवदत्तसिंह से बातचीत करने की मेरे मन में बड़ी लालसा है।’’ कुमार ने कहा, ‘इतनी बड़ी फौज़ में तुम्हारा अकेला जाना अच्छा नहीं है।’’ तेजसिंह ने कहा, ‘‘कोई हर्ज़ नहीं, जाने दीजिये।’’ आखिर कुमार ने अपनी कमर से खंजर निकाल कर दिया जिसे देवीसिंह ने लेकर सलाम किया, चिट्ठी बटुए में रख ली और तेजसिंह का चरण छूकर रवाना हुए।

महाराज शिवदत्तसिंह के पलटन वालों में कोई भी देवीसिंह को नहीं पहिचानता था। दूर से इन्होंने देखा कि बड़ा-सा कारचोबी का खेमा खड़ा है। समझ गये कि यही महाराज का खेमा है, सीधे धड़धड़ाते हुए खेमे के दरवाज़े पर पहुंचे और पहरे वालों से कहा, ‘‘अपने राजा को खबर करो कि कुंवर वीरेन्द्रसिंह का एक ऐयार खत लेकर आया है, जाओ, जल्दी जाओ!’’ सुनते ही प्यादा दौड़ा गया और महाराज शिवदत्त से इस बात की खबर की। उन्होंने हुक्म दिया, ‘‘आने दो।’’

देवीसिंह खेमे के अन्दर गये। देखा कि बीच में महाराज शिवदत्तसिंह जड़ाऊ सिंहासन पर बैठे हैं, बाईं तरफ दीवान साहब और बाद इसके दोनों तरफ बड़े-बड़े बहादुर बेशकीमती पोशाकें पहिने उम्दे हरबे लगाये चांदी की कुर्सी पर बैठे हैं, जिनके देखने से कमजोरों का कलेजा दहलता है। बाद इसके दोनों तरफ नीम कुर्सियों पर ऐयार लोग विराजमान हैं। इसके बाद दरजे-ब-दरजे अमीर और ओहदेदार लोग बैठे हैं, बहुत से चोबदार हाथ बांधे सामने खड़े हैं। गरज कि बड़े रोआब का दरबार देखने में आया।

देवीसिंह किसी को सलाम किये बिना ही बीच में जाकर खड़े हो गये और एक दफे चारों तरफ निगाहें दौड़ाकर गौर से देखा, फिर बढ़कर कुमार की चिट्ठी महाराज के सामने सिंहासन पर रख दी। देवीसिंह की बेअदबी देखकर महाराज शिवदत्त मारे गुस्से के लाल हो गये और बोले–‘‘एक मच्छर को इतना हौसला हो गया कि एक हाथी का मुकाबला करे! अभी तो वीरेन्द्रसिंह के मुंह से दूध की महक भी गई न होगी।’’ यह कह चिट्ठी हाथ में ले फाड़कर फेंक दी।

चिट्ठी का फटना था कि देवीसिंह की आंखें लाल हो गईं। बोले, ‘‘जिसके सिर मौत सवार होती है उसकी बुद्धि पहले ही हवा खाने चली जाती है।’’

देवीसिंह की बात तीर की तरह शिवदत्त के कलेजे के पार हो गई। बोले, ‘‘पकड़ो इस बेअदब को!’’ इतना कहना था कि कई चोबदार देवीसिंह की तरफ झुके। इन्होंने खंजर निकाल दो-तीन चोबदारों की सफाई कर डाली और फुर्ती से अपने ऐयारी के बटुए में से एक गेंद निकालकर जोर से जमीन पर मारा जिससे बड़ी भारी आवाज़ हुई! दरबार दहल उठा, महाराज एकदम चौंक पड़े जिससे समला सिर का, जिस पर हीरे का सरपेंच था जमीन पर गिर पड़ा। लपक के देवीसिंह ने उसे उठा लिया और कूदकर खेमें के बाहर हो गये।

सब-के-सब देखते रह गये, किसी के किये कुछ न बन पड़ा।

सारा गुस्सा शिवदत्त ने ऐयारों पर निकाला जो कि उस दरबार में बैठे थे। कहा– ‘‘लानत है तुम लोगों की ऐयारी पर जो तुम लोगों के देखते-ही-देखते दुश्मन का एक अदना ऐयार हमारी बेइज्जती कर जाये!’’ बद्रीनाथ ने जवाब दिया, ‘‘महाराज हम लोग ऐयार हैं, हज़ार आदमियों में अकेले घुसकर काम करते हैं मगर एक आदमी पर दस ऐयार नहीं टूट पड़ते। यह हम लोगों के कायदे के बाहर है। बड़े-बड़े पहलवान तो बैठे थे, इन लोगों ने क्या कर लिया?’’ बद्रीनाथ की बात का जवाब शिवदत्त ने कुछ न देकर कहा, ‘‘अच्छा, कल हम देख लेंगे!’’

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