उपन्यास >> चंद्रकान्ता चंद्रकान्तादेवकीनन्दन खत्री
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चंद्रकान्ता पुस्तक का ई-संस्करण
तेरहवां बयान
चपला खाने के लिए कुछ फल तोड़ने चली गई, इधर चन्द्रकान्ता अकेली बैठी-बैठी घबरा उठी। जी में सोचने लगी कि जब तक चपला फल तोड़ती है तब तक इस टूटे-फूटे मकान की खैर कर लें, क्योंकि यह मकान चाहे टूटकर खण्डहर हो रहा है मगर मालूम होता है कि किसी समय में अपना सानी न रखता होगा।
कुमारी चन्द्रकान्ता वहां से उठकर उस खण्डहर के अन्दर गई। फाटक उस टूटे-फूटे मकान का दुरुस्त और मज़बूत था। यद्यपि उसमें किवाड़ न लगे थे, मगर देखने वाला यही समझता कि पहले इसमें लकड़ी या लोहे का फाटक ज़रूर लगा होगा।
कुमारी ने अन्दर जाकर देखा कि एक बड़ा भारी चौखुटा मकान है। बीच की इमारत तो टूटी-फूटी है मगर अहाता चारों तरफ का दुरुस्त मालूम पड़ता है। और आगे बढ़ी, एक दालान में पहुंची जिसकी छत गिरी हुई थी मगर खम्भे खड़े थे। इधर-उधर पत्थर के ढेर थे जिन पर धीरे-धीरे पैर रखती आगे बढ़ी। बीच में एक मैदान दीख पड़ा जिसको बड़े गौर से कुमारी देखने लगी। साफ मालूम होता था कि पहले यह बाग था क्योंकि अभी तक संगमरमर की क्यारियां बनी हुई थीं। छोटी नहरें जिनसे छिड़काव का काम निकलता होगा अभी तक तैयार थीं। बहुत से फौव्वारे बेमरम्मत दिखाई पड़ते थे, मगर उन सभी पर मिट्टी की चादर पड़ी हुई थी। बीचोंबीच उस खंडहर के एक बड़ा भारी पत्थर का बगुला बना हुआ दिखाई दिया जिसको अच्छी तरह से देखने के लिए कुमारी उसके पास गईं और उसकी सफाई और कारीगरी को देख उसके बनाने वाले की तारीफ करने लगीं। वह बगुला सफेद संगमरमर का बना हुआ था और काले पत्थर के कमर बराबर ऊंचे तथा मोटे खम्भे पर बैठा हुआ था। टांगे उसकी दिखाई नहीं देती थीं, यही मालूम होता था कि पेट सटाकर इस पत्थर पर बैठा है। कम-से-कम पन्द्रह हाथ के घेरे में उसका पेट होगा। लम्बी चोंच, बाल और पर उसके ऐसी कारीगरी के साथ बनाये हुए थे कि बार-बार उसके बनाने वाले कारीगर की तारीफ मुंह से निकलती थी। जी में आया कि और पास जाकर बगुले को देखें। पास गई, मगर वहां पहुंचते ही उसने मुंह खोल दिया। चन्द्रकान्ता यह देख घबरा गई कि यह क्या मामला है? कुछ डर भी मालूम हुआ, सामना छोड़ बगल में हो गई। अब उस बगुले ने पर भी फैला दिये।
कुमारी को चपला ने बहुत ढीठ कर दिया था। कभी-कभी तब जिक्र आ जाता तो चपला यही कहती थी कि दुनिया में भूत-प्रेत कोई चीज़ नहीं, जादू-मंत्र सब खेल-कहानी है, जो कुछ ऐयारी है। इस बात का कुमारी को भी पूरा यकीन हो चुका था। यही सबब था कि चन्द्रकान्ता इस बगुले के मुंह खोलने और पर फैलाने से नहीं डरी, अगर दूसरी ऐसी नाज़ुक औरत को कहीं ऐसा मौका पड़ता तो शायद उसकी जान निकल जाती। जब बगुले को पर फैलाये देखा तो कुमारी उसके पीछे हो गई, बगुले के पीछे की तरफ एक पत्थर ज़मीन में लगा था जिस पर कुमारी ने पैर रखा ही था कि बगुला एक दफा हिला और जल्दी से घूमकर अपनी चोंच से कुमारी को उठा कर निगल गया, फिर वह घूमकर अपने ठिकाने हो गया। पर समेट लिये और मुंह बन्द कर लिया।
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