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उपन्यास >> चंद्रकान्ता

चंद्रकान्ता

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :272
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8395
आईएसबीएन :978-1-61301-007-5

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चंद्रकान्ता पुस्तक का ई-संस्करण

पन्द्रहवां बयान

चम्पा बेफिक्र नहीं है, वह भी कुमारी की खोज में घर से निकली हुई है। अब बहुत दिन हो गये और राज कुमारी चन्द्रकान्ता की कुछ खबर न मिली तो महारानी से हुक्म लेकर चम्पा घर से निकली। जंगल-जंगल, पहाड़-पहाड़ मारी फिरी मगर कहीं पता न लगा। कई दिन की थकी-मांदी जंगल में एक पेड़ के नीचे बैठकर सोचने लगी कि अब कहां चलना चाहिए और किस जगह ढूंढ़ना चाहिए क्योंकि महारानी से मैं वादा करके निकली हूं कि कुंवर वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह से बिना मिले और बिना उनसे कुछ खबर लिये कुमारी का पता लगाऊंगी, मगर अभी तक कोई उम्मीद पूरी न हुई और बिना काम किये मैं विजयगढ़ भी न जाऊंगी चाहे जो हो, देखूं कब तक पता नहीं लगता।

जंगल में एक पेड़ के नीचे बैठी हुई चम्पा इन सब बातों को सोच रही थी कि सामने से चार आदमी सिपाहियाना पोशाक पहने, ढाल-तलवार लगाये एक-एक तेगा हाथ में लिये आते दिखाई पड़े।

चम्पा को देखकर उन लोगों ने आपस में कुछ बातें कीं जिसे दूर होने के सबब से चम्पा बिल्कुल न सुन सकी, मगर उन ऐयारों के चेहरे की तरफ गौर से देखने लगी। वे लोग भी चम्पा की तरफ देखते, कभी आपस में बातें करके हंसते, कभी ऊंचे हो-होकर अपने पीछे की तरफ देखते, जिससे मालूम होता था कि ये लोग किसी की राह देख रहे हैं। थोड़ी देर बाद वे चारों चम्पा के चार तरफ हो गये और पेड़ों के नीचे छाया देखकर बैठ गये।

चम्पा का जी खटका और सोचने लगी कि ये लोग कौन हैं, चारों तरफ से मुझको घेरकर क्यों बैठ गये और इनका क्या इरादा है? अब यहां बैठना न चाहिए। यह सोचकर उठ खड़ी हुई और एक तरफ का रास्ता लिया, मगर उन चारों ने न जाने दिया। दौड़कर फिर घेर लिया, ‘‘तुम जाती कहां हो? ठहरो, हमारे मालिक दम भर में आया ही चाहते हैं, उनके आने तक बैठो, वे आ जायें तब हम लोग उनके सामने ले चल के सिफारिश करेंगे और नौकर रखा देंगे, खुशी से तुम रहा करोगी। इस तरह से कहां तक जंगल-जंगल मारी फिरोगी!’’

चम्पा : मुझे नौकरी की ज़रूरत नहीं जो मैं तुम्हारे मालिक के आने की राह देखूं, मैं नहीं ठहर सकती।

एकः नहीं नहीं, तुम जल्दी न करो, ठहरो। हमारे मालिक को देखोगी तो खुश हो जाओगी, ऐसा खूबसूरत जवान तुमने कभी न देखा होगा, बल्कि हम कोशिश करके उनसे तुम्हारी शादी करा देंगे।

चम्पा: होश में आकर बातें करो नहीं तो दुरुस्त कर दूंगी। खाली औरत न समझना, तुम्हारे जैसे दस को मैं कुछ नहीं समझती!

चम्पा की ऐसी बात सुनकर उन लोगों को बहुत अचम्भा हुआ, एक का मुंह दूसरा देखने लगा। चम्पा फिर आगे बढ़ी। एक ने हाथ पकड़ लिया। बस फिर क्या था, चम्पा ने झट कमर से खंजर निकाल लिया और बड़ी फुर्ती के साथ दो को जख्मी करके भागी। बाकी के दो आदमियों ने उसका पीछा किया मगर कहां पा सकते थे।

चम्पा भागी तो, मगर उसकी किस्मत ने उसे भागने न दिया। एक पत्थर से ठोकर खा बड़े ज़ोर से गिरी, चोट भी ऐसी लगी कि उठ न सकी, तब तक ये दोनों भी वहीं पहुंच गये। अभी इन लोगों ने कुछ कहा भी नहीं था कि सामने से एक काफिला सौदागरों का आ पहुंचा जिसमें लगभग दो सौ आदमी होंगे। उनके आगे-आगे एक बूढ़ा आदमी था जिसकी लम्बी-सफेद दाढ़ी, काला रंग, भूरी आंखें, उम्र अस्सी वर्ष की होगी। उम्दा कपड़े पहने, ढाल तलवार लगाये, बर्छी हाथ में लिये एक बेशकीमती मुश्की घोड़े पर सवार था। साथ में उसके एक लड़का जिसकी उम्र बीस वर्ष से ज़्यादा न होगी, रेख तक न निकली थी, बड़े ठाठ के साथ नैपाली टांगन पर सवार था, जिसकी खूबसूरती और पोशाक देखने से मालूम होता था कि कोई राजकुमार है। पीछे-पीछे उनके बहुत से आदमी घोड़ों पर सवार और कुछ पैदल भी थे। सबसे पीछे कई ऊंटों पर असबाब और उनका डेरा लदा हुआ तथा साथ में कई डोलियां थीं जिनके चारों तरफ बहुत से प्यादे तोड़ेदार बन्दूकें लिये चले आते थे। दोनों आदमियों ने जिन्होंने चम्पा का पीछा किया था, पुकार कर कहा, ‘‘इस औरत ने हमारे दो आदमियों को जख्मी किया है!’’ जब तक कुछ और कहें तब तक आदमियों ने चम्पा को घेर लिया और खंजर छीन हथकड़ी-बेड़ी डाल दी।

उस बूढ़े सवार ने जिसके बारे में हम कह सकते हैं कि शायद सभी का सरदार होगा, दो-एक आदमियों की तरफ देखकर कहा, ‘‘हम लोगों का डेरा इसी जंगल में पड़े। यहां आदमियों का आमदरफ्त कम मालूम होती है, क्योंकि कोई निशान पगडण्डी का ज़मीन पर दिखाई नहीं देता।

डेरा पड़ गया, एक बड़ी रावटी में कई औरतें कैद की गयीं जो डोलियों पर बैठी थीं। चम्पा बेचारी भी उन्हीं में रखी गयी। सूरज अस्त हो गया, एक चिराग उस रावटी में जलाया गया जिसमें कई औरतों के साथ चम्पा भी थी। दो लौंडियां आयीं जिन्होंने औरतों से पूछा कि तुम रसोयी बनाओगी या बना-बनाया खाओगी? सभी ने कहा हम बना-बनाया खायेंगे?’’ मगर दो औरतों ने कहा, ‘‘हम कुछ न खायेंगे!’’ जिसके ज़वाब में दोनों लौंडियां यह कहकर चली गईं कि ‘देखें तब तक भूखी रहती हो!’’ इन औरतों में से एक तो बेचारी आफत की मारी चम्पा ही थी और दूसरी एक बहुत ही नाज़ुक और खूबसूरत औरत थी जिसकी आंखों से आंसू जारी थे और जो थोड़ी-थोड़ी देर पर लम्बी-लम्बी सांस ले रही थी। चम्पा भी उसी के पास बैठी हुई थी।

पहर रात चली गई, सभी के वास्ते खाने को आया मगर उन दोनों के वास्ते नहीं जिन्होंने पहले इनकार किया था। आधी रात बीतने पर सन्नाटा हुआ, पैरों की आवाज़ डेरे के चारों तरफ मालूम होने लगी जिससे चम्पा ने समझा कि इस डेरे के चारों तरफ पहरा घूम रहा है। धीरे-धीरे चम्पा ने अपने बगलवाली खूबसूरत नौजुक औरत से बातें करना शुरू किया–

चम्पा : आप कौन हैं और इन लोगों के हाथ क्योंकर फंस गईं?

औरत : मेरा नाम कलावती है, मै महाराज शिवदत्त की रानी हूं, महाराज लड़ाई पर गये थे, उनके वियोग में ज़मीन पर सो रही थी, मुझको कुछ मालूम नहीं, जब आंख खुली तो अपने को इन लोगों के फंदे में पाया। बस और क्या कहूं। तुम कौन हो?

चम्पा : हैं, आप चुनार की महारानी हैं! हा, आपकी यह दशा! वाह विधाता तू धन्य है! मैं क्या बताऊं, जब आप महाराज शिवदत्त की रानी हैं तो कुमारी चन्द्रकान्ता को भी ज़रूर जानती होंगी, मैं उन्हीं की सखी हूं, उन्हीं की खोज में मारी-मारी फिरती थी कि इन लोगों ने पकड़ लिया।

ये दोनों आपस में धीरे-धीरे बातें कर रही थीं कि बाहर से एक आवाज़ आई, ‘‘कौन है? भागा, भागा, निकल गया!!’’ महारानी डरीं, मगर चम्पा को कुछ खौफ न मालूम हुआ। बात-की-बात में रात बीत गई, दोनों में से किसी को नींद न आई। कुछ-कुछ दिन भी निकल आया, वही दोनों लौंडियां जो भोजन कराने आई थीं इस समय फिर आईं। तलवार दोनों के हाथ में थी। इन दोनों ने सभी से कहा, ‘‘चलो पारी-पारी से मैदान हो आओ।’’

कुछ औरतें मैदान गईं, मगर ये दोनों अर्थात् महारानी और चम्पा उसी तरह बैठी रहीं, किसी ने जिद न की। पहर दिन चढ़ आया था कि इस काफिले का बूढ़ा सरदार एक बूढ़ी औरत को लिए इस डेरे में आया जिसमें सब औरतें कैद थीं।

बुड्ढी : इतनी ही हैं या और भी?

सरदार : बस इस वक़्त तो इतनी ही हैं, अब तुम्हारी मेहरबानी होगी तो और भी हो जायेंगी!

बुड्ढी : देखिए तो सही, मैं कितनी औरतें फंसा लाती हूं। हां, अब बताइए किस मेल की औरत लाने पर कितना मिलेगा?

सरदार : देखो ये सब मेल में हैं, इस किस्म की अगर लाओगी तो दस रुपये मिलेंगे। (चम्पा की तरफ इशारा करके) अगर इस मेल की लाओगी तो पूरे पचास रुपये। (महारानी की तरफ बताकर) अगर ऐसी खूबसूरत लाओगी तो पूरे सौ रुपये मिलेंगे, समझ गईं?

बुड्ढी : हां, अब मैं बिल्कुल समझ गई, इन सभी को आपने कैसे पाया?

सरदार : यह जो सबसे खूबसूरत है इसको तो एक खोह में पाया था, बेहोश पड़ी थी, और यह कल इसी जगह पकड़ी गई है, इसने मेरे दो आदमी मार डाले हैं, बड़ी बदमाश है!

बुड्ढी : इसकी चितवन ही से बदमाशी झलकती है, ऐसी-ऐसी अगर तीन-चार आ जायें तो आपका काफिला बैकुण्ड चला जाये।

सरदार : इसमें क्या शक है! और वे सब जो हैं, वह कई तरह से पकड़ी गई हैं। एक तो वह बंगले की रहने वाली है, इसके पड़ोस ही में मेरे लड़के ने डेरा डाला था, अपने पर आशिक करके निकाल लाया। ये चारों रुपये की लालच में फंसी हैं और बाकी सबों को मैंने उनकी मां, नानी या वारिसों से खरीद लिया है। बस चलो, अपने डेरे में बातचीत करेंगे। मैं बुड्ढा आदमी बहुत देर तक खड़ा नहीं रह सकता।

बुड्ढी : चलिए!

दोनों उस डेरे से रवाना हुए। इन दोनों के बाद औरतों ने खूब गालियां दीं-‘‘मुए को देखो, अभी और औरतों को फंसाने की फिक्र में लगा है! न मालूम यह बुड्ढी इसको कहां से मिल गई, बड़ी शैतान मालूम पड़ती है।’’ कहती है ‘देखो मैं कितनी औरतें फंसा लाती हूं।’ हे परमेश्वर, इन लोगों पर भी तेरी कृपा बनी रहती है, न मालूम यह डाइन कितने घर चौपट करेगी?

चम्पा ने उस बुढ़िया को खूब गौर करके देखा और आधे घण्टे तक कुछ सोचती रही। मगर महारानी को सिवाय रोने के और कोई धुन न थी। ‘हाय, महाराज की लड़ाई में क्या दशा होगी, वे कैसे होंगे, मेरी याद करके कितने दुःखी हो रहे होंगे?’ धीरे-धीरे यही कह के रो रही थी। चम्पा उनको समझाने लगी।

‘‘ महारानी, सब्र करो, घबराओ मत, मुझे पूरी उम्मीद हो गई, ईश्वर चाहेगा तो हम लोग बहुत जल्द छूट जायेंगे! क्या करूं, मैं कथकड़ी में पड़ी हूं, किसी तरह यह खुल जाती तो इन लोगों को मज़ा चखाती, लाचार हूं कि यह मज़बूत बेड़ी सिवाय कटने के दूसरी तरह खुल नहीं सकती और उसका काटना यहां मुश्किल है।’’

इस तरह रोते-कलपते आज का दिन भी बीता। शाम हो गई। बुड्ढा सरदार फिर उस डेरे में आ पहुंचा जिसमें औरतें कैद थीं, साथ में वही सवेरे वाली बुढ़िया आफत की पुड़िया एक जवान खूबसूरत औरत को लिए हुए थी।

बुढ़िया मिला लीजिए, अव्वल नम्बर की है कि नहीं?

सरदार : अव्वल नम्बर की तो नहीं, हां दूसरे नम्बर की ज़रूर है, पचास रुपये की आज तुम्हारी बोहनी हुई, इसमें शक नहीं!

बुढ़िया : खैर पचास ही सही, यहां कौन गिरह की जमा लगती है, कल फिर लाऊंगी, चलिए।

इस समय इन दोनों की बातचीत बहुत धीरे-धीरे हुई, किसी ने सुना नहीं मगर होंठों के हिलने से चम्पा कुछ-कुछ समझ गई। यह नई औरत जो आई बड़ी खुश दिखाई देती थी। हाथ-पैर-खुले थे। तुरन्त ही इसके वास्ते खाने को आया। इसने भी खूब लम्बे-चौड़े हाथ लगाये, बेखटके सारा भोजन उड़ा गई। दूसरी औरतों को सुस्त और रोते देख हंसती और चुटकियां लेती थी। चम्पा ने जी में सोचा, ‘‘यह तो बड़ी भारी बला है, इसको अपने कैद होने या फंसने की कोई फिक्र ही नहीं! मुझे तो कुछ खटका मालूम होता है!’’

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