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उपन्यास >> चंद्रकान्ता

चंद्रकान्ता

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :272
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8395
आईएसबीएन :978-1-61301-007-5

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चंद्रकान्ता पुस्तक का ई-संस्करण

सोलहवां बयान

कल की तरह आज भी बीत गई। लौंडियों के साथ सुबह को सब औरतें बारी-बारी मैदान भेजी गईं। महारानी और चम्पा आज भी नहीं गईं। चम्पा ने महारानी से पूछा, ‘‘आप जब से इन लोगों के हाथ फंसी हैं कुछ भोजन किया या नहीं?’’ उन्होंने ज़वाब दिया, ‘‘महाराज के मिलने की उम्मीद में जान बचाने के लिए दूसरे-तीसरे दिन कुछ खा लेती हूं, क्या करूं कुछ बस नहीं चलता।’’

थोड़ी देर बाद दो आदमी इस डेरे में आये। महारानी और चम्पा से बोले, ‘‘तुम दोनों बाहर चलो, आज हमारे सरदार का हुक्म है कि सब औरतें मैदान में पेड़ों के नीचे बैठाई जायें जिससे मैदान की हवा लगे और तंदुरुस्ती में फर्क न पड़ने पाए।’’ यह कह दोनों को बाहर ले गये। वे औरतें जो मैदान में गयी थीं बाहर ही एक बहुत घने महुए के तले बैठी हुई थीं। ये दोनों भी उसी जगह जाकर बैठ गईं। चम्पा चारों तरफ निगाह दौड़ाकर देखने लगी।

दोपहर दिन चढ़ आया होगा। वही बुढ़िया जो कल एक औरत ले आई थी आज फिर एक जवान औरत, कल से ज़्यादा खूबसूरत लिए हुए पहुंची। उसे देखते ही बुड्डे मियां ने बड़ी खातिर से अपने पास बैठाया और उस औरत को भी बारीक निगाहों से देखा। आखिर उससे न रहा गया, ऊपर की तरफ मुंह करके बोली, ‘‘मी सगमता।’’* (* हम पहचान गये। ) वह औरत जो आज आई थी चम्पा का मुंह देखने लगी। थोड़ी देर बाद वह भी अपने पैर के अंगूठे की तरफ देखकर और हाथों से मलती हुई बोली, ‘‘चपकलाछठमें बापरोफस!* (* चुप रहोगी तो तुम्हारी भी जान जायेगी।) फिर दोनों में से कोई न बोली।

शाम हो गई। सब औरतें उस रावटी में पहुंच गईं। रात को खाने का सामान पहुंचा, महारानी और चम्पा के सिवाय सभी ने खाया। उन दोनों औरतों ने तो खूब ही हाथ फेरे जो नयी फंस कर आयी थीं।

रात बहुत चली गई, सन्नाटा हो गया, रावटी के चारों तरफ पहरा फिरने लगा। रावटी में एक चिराग जल रहा था। सब औरतें सो गईं, सिर्फ चार जाग रही हैं, महारानी, चम्पा और वे दोनों जो नयी आईं थीं।

चम्पा ने उन दोनों की तरफ देखकर कहा, ‘‘कड़ाक भी टेटी, नौ से पारो फेसतो!* (* मेरी बेड़ी तोड़ दो नहीं तो गुल मचाकर गिरफ्तार करा दूंगी। )

एक ने ज़वाब दिया, ‘‘तीमसे को!* (* तुम्हारी क्या दशा होगी?)

फिर चम्पा ने कहा, ‘‘रानी में सेगी?’’*  (* रानी का साथ दूंगी!)

उन दोनों औरतों ने अपनी कमर से कोई तेज़ औजार निकाला और धीरे से चम्पा की हथकड़ी और बेड़ी काट दी। अब चम्पा लापरवाह हो गई, उसके होंठों पर मुस्कुराहट मालूम होने लगी।

दो पहर रात बीत गयी। एकाएक उस रावटी को चारों तरफ से बहुत-से आदमियों ने घेर लिया। शोरगुल की आवाज़ आने लगी, ‘मारो, पकड़ो’ की आवाज़ सुनाई देने लगी। बन्दूक की भी आवाज़ कान में पड़ी। अब सब औरतों को यकीन हो गया कि डाका पड़ा है और लड़ाई हो रही है। खलबली मच गई, रावटी में जितनी औरतें थीं, इधर-उधर दौड़ने लगीं। महारानी घबराकर ‘चम्पा-चम्पा’ पुकारने लगीं, मगर पता नहीं, चम्पा दिखाई न पड़ी। वे दोनों औरतें जो नई आई थीं आकर कहने लगीं, ‘‘मालूम होता है कि चम्पा निकल गई, मगर आप मत घबराइए, यह सब आप ही के नौकर हैं जिन्होंने डाका मारा है! मैं भी आप ही का ताबेदार हूं, औरत न समझिए। मैं जाता हूं, आपके वास्ते कहीं डोली तैयार होगी, लेकर आता हूं।’’ यह कह दोनों ने रास्ता लिया।

जिस रावटी में औरतें थीं उसके तीन तरफ आदमियों की आवाज़ कम हो गई। सिर्फ चौथी तरफ, जिधर और बहुत से डेरे थे, लड़ाई की आहट मालूम हो रही थी। जो आदमी जिनका मुंह कपड़े या नकाब से ढंका हुआ था, डोली लिये हुए पहुंचे और महारानी को उस पर बैठाकर बाहर निकल गये। रात बीत गई, आसमान पर सफेदी दिखाई देने लगी। चम्पा और महारानी तो चली गई थीं मगर और सब औरतें उसी रावटी में बैठी हुई थीं। डर के मारे चेहरा जर्द हो रहा था, एक डोली जिस पर किमख्वाब का पर्दा पड़ा हुआ था, लिए हुए उस रावटी के दरवाज़े पर पहुंचे, डोली बाहर रख दी, आप अन्दर गये और सब औरतों को अच्छी तरह देखने लगे, फिर पूछा, ‘‘तुम लोगों में से दो औरतें दिखाई नहीं देतीं, वे कहां गईं?’’

सब औरतें डरी हुई थीं, किसी के मुंह से आवाज़ न निकली। पन्नालाल ने फिर कहा, ‘‘तुम लोग डरो मत, हम लोग डाकू नहीं हैं, तुम लोगों को छुड़ाने के लिए इतनी धूमधाम हुई है। बताओ वे दोनों औरतें कहां हैं?’’ अब उन सब औरतों का जी ठिकाने हुआ। एक ने कहा, ‘‘दो नहीं बल्कि चार औरतें गायब हैं जिनमें दो औरतें तो हैं जो कल और परसों फंसकर आई थीं, वे दोनों तो एक औरत को यह कहकर चली गईं कि आप डरिए मत, हम लोग आपके ताबेदार हैं, डोली लेकर आते हैं तो आपको ले चलते हैं। इसके बाद डोली आई जिस पर चढ़के वह चली गयी, और चौथी तो सबसे पहले ही निकल गई थी।’’

पन्नालाल के तो होश उड़ गये, रामनारायण और चुन्नीलाल के मुंह की तरफ देखने लगे। रामनारायण ने कहा, ‘‘ठीक है, हम लोग महारानी को ढांढ़स देकर तुम्हारी खोज में डोली लेने चले गये, जफील बजाकर तुमसे मुलाकात की और डोली लेकर चले आ रहे हैं, मगर दूसरा कौन डोली लेकर आया जो महारानी को लेकर चला गया? इन लोगों का यह कहना भी ठीक है कि चम्पा पहले ही से गायब है। जब हम लोग औरत बने हुए उस रावटी में थे और लड़ाई हो रही थी, महारानी ने डर कर ‘चम्पा-चम्पा’ पुकारा, तभी उसका पता न था। मगर यह मामला क्या है कुछ समझ में नहीं आता! चलो बाहर चलकर इन बर्देफरोशों* की डोलियों को गिनें, उतनी ही हैं या कम? इन औरतों को भी बाहर निकालो।’’ (*‘बर्देफरोश’ आदमियों की सौदागिरी करते हैं, अर्थात् लौंडी गुलाम बेचते हैं।)

सब औरतें उस डेरे के बाहर चली गईं। उन्होंने देखा कि चारों तरफ खून-ही-खून दिखाई देता है, कहीं-कहीं लाश भी नज़र आती है। काफिले का बुड्ढा सरदार उसका खूबसूरत लड़का जंजीरों से जकड़े एक पेड़ के नीचे बैठे हुए हैं। दस आदमी नंगी तलवार लिये उनकी निगहबानी कर रहे हैं और सैकड़ों आदमी हाथ-पैर बंधे दूसरे पेड़ के नीचे बैठाये हुए हैं। रावटियां और डेरे सब उजड़े पड़े हैं।

पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल उस जगह गये जहां बहुत-सी डोलियां रखी थीं। रामनारयण ने पन्नालाल से कहा, ‘‘देखो, यह सोलह डोलियां हैं, पहले हमने सत्रह गिनी थीं, इससे मालूम होता है कि इन्हीं में की वह डोली थी जिसमें महारानी गई हैं। मगर उनको ले कौन गया? चुन्नीलाल, जाओ तुम दीवान साहब को यहां बुला लाओ, उस तरफ बैठे जहाँ फौज़ खड़ी है।’’

दीवान साहब को लिए हुए चुन्नीलाल आये। पन्नालाल ने उनसे कहा, ‘‘देखिए, हम लोगों की चार दिन की मेहनत बिल्कुल खराब हो गई! विजयगढ़ से तीन मंजिल पर इन लोगों का डेरा था। इस बुड्ढे सरदार को हम लोगों ने औरतों का लालच देकर रोका, कि कहीं आगे न चला जाये और आपको खबर दी। आप भी पूरे सामान से आये, इतना खून-खराबा हुआ, मगर महारानी और चम्पा हाथ न आईं। भला चम्पा तो बदमाशी करके निकल गई, उसने कहा कि हमारी बेड़ी खोल दो नहीं तो हम सब भेद खोल देंगे कि मर्द हो, धोखा देने आये हो, पकड़े जाओगे, लाचार होकर उसकी बेड़ी काट दी और वह मौका पाकर निकल गई, मगर महारानी को कौन ले गया?’’

दीवान साहब की अक्ल हैरान थी कि यह क्या हो गया। बोले, ‘‘इन बदमाशों को बल्कि इनके बुड्ढ़े मियां सरदार को मार-पीट के पूछो, कि कहीं इन्हीं लोगों की बदमाशी तो नहीं है!’’

पन्नालाल ने कहा, ‘‘जब सरदार ही आपकी कैद में हैं तो मुझे यकीन नहीं आता कि उसके सबब से महारानी गायब हो गई हैं। आप इन बर्देफरोशों को और फौज़ लेकर जाइए और राज्य का काम देखिए, हम लोग फिर महारानी की टोह लेने जाते हैं, इसका तो बीड़ा ही उठाया है।’’

दीवान साहब बर्देफरोश कैदियों को मय उनके माल-असबाब के साथ ले चुनार की तरफ रवाना हुए। पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल महारानी की खोज में चले, रास्ते में आपस में यूं बातें करने लगे–

पन्नालाल : देखो आजकल चुनार राज्य की क्या दुर्दशा हो रही है, महाराज उधर फंसे, महारानी का पता नहीं, पता लगा मगर फिर से कोई उस्ताद हम लोगों को उल्लू बनाकर उन्हें ले गया।

रामनारायण : भाई बड़ी मेहनत की थी मगर कुछ न हुआ। किस मुश्किल से इन लोगों का पता पाया, कैसी-कैसी तरकीबों से दो दिन तक इसी जंगल में रोके रक्खा, कहीं जाने न दिया, दौड़ा-दौड़ा चुनार से सेना सहित दीवान साहब को लाये, लड़े-भिड़े अपनी तरफ के कई आदमी भी मरे, मगर वही पहला दिन, शर्मिन्दगी मुनाफे में!

चुन्नी : हम तो बड़े खुश थे कि चम्पा भी हाथ आवेगी मगर वह तो और आफत निकली, कैसा हम लोगों को पहचाना और बेबस करके धमका के अपनी बेड़ी कटवा ही ली! बड़ी चालाक है, कहीं उसी का तो यह फसाद नहीं है?

पन्ना : नहीं जी, अकेली चम्पा डोली में बैठा के महारानी को नहीं ले जा सकती!

राम : हम तीनों को महारानी की खोज में भेजने के बाद अहमद और नाज़िम को साथ लेकर पण्डित बद्रीनाथ भी महाराज को कैद से छुड़ाने गये हैं, देखें वह क्या जस लगाकर आते हैं।

पन्ना : भला हम लोगों का मुंह भी तो हो कि चुनार जाकर उनका हाल सुनें और क्या जस लगाकर आते हैं इसको देखें। अगर महारानी न मिलीं तो कौन मुंह लेकर जायेंगे?

राम : बस मालूम हो गया कि आज जो शख्स महारानी को इस फुर्ती से चुरा ले गया वह हम लोंगो का ठीक उस्ताद है। अब तो इसी जंगल में खेती करो, लड़के बाले लेकर आ बसो, महारानी का मिलना तो मुश्किल है।

पन्ना : वाह रे तेरा हौसला! क्या पिनिक के औतार हुए हैं।

थोड़ी दूर जाकर ये लोग आपस में कुछ बातें कर, मिलने का ठिकाना ठहरा अलग हो गये।

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