उपन्यास >> चंद्रकान्ता चंद्रकान्तादेवकीनन्दन खत्री
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चंद्रकान्ता पुस्तक का ई-संस्करण
सातवां बयान
आज तेजसिंह के वापस आने और बांके तिरछे जवान के पहुंच कर बातचीत करने और चिट्ठी लिखने में देर हो गई, दो पहर दिन चढ़ आया। तेजसिंह ने बद्रीनाथ को होश में लाकर पहरे में किया और कुमार से कहा, ‘‘अब स्नान-पूजा करें फिर जो होगा सोचा जायेगा, दो रोज़ से तिलिस्म का भी कोई काम नहीं हुआ है।’’
कुमार ने दरबार बरखास्त किया, स्नान-पूजा से छुट्टी पाकर खेमे में बैठे, ऐयार लोग और फतहसिंह भी हाज़िर हुए। अभी किसी किस्म की बातचीत नहीं हुई थी कि चोबदार ने आकर अर्ज़ किया, ‘‘एक बुड्ढी औरत बाहर हाज़िर हुई है, कुछ कहना चाहती है, हम लोग पूछते हैं तो कुछ नहीं बताती। कहती है जो कुछ है कुमार से कहूंगी क्योंकि उन्हीं के मतलब की बात है।’’
कुमार ने कहा, ‘‘जल्दी अन्दर लाओ।’’ चोबदार न उस बुड्ढी को हाज़िर किया, देखते ही तेजसिंह के मुंह से निकला, ‘‘ क्या पिशाचों और डाकिनियों का दरबार खुल पड़ा है?’’
उस बुड्ढी ने भी यह बात सुन ली, लाल-लाल आंखें कर तेजसिंह की तरफ देखने लगी और बोली, ‘‘बस, अब कुछ न कहूंगी, जाती हूं, मेरा क्या बिगड़ेगा, जो नुकसान होगा कुमार का होगा। यह कह खेमे से बाहर चली गई। कुमार का इशारा पा चोबदार समझा-बुझा कर उसे पुनः ले आया।
यह औरत भी अजीब सूरत की थी। उम्र लगभग सत्तर वर्ष की होगी, बाल कुछ-कुछ सफेद, आधे से ज़्यादा दांत गायब, लेकिन दो बड़े-बड़े टेढ़े वाले दांत दो-दो अंगुल बाहर निकले थे जिनमें जर्दी और कीट जमी हुई थी। मोटे कपड़े की साड़ी बदन पर थी जो बहुत ही मैली और सिर की तरफ से चिक्कट हो रही थी। बड़ी-सी पीतल की नथ नाक में और पीतल ही के घुंघरू पैरों में पहने हुए थी।
तेजसिंह ने पूछा, ‘‘क्यों, क्या चाहती है?’’
बुड्ढी : ज़रा दम ले लूं तो कहूं, फिर तुमसे क्यों कहने लगी, जो कुछ है खास कुमार ही से कहूंगी।
कुमार : अच्छा मुझ ही से कह, क्या चाहती है?
बुड्ढी : तुमसे तो कहूंगी ही, तुम्हारे बड़े मतलब की बात है। (खांसने लगती है)।
देवीसिंह : अब डेढ़ घण्टे तक खांसेगी तब कहेगी?
बुड्ढी : फिर दूसरे ने दखल दिया।
कुमार : नहीं, नहीं, कोई न बोलेगा?
बुड्ढी : एक बात है, मैं जो कुछ कहूंगी तुम्हारे मतलब की कहूंगी, जिसको सुनते ही खुश हो जाओगे, मगर उसके बदले में मैं भी कुछ चाहती हूँ।
कुमार : हाँ, हाँ तुझे भी खुश कर देंगे।
बुड्ढी : पहले तुम इस बात की कसम खाओ कि तुम या तुम्हारा कोई आदमी मुझको कुछ न कहेगा और मारने-पीटने या क़ैद करने का तो नाम भी न लेगा।
कुमार : जब हमारे भले की बात है तो कोई तुमको क्यों मारने या क़ैद करने लगा?
बुड्ढी : हां, यह तो ठीक है, मगर मुझे डर मालूम होता है क्योंकि मैंने आपके लिए वह काम किया है कि अगर हज़ार बरस भी आपके ऐयार लोग कोशिश करते तो वह न होता, इस सबब से मुझे डर मालूम होता है कि कहीं आपके ऐयार लोग खार खाकर मुझे तंग न करें।
उस बुड्ढी की बात सुन कर सब दंग हो गये और सोचने लगे कि यह कौन-सा काम कर आई है कि आसमान पर चढ़ी जाती है। आखिर कुमार ने कसम खाई कि ‘चाहे तू कुछ कहे मगर हम या हमारा कोई आदमी तुझे कुछ न कहेगा।’ तब वह फिर बोली, ‘‘मैं उस वनकन्या का पूरा पता आपको दे सकती हूं और एक युक्ति ऐसी बता सकती हूं कि उस घड़ी भर में सारा तिलिस्म तोड़कर कुमारी चन्द्रकान्ता से जा मिलें।’’
बुड्ढी की बात सुनकर सब खुश हो गये। कुमार ने कहा, ‘‘अगर ऐसा ही है तो जल्द बता कि वन वनकन्या कौन है और घड़ी भर में तिलिस्म कैसे टूटेगा?’’
बुड्ढी : पहले इनाम की बात तो तय कर लीजिए।
कुमार : अगर तेरी बात सच हुई तो जो कहेगी वही इनाम मिलेगा।
बुड्ढी : तो इसके लिए कसम खाइये।
कुमार : अच्छा क्या इनाम लेगी पहले यह तो सुन लूं।
बुड्ढी : बस और कुछ नहीं, केवल इतना ही कि आप मुझसे शादी कर लें, वनकन्या और चन्द्रकान्ता से तो चाहे जब शादी हो मगर मुझसे आज ही हो जाये, क्योंकि मैं बहुत दिनों से तुम्हारे इश्क में फंसी हुई हूं, बल्कि तुम्हारे मिलने की तरकीबें सोचते-सोचते बुड्ढी हो चली। आज मौका मिला है कि तुम मेरे हाथ फंस गये, बस अब देर मत करो नहीं तो मेरी जवानी निकल जायेगी, फिर पछताओगे।
बुड्ढी की बातें सुन मारे गुस्से से कुमार का चेहरा लाल हो गया और उसके ऐयार लोग भी दांत पीसने लगे, मगर क्या करें, लाचार थे, अगर कुमार कसम न खा चुके होते तो ये लोग उस बुड्ढी की पूरी दुर्गति कर देते।
तेजसिंह ने ज्योतिषीजी से पूछा, ‘‘आप बताइए ये कोई ऐयार है या सचमुच जैसी दिखाई देती है वैसी ही है? अगर कुमार कसम न खाए होते तो हम लोग किसी युक्ति से मालूम कर ही लेते।
ज्योतिषीजी ने अपनी नाक पर हाथ रखकर स्वांस का विचार करके कहा, यह ऐयार नहीं है, जो देखते हो वही है।’’ अब तो तेजसिंह और भी बिगड़े बुड्ढी से कहा, ‘‘बस तू यहां से चली जा, हम लोग कुमार के कसम खाने को पूरा कर चुके कि तुझे कुछ न कहा, अगर अब जाने में देर करेगी तो कुत्तों से नुचवा डालूंगा।’’
बुड्ढी ने कहा, ‘‘अगर मेरी बात न मानोगे तो पछताओगे, तुम्हारा सब काम बिगाड़ दूंगी, देखो, उस तहखाने में मैंने ताला लगा दिया कि तुमसे खुल न सका, आखिर बद्रीनाथ की गठरी लेकर वापस आये, अब जाकर महाराज शिवदत्त को छिपा देती हूं फिर और फसाद करूंगी!’’
यह कहती हुई वह गुस्से के मारे लाल-लाल आंखें किये खेमे से बाहर निकल गई। तेजसिंह के इशारे से देवीसिंह भी उसके पीछे-पीछे चले गये।
कुमार: क्यों तेजसिंह, यह चुड़ैल तो अजब आफत मालूम पड़ती है, कहती है कि तहखाने में मैंने ही ताला लगा दिया था।
तेजसिंह : क्या मामला है, कुछ समझ में नहीं आता।
ज्योतिषी : अगर यह सच है तो हम लोगों के लिए यह बड़ी भारी बला पैदा हुई।
तेजसिंह : इसकी सच्चाई-झुठाई तो शिवदत्त के छूटने ही से मालूम हो जायेगी, अगर सच्ची निकली तो बिना जान के मारे न छोड़ूंगा।
ज्योतिषी : ऐसे को मारना ही ज़रूरी है।
तेजसिंह: कुमार ने यह कसम तो खाई नहीं है कि जन्म भर कोई कुछ न कहेगा।
कुमार : (लम्बी सांस लेकर) हाय, आज मुझको यह दिन भी देखना पड़ा।
तेजसिंह : आप चिन्ता न कीजिए, देखिए तो हम लोग क्या करते हैं, देवीसिंह उसके पीछे गये हैं, पता लिए बिना नहीं आयेंगे!
कुमार : आजकल तुम लोगों की ऐयारी उल्ली लग गई है, कुछ वनकन्या का पता लगाया कि कुछ अब डाकिनी की खबर लगाओगे!
कुमार की यह बात तेजसिंह और ज्योतिषीजी को तीर के समान लगी मगर कुछ बोले नहीं, सिर्फ उठ के खेमे के बाहर चले गये।
इन लोगों के चले जाने के बाद कुमार खेमे में अकेले रह गये, तरह-तरह की बातें सोचने लगे, कभी चन्द्रकान्ता की बेबसी और तिलिस्म में फंस जाने पर कभी तिलिस्म टूटने में देर और वनकन्या की खबर या ठीक-ठाक हाल न पाने पर, कभी इसी बुड्ढी चुडै़ल की बातों पर जो शादी करने आई थी, अफसोस और गम करते रहे। तबीयत बिलकुल उदास थी। आखिर दिन बीत गया और शाम हुई।
कुमार ने फतहसिंह को बुलाया, जब वे आये तो पूछा, ‘‘ तेजसिंह कहा है?’’ उन्होंने जवाब दिया, ‘‘कुछ मालूम नहीं, ज्योतिषीजी को साथ लेकर कहीं गये हैं।’’
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