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उपन्यास >> चंद्रकान्ता

चंद्रकान्ता

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :272
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8395
आईएसबीएन :978-1-61301-007-5

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चंद्रकान्ता पुस्तक का ई-संस्करण

आठवां बयान

देवीसिंह उस बुड्ढी के पीछे रवाना हुए। जब तक दिन रहा बुड्ढी चलती गई। उन्होंने भी पीछा न छोड़ा। कुछ रात गये तक वह चुड़ैल एक छोटे पहाड़ के दर्रे में पहुंची जिसके दोनों तरफ उंची-ऊंची पहाड़ियां थीं। थोड़ी दूर इस दर्रे के अन्दर जा वह एक खोह में घुस गई जिसका मुंह बहुत छोटा, सिर्फ एक आदमी के जाने लायक था।

देवीसिंह ने समझाया कि शायद यही इसका घर होगा; यह सोच एक पेड़ के नीचे बैठ गये। रात भर उसी तरह बैठे रह गये मगर फिर वह बुढ़िया उस खोह में से बाहर न निकली, सवेरा होते ही देवीसिंह भी उसी खोह में घुसे।

उस खोह के अन्दर बिल्कुल अन्धकार था, देवीसिंह टटोलते हुए चले जा रहे थे। अगल-बगल जब हाथ फैलाते तो दीवार मालूम पड़ती जिससे जाना जाता है कि यह खोह एक सुरंग के तौर पर है, इसमें कोई कोठरी या रहने की जगह नहीं है। लगभग दो मील गये होंगे कि सामने की तरफ चमकती हुई रोशनी नज़र आई। जैसे-जैसे आगे जाते थे रोशनी बड़ी मालूम होती थी, जब पास पहुंचे तो सुरंग के बाहर निकलने का दरवाज़ा देखा।

देवीसिंह बाहर हुए, अपने को एक छोटी सी नदी के किनारे पाया, इधर-उधर निगाह दौड़ा कर देखा तो चारों तरफ घना जंगल, कुछ मालूम न पड़ा कि कहां चले आये औऱ लश्कर में जाने की कौन राह है? दिन भी भर से ज़्यादा जा चुका था। सोचने लगे कि उस बुड्ढी ने खूब छकाया, न मालूम वह किस राह से निकल कर कहां चली गई, अब उसका पता लगाना मुश्किल है, फिर इसी सुरंग की राह से फिरना पड़ा क्योंकि ऊपर से जगंल-ही-जंगल! लश्कर में जाने की राह मालूम नहीं, कहीं ऐसा न हो कि भटक जायें तो और भी खराबी हो। बड़ी भूल हुई कि रात ही को बुड्ढी के पीछे-पीछे हम भी इस सुरंग में न घुसे, मगर यह क्या मालूम था कि इस सुरंग में दूसरी तरफ निकल जाने के लिए रास्ता है।

देवीसिंह मारे गुस्से के दांत पीसने लगे, मगर कर ही क्या सकते थे? बुड्ढी तो मिली नहीं कि कसर निकालते, आखिर लाचार हो उसी सुरंग की राह से वापस हुए और शाम होते-होते लश्कर में पहुंचे।

कुमार के खेमे में गये, देखा कि कई आदमी बैठे हैं और वीरेन्द्रसिंह फतहसिंह से बातें कर रहे हैं। देवीसिंह को देख सभी लोग खेमे से बाहर चले गये, सिर्फ फतहसिंह रह गये। कुमार ने पूछा, क्यों उस बुड्ढी की क्या खबर लाये?

देवीसिंह : बुड्ढी ने तो बेहिसाब धोखा दिया।

कुमार : (हंसकर) क्या धोखा दिया?

देवीसिंह ने बुड्ढी के पीछे जाकर परेशान होने का सब हाल कहा जिसे सुनकर कुमार और भी उदास हुए।

देवीसिंह ने फतहसिंह से पूछा, हमारे उस्ताद और ज्योतिषीजी कहां हैं? उन्होंने जवाब दिया कि बुड्ढी चुड़ैल के आने से कुमार बहुत गुस्से में थे, उसी हालत में तेजसिंह से कह बैठे कि तुम लोगों की ऐयारी में इन दिनों उल्ली लग गई है। इतना सुन गुस्से में आकर ज्योतिषीजी को साथ ले कहीं चले गये। अभी तक नहीं आये।’

देवीसिंह : कब गये?

फतहसिंह : तुम्हारे जाने के थोड़ी देर बाद।

देवीसिंह : इतने गुस्से में उस्ताद का जाना खाली न होगा, ज़रूर कोई अच्छा काम करके आयेंगे।

कुमार : देखना चाहिए।

इतने में तेजसिंह और ज्योतिषीजी वहां आ पहुंचे। इस वक़्त उनके चेहरे पर खुशी और मुस्कुराहट झलक रही थी जिससे सब समझ गये कि ज़रूर कोई काम कर आये हैं। कुमार ने पूछा, ‘‘क्यों क्या खबर है?’’

तेजसिंह : अच्छी खबर है।

कुमार : कुछ कहोगे भी कि इसी तरह!

तेजसिंह : आप सुन के क्या कीजियेगा?

कुमार : क्या मेरे सुनने लायक नहीं है?

तेजसिंह : आपके सुनने लायक क्यों नहीं है, मगर अभी न कहेंगे।

कुमार : भला कुछ तो कहो।

तेजसिंह : कुछ भी नहीं।

देवीसिंह : भला उस्ताद हमें भी बताओगे या नहीं?

तेजसिंह : क्या तुमने उस्ताद कहकर पुकारा, इससे तुमको बता दें?

देवीसिंह : झख मारोगे और बताओगे!

तेजसिंह : (हंसकर) तुम कौन-सा जस लगा आये, पहले यह तो कहो।

देवीसिंह : मैं तो आपकी शागिर्दी में बट्टा लगा आया!

तेजसिंह : तो बस हो चुका।

ये बातें हो ही रही थीं कि चोबदार ने आकर हाथ जोड़ अर्ज़ किया कि ‘महाराज शिवदत्त के दीवान आये हैं’। सुनकर कुमार ने तेजसिंह की तरफ देखा फिर कहा, ‘‘अच्छा आने दो, उनके साथ वाले बाहर ही रहें।’’

महाराज शिवदत्त के दीवान खेमे में हाज़िर हुए और सलाम करके बहुत से जवाहिरात नज़र किये। कुमार ने हाथ से छू दिया। दीवान ने अर्ज़ किया, ‘‘यह नज़र महाराज शिवदत्त की तरफ से ले आया हूं। ईश्वर की दया और आपकी कृपा से महाराज क़ैद से छूट गये हैं। आते ही दरबार करके हुक्म दे दिया कि आज से हमने कुंवर वीरेन्द्रसिंह की ताबेदारी कुबूल की, हमारे जितने मुलाजिम या ऐयार हैं वे भी आज से कुमार को अपना मालिक समझें, इसके बाद मुझको यह नज़र अपने हाथ की लिखी चिट्ठी देकर हुजूर ने भेजा है, इस नज़र को कबूल किया जाये!’’

कुमार की नज़र कबूल कर तेजसिंह के हवाले की और दीवान साहब को बैठने का इशारा किया, वे चिट्ठी देकर बैठ गये।

कुछ रात जा चुकी थी, कुमार ने उसी वक़्त दरबारेआम किया, जब अच्छी तरह दरबार भर गया तब तेजसिंह को हुक्म दिया कि चिट्ठी ज़ोर से पढ़ो, तेजसिंह ने पढ़ना शुरू किया, लम्बे-चौड़े सिरनामे के बाद यह लिखा था–

‘‘मैं किसी ऐसे सबब से उस तहखाने की क़ैद से छूटा जो आप ही की कृपा से छूटना कहलाया जा सकता है। आप ज़रूर इस बात को सोचेंगे कि आपकी दया से कैसे छूटा? आपने तो क़ैद ही किया था, तो ऐसा सोचना न चाहिए। किसी सबब से मैं अपने छूटने का खुलासा नहीं कह सकता, और न हाज़िर ही हो सकता हूं। मगर जब मौका होगा और आपको मेरे छूटने का हाल मालूम होगा, यकीन हो जायेगा कि मैंने झूठ नहीं कहा था। अब मैं उम्मीद करता हूं कि आप मेरे सारे कसूरों को माफ करके यह नज़र कबूल करेंगे। आज से हमारा कोई ऐयार या मुलाजिम आपसे ऐयारी या दंगा न करेगा और आप भी इस बात का खयाल रखें।

–आपका शिवदत्त।

इस चिट्ठी को सुनकर सब खुश हो गये। कुमार ने हुक्म दिया कि पंडित बद्रीनाथ जो हमारे यहां क़ैद हैं, लाये जायें। जब वे आये, कुमार के इशारे से उनके हाथ पैर खोल दिये गये। उन्होंने भारी खिलअत अता कर दीवान साहब के हवाले किया और हुक्म दिया कि आप दो रोज यहां रहकर तब चुनार जायें! फतहसिंह को उनकी मेहमानी के लिए हुक्म देकर दरबार बर्खास्त किया।

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