उपन्यास >> चंद्रकान्ता चंद्रकान्तादेवकीनन्दन खत्री
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चंद्रकान्ता पुस्तक का ई-संस्करण
दसवां बयान
सुबह को कुमार ने स्नान-पूजा से छुट्टी पाकर तिलिस्म तोड़ने का इरादा किया और तीनों ऐयारों को साथ लेकर तिलिस्म में घुसे। कल की तरह तहखाने और कोठरियों में से होते हुए उसी बाग में पहुंचे। स्याह पत्थर की दालान में बैठ गये और तिलिस्मी किताब खोलकर पढ़ने लगे, यह लिखा हुआ था–
‘‘जब तुम तहखाने में उतरकर धुएं से, जो उसके अन्दर भरा होगा, दिमाग को बचा कर तारों को काट डालोगे तब उसके थोड़ी देर बाद कुल धुआं जाता रहेगा स्याह पत्थर की बारहदरी में संगमरमर के सिंहासन पर चौखुटें सुर्ख पत्थर पर कुछ लिखा हुआ तुमने देखा होगा, उसके छूने से आदमी के बदन में सनसनाहट पैदा होती है बल्कि उसे छूने वाला थोड़ी देर में बेहोश होकर गिर पड़ता है, मगर ये कुल बातें उन तारों के काटने से जाती रहेंगी क्योंकि अन्दर-ही-अन्दर यह तहखाना उस बारहदरी के नीचे तक चला गया है और उसी सिंहसन से उन तारों का लगाव है जो नीचे मसालों और दवाइयों में घुसे हुए हैं। दूसरे दिन फिर धुएँ वाले तहखाने में जाना, धुआं बिलकुल न पाओगे, मशाल जला लेना और बेखौफ जाकर देखना कि कितनी दौलत तुम्हारे वास्ते वहां रखी हुई है। वह दौलत बाहर निकाल लो और जहां मुनासिब समझो रखो। जब तक सारी दौलत तहखाने से निकल न जाये तब तक दूसरा काम तिलिस्म का मत करो। स्याह बारहदरी में संगमरमर के सिंहासन पर जो चौखुंटा सुर्ख पत्थर रखा है, उसको ले जाओ, असल में वह एक छोटा-सा सन्दूक है जिसके भीतर नायाब चीजें हैं। उसकी ताली इसी तिलिस्म में तुमको मिलेगी।’’
कुमार ने इन सब बातों को फिर दोहरा के पढ़ा, इसके बाद उस धुएं वाले तहखाने में जाने को तैयार हुए। तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी ने तीनों मशालें बाल लीं और कुमार के साथ उस तहखाने में उतरे। अन्दर उसी कोठरी में गये जिसमें बहुत सी तारें काटी थीं। इस वक़्तरोशनी में मालूम हुआ कि सब तारें कटी हुई इधर-उधर फैल रही हैं। कोठरी खूब लम्बी-चौड़ी है। सैकड़ों लोहे और चांदी के बड़े-बड़े सन्दूक चारों तरफ पड़े हुए हैं। एक तरफ दीवार में खूंटी के साथ तालियों का एक गुच्छा भी लटक रहा है।
कुमार ने उस ताली के गुच्छे को उतार लिया। मालूम हुआ कि इन्हीं सन्दूकों की यही तालियां हैं। एक सन्दूक को खोलकर देखा तो हीरे के जड़ाऊ जनाने जेवरों से भरा पाया, तुरन्त बन्द कर दिया और दूसरे सन्दूक को खोला, कीमती हीरों से जड़ी नायाब कब्जों की तलवारें और खंजर नज़र आये। कुमार ने उसे भी बन्द कर दिया और बहुत खुश होकर तेजसिंह से कहा–
‘‘वाकई इस कोठरी में बड़ा भारी ख़जाना है। अब इसके यहां खोलकर देखने की कोई ज़रूरत नहीं, सन्दूकों को बाहर निकलवाओ एक-एककर देखते और नौगढ़ भिजवाते जायेंगे। जहां तक जल्दी हो इन सभी को उठवाना चाहिए।’’
तेजसिंह ने जवाब दिया, ‘‘चाहे कितनी भी जल्दी की जाये मगर दस रोज से कम में इन सन्दूकों का यहां से निकलना मुश्किल है। अगर आप एक-एक को देखकर नौगढ़ भेजने लगेंगे तो बहुत दिन लग जायेंगे और तिलिस्म तोड़ने का काम अटका रहेगा, इससे मेरी समझ में यही बेहतर है कि इन सन्दूकों को बिना देखे ज्यो-का-त्यों नौगढ़ भिजवा दिया जाये। जब सब कामों से छुट्टी मिलेगी तब खोलकर देख लिया जायेगा। ऐसा करने से किसी को मालूम भी नहीं होगा कि इनमें क्या निकला और दुश्मनों की आंख भी न पड़ेगी। न मालूम कितनी दौलत इसमें भरी हुई है जिसकी हिफाज़त के लिए इतना बड़ा तिलिस्म बनाया गया!’’
इस राय को कुमार ने पसन्द किया और देवीसिंह और ज्योतिषी ने भी कहा कि ऐसा ही होना चाहिए। चारों आदमी उस तहखाने के बाहर हुए और उसी मामूली रास्ते से खंडहर के दालान में आकर पत्थर की चट्टान में ऊपर वाले तहखाने का मुंह ढांप तिलिस्मी ताले से बन्द कर खण्डहर से बाहर हो अपने खेमे में चले आये।
आज ये लोग बहुत जल्दी तिलिस्मी के बाहर हुए। अभी कुल दो पहर दिन चढ़ा था। कुमार ने तिलिस्म की और खजाने की तालियों का गुच्छा तेजसिंह के हवाले किया और कहा कि ‘अब तुम सन्दूकों को निकलवा कर नौगढ़ भेजवाने का इन्तज़ाम करो।
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