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उपन्यास >> चंद्रकान्ता

चंद्रकान्ता

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :272
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8395
आईएसबीएन :978-1-61301-007-5

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चंद्रकान्ता पुस्तक का ई-संस्करण

नौवां बयान

जब दरबार बर्खास्त हुआ आधी रात जा चुकी थी। फतहसिंह दीवान साहब को लेकर अपने खेमें में गये। थोड़ी देर बाद कुमार के खेमे में तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी फिर इकट्ठे हुए। उस वक़्त सिवाय इन चार आदमियों के और कोई यहां न था।

कुमार : क्यों तेजसिंह, बुढ़िया की बात तो ठीक निकली!

तेजसिंह: जी हां मगर महाराज शिवदत्त की चिट्ठी से तो कुछ और ही बात पाई जाती है।

देवीसिंह : उसके लिखने का कौन ठिकाना, कहीं वह धोखा न देता हो?

ज्योतिषी : इस समय बहुत सोच-विचार कर काम करने का मौका है। चाहे शिवदत्त कैसी ही सफाई दिखाए, मगर दुश्मन का विश्वास कभी न करना चाहिए।

तेजसिंह : आप ज्योतिषी हैं, विचारिए तो, यह चिट्ठी शिवदत्त ने सच्चे दिल से लिखा है या खुंदक खाकर के?

ज्योतिषी : (कुछ विचार कर) यह चिट्ठी तो उसने सच्चे दिल से लिखी है मगर यह विश्वास नहीं होता कि आगे भी उसका दिल साफ बना रहेगा।

तेजसिंह : आज कल तो ऐसे ऐसे मामले हो रहे हैं कि किसी के सिर-पैर का कुछ पता ही नहीं लगता! अगर यह चिट्ठी उसने सच्चे दिल से लिखी है तो अपने छूटने का खुलासा हाल क्यों नहीं लिखा?

ज्योतिषी : इसका भी ज़रूर कोई सबब होगा।

कुमार : जी नहीं, तिलिस्म में रमल काम नहीं करता और वह तहखाना तिलिस्म है जिसमें महाराज शिवदत्त क़ैद किये गये थे।

तेजसिंह : कुछ समझ में नहीं आता!

देवीसिंह : वह चुड़ैल भी कोई पूरी ऐयार मालूम होती है।

ज्योतिषी : कभी नहीं, मैं सोच चुका हूं, ऐयारी का तो वह नाम तक नहीं जानती।

कुमार : खैर, जो कुछ होगा देखा जायेगा, अब कल से तिलिस्म तोड़ने में ज़रूर हाथ लगाना चाहिए।

तेजसिंह : हां, कल ज़रूर तिलिस्म तोड़ने की कार्रवाई शुरू हो।

कुमार : अच्छा अब तुम लोग भी जाओ।

तीनों ऐयार कुमार से विदा हो अपने-अपने डेरे में गये। दूसरे दिन कुंवर वीरेन्द्रसिंह तीनों ऐयारों को साथ ले तिलिस्म में गये, तिलिस्मी किताब और ताली भी साथ ले ली। दालान में पहुंचकर तहखाने का ताला खोल पत्थर की चट्टान निकालकर अलग की और नीचे उतरकर कोठरी में होते हुए बाग में पहुंचे जहां थोड़ी-सी ज़मीन खोदकर छोड़े आये थे।

उस ज़मीन को ये लोग मिलकर फिर खोदने लगे। आठ-सौ हाथ ज़मीन खोदने के बाद एक संदूक मालूम पड़ा जिसके ऊपर का पल्ला बंद था और ताले का मुंह एक छोटे से तांबे से पत्थर से ढका हुआ था जिससे अन्दर मिट्टी न जाने पाये।

कुमार ने चाहा कि संदूक को बाहर निकाल लें, मगर न हो सका, ज्यों-ज्यों चारों तरफ की मिट्टी हटाते थे नीचे से संदूक चौड़ा निकला आता था। कोशिश करने पर भी इसका पता न लग सका कि वह ज़मीन में कितने नीचे तक गड़ा हुआ है। आखिर लाचार होकर कुमार ने तिलिस्मी किताब खोली और पढ़ने लगे! यह लिखा हुआ था–

‘‘ताली में रस्सी बांधकर जब बाग में उसे घसीटते फिरोगे तो एक जगह वह ताली ज़मीन से चिपक जायेगी। यहां की थोड़ी मिट्टी हटा कर ताली उठा लेना, इसके बाद उस ज़मीन को खोदना तब तक कि एक संदूक का मुंह न दिखाई पड़े। जब संदूक के ऊपर का हिस्सा निकल आवे, खोदना बंद कर देना क्योंकि असल में वह संदूक नहीं दरवाज़ा है। बाग के बीचोंबीच जो फौवारा है उसके पूरब की तरफ ठीक सात हाथ हटकर ज़मीन खोदना, एक हांडी निकलेगी, उसी में उसकी ताली है, उसे लाकर उस तहखाने का ताला खोलना, सीढ़ियाँ दिखलाई पड़ेंगी, उसी रास्ते से नीचे उतरना।’’

‘‘भीतर से वह तहखाना बहुत अंधेरा और धुंए से भरा हुआ होगा। खबरदार, कोई रोशनी मत करना, क्योंकि आग या मशाल के लगने से ही वह धुआं जल उठेगा जिससे बड़ा उपद्रव होगा और तुम लोगों की जान न बचेगी। मुंह पर कपड़ा लपेट कर उस तहखाने में उतरना, टटोलते हुए जिधर रास्ता मिले जल्दी-जल्दी चले जाना जिससे नाक के रास्ते धुआं दिमाक पर न चढ़ने पाये। थोड़ी ही दूर जाकर एक चमकती कोठरी मिलेगी जिसमें की कुल चीज़ें दिखाई पड़ती होंगी। तमाम कोठरी में नीचे से ऊपर तक तार लगे होंगे। बहुत खोज करने की कोई ज़रूरत नहीं, तलवार से जल्दी-जल्दी उन तारों को काटकर बाहर निकल आना।’’

इतना पढ़कर कुमार ने छोड़ दिया। लिखे बमूजिब बाग के बीचोंबीच वाले फौवारे से साथ हाथ दूर हटकर ज़मीन खोदी। हांडी निकली, उसमें से ताली निकालकर तहखाने का मुंह खोला। देवीसिंह ने कहा, अब अपने-अपने मुंह पर कपड़ा लपेटते जाओ। तिलिस्म क्या है जान जोखम है। रोशनी मत करो, अंधरे में टटोलकर चलो, आंख रहते अन्धे बनो और जल्दी चलो, दिमाग में धुआं भी न चढ़ने पाये!’’

देवीसिंह की बात सुनकर कुमार हंस पड़े। सभी ने मुंह पर कपड़े लपेटे और अन्दर घुसकर चमकती हुई कोठरी में पहुंचे। जहां तक हो सका जल्दी-जल्दी उन तारों को काटकर तहखाने के बाहर निकल आये।

मुंह पर कपड़ा तो लपेटे हुए थे तिस पर भी थोड़ा बहुत धुआं दिमाग में चढ़ ही गया जिससे सभी की तबियत घबरा गई। तहखाने के बाहर निकलकर दो घण्टे तक चारों आदमी बेसुध पड़े रहे, जब होश-हवास ठिकाने हुए तब तेजसिंह ने ज्योतिषी जी से पूछा, ‘‘अब दिन कितना बाकी है? उन्होंने जवाब दिया अभी चार घण्टे बाकी हैं।’’

कुमार ने कहा, ‘‘अब कोई काम करने का वक़्त नहीं रहा। एक घण्टे में क्या हो सकता है?’’ ज्योतिषीजी की भी यही राय ठहरी। आखिर चारों आदमी बाग के बाहर रवाना हुए और कोठरी तथा तहखाने के रास्ते होकर खण्डहर के दालान में आये। पहले की तरह चट्टान को तहखाने के मुंह पर रख ताला बन्द कर दिया और खण्डहर के बाहर होकर अपने खेमे में चले आये।

थोड़ी देर आराम करने के बाद कुमार के जी में आया कि ज़रा जंगल में इधर-उधर घूमकर हवा खानी चाहिये। तेजसिंह से कहा, वह भी इस बात पर मुस्तैद हो गये, आखिर तीनों ऐयारों को साथ लेकर लश्कर के बाहर हुए। कुमार घोड़े पर तीनों ऐयार पैदल थे।

कुमार धीरे-धीरे जा रहे थे। कोस भर के करीब गये होंगे कि एक मोटे से साखू के पेड़ में कुछ लिखा हुआ एक काग़ज़ चिपका नज़र पड़ा। तेजसिंह ने कहा, ‘‘देखो यह काग़ज़ चिपका है और इस पर कुछ लिखा है।’’ यह सुनकर देवीसिंह ने उस पेड़ के पास जाकर पढ़ा, यह लिखा हुआ था–

‘‘क्यों, अब तो तुमको मालूम हुआ कि मैं कैसी आफत हूं? कहती थी कि मुझसे शादी कर लो तो एक घण्टे में तिलिस्म तोड़कर चन्द्रकान्ता से मिलने की तरकीब बता दूं। किन्तु तुमने न माना, आखिर मैंने भी गुस्से में आकर महाराज शिवदत्त को छुड़ा दिया। अब क्या इरादा है? शादी करोगे या नहीं? अगर मंजूर हो तो जवाब लिखकर इसी पेड़ से चिपका दो, मैं तुरन्त तुम्हारे पास चली आऊंगी, और अगर नामंजूर हो तो साफ जवाब दे दो। अब की चन्द्रकान्ता और चपला को जान से मार कलेजा ठंडा करूंगी। मुझे तिलिस्मी में जाते कितनी देर लगती है, दिन में तेरह बार जाऊं और आऊं। अपनी भलाई और मेरी जवानी की तरफ खयाल करो। मेरे सामने तुम्हारे ऐयारों की ऐयारी कुछ न चलेगी। उस दिन देवीसिंह ने मेरा पीछा किया मगर क्या कर सके? मेरी मानो, जिद्द मत करो, मेरे ही कहने से शिवदत्त तुम्हारा दोस्त बना है, अब भी समझ जाओ।

–तुम्हारी सूरजमुखी।’’

इसे पढ़ देवीसिंह ने हाथ के इशारे से सभी को अपने पास बुलाया और कहा, ‘‘आप लोग भी इसे पढ़ लीजिए।’’

आखिर में सूरजजमुखी पढ़कर सभी को हंसी आई। कुमार ने कहा, ‘‘देखो चुड़ैल ने अपना नाम कैसे मजे का लिखा है। तेजसिंह ने ज्योतिषीजी से कहा, ‘‘देखिए यह सब क्या लिखा है।’’

ज्योतिषीजी ने जवाब दिया, ‘‘चाहे जो हो मगर मैं भी ठीक कहे देता हूं कि वह चुड़ैल कुमार का कुछ नहीं बिगाड़ सकती। इस लिखावट की तरफ खयाल न कीजिए।’’

कुमार ने कहा, ‘‘आपका कहना ठीक है, मगर वह जो कहती है उसे कर दिखाती है।’’ इतना कह कुमार आगे बढ़े। घूमते समय कई पेड़ों पर इसी तरह के लिखे हुए काग़ज़ चिपके दिखाई पड़े। ज्योतिषीजी के कहने से कुमार की तबीयत न भरी, उदास होकर अपने लश्कर में लौट आये और तीनों ऐयारों के साथ अपने खेमे में चले गये।

थोड़ी देर उसी सूरजमुखी की बात होती रही। पहर रात गई होगी जब तेजसिंह ने कुमार से कहा, ‘‘हम लोग इस वक़्त बालादेवी को जाते हैं, शायद कोई नई बात नज़र पड़ जाये।’’ कहकर तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी कुमार से विदा हो गश्त लगाने चले गये। कुमार भी कुछ भोजन करके पलंग पर जा लेटे। नींद काहे को आती थी, पड़े-पड़े कुमार चन्द्रकान्ता की बेबसी, वनकन्या की चाह और बुड्ढी चुड़ैल की शैतानी को सोचते आधी रात से भी ज़्यादा गुजर गई। इतने में खेमे के अन्दर किसी के आने की आहट मिली, दरवाज़े की तरफ देखा तो तेजसिंह दिखाई पड़े। बोले, ‘‘कहो तेजसिंह कोई नई खबर लाये क्या?’’

तेजसिंह : हां एक बढ़िया चीज़ हाथ लग गयी है।

कुमार : क्या है? देखूं!

तेजसिंह : चलिए।

कुंवर वीरेन्द्रसिंह तेजसिंह के पीछे-पीछे खेमे के बाहर हुए। देखा कि कुछ दूर पर रोशनी हो रही है और बहुत से आदमी इकट्ठे हैं। पूछा, ‘‘यह भीड़ कैसी है?’’ तेजसिंह ने कहा, ‘‘चलिए देखिए बड़ी खुशी की बात है!’’

कुमार के पास पहुंचते ही भीड़ हटा दी गयी। कई मशालें जल रही थीं जिनकी रोशनी में कुमार ने देखा कि क्रूरसिंह की खून से भरी हुई लाश पड़ी है, कलेजे में एक खंजर घुसा हुआ अभी तक मौजूद है। कुमार ने तेजसिंह से कहा, ‘‘क्यों तेजसिंह, आखिर तुमने इसको मार ही डाला।’’

तेजसिंह : भला हम लोग एकाएक किसी को मारते हैं?

कुमार : तो फिर किसने मारा?

तेजसिंह : मैं क्या जानू?

कुमार : फिर लाश को कहां से लाये?

तेजसिंह : बालादवी करते (गश्त लगाते) हम लोग इस तिलिस्मी खण्डहर के पिछवाड़े चले गये। दूर देखा कि तीन-चार आदमी खड़े हैं। जब तक हम लोग पास जायें वे सब भाग गये। देखा तो क्रूरसिंह की लाश पड़ी थी। तब देवीसिंह को भेज यहां से डोली और कहार मंगवाये और इस लाश को ज्यों-का-त्यों उठवा लाये। अभी मरा नहीं है, बदन गर्म है, मगर बचेगा नहीं।

कुमार : बड़े ताज्जुब की बात है! इसे किसने मारा? अच्छा वह खंजर तो निकालो जो इसके कलेजे में घुसा है।

तेजसिंह ने खंजर निकाला और पानी से धोकर कुमार के पास लाये। मशाल की रोशनी में उसके कब्जे पर निगाह डाली तो कुछ खुदा हुआ मालूम पड़ा। खूब गौर करके देखा तो बारीक हरफों में ‘चपला’ नाम खुदा हुआ था।

तेजसिंह ने ताज्जुब से कहा, ‘‘देखिये, इस पर तो चपला का नाम खुदा है और इस खंजर को मैं बखूबी पहचानता भी हूं, यह बराबर चपला की कमर में बंधा रहता था, मगर फिर यहां कैसे आया? क्या चपला ने इसे मारा है?’’

देवीसिंह : चपला बेचारी तो खोह में कुमारी चन्द्रकान्ता के पास बैठी होगी जहां चिराग भी न जलता होगा।

कुमार : तो वहां से इस खंजर को कौन लाया?

तेजसिंह : इसके सिवाय यह भी सोचना चाहिए कि क्रूरसिंह यहां क्यों आया? वह तो महाराज शिवदत्त के साथ था, और उसका दीवान खुद ही आया हुआ है जो कहता है कि महाराज अब आपसे दुश्मनी नहीं करेंगे।

कुमार : किसी को भेजकर महाराज शिवदत्त के दीवान को बुलवाओ।

तेजसिंह ने देवीसिंह को कहा कि तुम ही जाकर बुला लाओ। देवीसिंह गये उन्हें नींद से उठाकर कुमार का सन्देशा दिया, वे बेचारे भी घबराये हुए जल्दी-जल्दी कुमार के पास आये। फतहसिंह भी उसी जगह पहुंचे। दीवान साहब क्रूरसिंह की लाश को देखते ही बोले, ‘‘बस यह बदमाश तो अपनी सजा को पहुंच चुका, मगर इसके साथी अहमद और नाजिम बाकी हैं, उनकी भी यही गति होती तो कलेजा ठण्डा होता।’’ कुमार ने पूछा, ‘‘क्या यह आपके यहां अब नहीं है?’’ दीवान साहब ने जवाब दिया, ‘‘नहीं, जिस रोज महाराज तहखाने से छूटकर आये और हुक्म दिया कि हमारे यहां का कोई भी आदमी कुमार के साथ दुश्मनी का खयाल न रक्खे उसी वक़्त क्रूरसिंह अपने बाल-बच्चों तथा नाजिम और अहमद को साथ लेकर चुनार से भाग गया, पीछे महाराज ने खोज भी कराई मगर कुछ पता न लगा।

देखते-देखते क्रूरसिंह ने तीन-चार दफे हिचकी ली और दम तोड़ दिया। कुमार ने तेजसिंह से कहा, ‘‘अब यह मर गया, इसको ठिकाने पहुंचाओ और खंजर को तुम अपने पास रखो, सुबह देखा जायेगा।’’ तेजसिंह ने क्रूरसिंह की लाश को उठवा दिया और सब अपने खेमे में चले गये।

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