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उपन्यास >> चंद्रकान्ता

चंद्रकान्ता

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :272
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8395
आईएसबीएन :978-1-61301-007-5

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चंद्रकान्ता पुस्तक का ई-संस्करण

चौथा भाग

 

पहला बयान


वनकन्या को एकाएक ज़मीन से निकल पैर पकड़ते देख कुंवर वीरेन्द्रसिंह एकदम घबरा उठे। देर तक सोचते रहे कि यह क्या मामला है, यहां वनकन्या क्योंकर आ पहुंची और यह योगी कौन हैं जो इसकी मदद कर रहे हैं? आखिर बहुत देर तक चुप रहने के बाद कुमार ने योगी से कहा, ‘‘मैं इस वनकन्या को जानता हूं। इसने हम पर बड़ा भारी उपकार किया है और मैं इससे बहुत कुछ वादा कर भी चुका हूं, लेकिन मेरा वह वादा बिना कुमारी चन्द्रकान्ता के मिले पूरा नहीं हो सकता। देखिये इस चिट्ठी में जो आपने दी है, क्या शर्त है! खुद इन्होंने लिखा है कि मुझसे और कुमारी चन्द्रकान्ता से एक ही दिन शादी हो और इस बात को मैंने मंजूर किया था, पर जब राजकुमारी चन्द्रकान्ता ही इस दुनिया से चली गयी तब मैं किसी से ब्याह नहीं कर सकता, इकरार दोनों से एक साथ ही शादी करने का है।

योगी : (वनकन्या की तरफ देखकर) क्यों री, तू मुझे बनाना चाहती है?

वनकन्या : (हाथ जोड़कर) नहीं महाराज मैं, आपको कैसे झूठा बना सकती हूं। आप इनसे यह पूछे कि इन्होंने कैसे मालूम किया कि चन्द्रकान्ता मर गई?

योगी : (कुमार से) कुछ सुना! यह लड़की क्या कहती है? तुमने कैसे जाना कि कुमारी चन्द्रकान्ता मर गई?

कुमार : (कुछ चौकन्ने होकर) क्या कुमारी जीती हैं?

योगी : जो मैं पूछता हूं पहले उसका जवाब दे लो।

कुमार : पहले जब मैं इस खोह में आया था तब इस जगह मैंने कुमारी चन्द्रकान्ता और चपला को देखा ही नहीं था बल्कि बातचीत भी की थी। आज उन दोनों की जगह इन दो लाशों को देखने से मालूम हुआ कि वे दोनों...(इतना कहना था कि गला भर आया)

योगी : (तेज़सिंह की तरफ देखकर) क्या तुम्हारी अक्ल भी घास चरने चली गई? इन लाशों को देखकर इतना न पहचान सके कि ये मर्दो की लाशें है या औरतों की? इसकी लम्बाई और बनावट पर भी कुछ खयाल न किया?

तेज़सिंह : (घबरा कर दोनों लाशों की तरफ गौर से देखकर शर्माकर) मुझसे बड़ी भूल हुई कि मैंने इन दोनों लाशों की तरफ गौर नहीं किया, कुमार के साथ ही मैं भी घबरा गया था। हकीकत में ये दोनों लाशें मर्दों की हैं, औरतों की नहीं।

योगी : ऐयारों से ऐसी भूल का होना कितने शर्म की बात है। इस ज़रा-सी भूल से कुमार की जान जा चुकी थी। (उँगली से इशारा करके) देखो उस तरफ उन दोनों पहाड़ियों के बीच में इतना कहना बहुत है, क्योंकि तुम इस तहखाने का हाल जानते हो, अपने उस्ताद से सुन चुके हो।

तेज़सिंह ने उस तरफ देखा, साथ ही टकटकी बंध गयी। कुमार भी उस तरफ घूमे मगर उनको न पाया, वनकन्या भी दिखाई न पड़ी, बल्कि यह भी मालूम न हुआ कि वे दोनों किस राह से आये थे और कब चले गये? जब तक वनकन्या और योगीजी यहां थे, उनके आने का रास्ता भी खुला हुआ था, दीवार में दरार मालूम पड़ती थी, ज़मीन फटी हुई दिखाई देती थी, मगर अब कहीं कुछ नहीं था।

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