उपन्यास >> चंद्रकान्ता चंद्रकान्तादेवकीनन्दन खत्री
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चंद्रकान्ता पुस्तक का ई-संस्करण
दूसरा बयान
आखिर कुंवर वीरेन्द्रसिंह ने तेज़सिंह से कहा, ‘‘मुझे अभी तक यह न मालूम हुआ कि योगी जी ने उंगली के इशारे से तुम्हें क्या दिखलाया और इतनी देर तक तुम्हारा ध्यान कहां अटका रहा, तुम क्या देखते रहे और अब वे दोनों कहां गायब हो गये?’’
तेज़सिंह : क्या बतायें कि दोनों कहां चले गये? कुछ खुलासा हाल उनसे न मिल सका, अब बहुत कठिन प्रयास करना पड़ेगा।
वीरेन्द्रसिंह : आखिर तुम उस तरफ क्या देखने लगे थे?
तेज़सिंह : हम क्या देखते थे इस हाल के कहने में बड़ी देर लगेगी, और अब यहां इन मुर्दों की बदबू से रुका नहीं जाता। इन्हें इसी जगह छोड़ इस तिलिस्म से बाहर चलिये, वहां जो कुछ हाल है, कहूंगा। मगर यहां से चलने के पहले उसे देख लीजिये, जिसे इतनी देर तक मैं ताज्जुब से देख रहा था। वह दोनों पहाड़ियों के बीच में जो दरवाज़ा खुला नज़र आ रहा है, वो पहले बन्द था, यही ताज्जुब की बात थी। अब चलिये, मगर हम लोगों को कल फिर यहां लौटना पड़ेगा। यह तिलिस्म ऐसी राह पर बना हुआ है कि अन्दर वहां तक आने में लगभग पांच कोस का फासला मालूम पड़ता है और बाहर की राह से अगर इस तहखाने तक आवें तो पन्द्रह कोस चलना पड़ेगा।
कुमार : खैर, यहां से चलो, मगर इस हाल का खुलासा सुने बिना तबीयत घबरा रही है।
जिस तरह चारों आदमी तिलिस्म की राह से यहां तक पहुंचे थे उसी तरह तिलिस्म के बाहर हुए। आज उन लोगों को बाहर आने तक आधी रात बीत गयी। इनके लश्कर वाले घबरा रहे थे पहले तो पहर दिन बाकी रहते बाहर निकल आते थे, आज क्या देर हुई? जब वे लोग खेमे में पहुंचे तो सभी का जी ठिकाने हुआ। तेज़सिंह ने कुमार से कहा, ‘‘इस वक़्त आप सो जायें कल आपसे कुछ कहना है, कहूंगा।’’
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