लोगों की राय

उपन्यास >> चंद्रकान्ता

चंद्रकान्ता

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :272
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8395
आईएसबीएन :978-1-61301-007-5

Like this Hindi book 4 पाठकों को प्रिय

93 पाठक हैं

चंद्रकान्ता पुस्तक का ई-संस्करण

छठवां बयान


तेज़सिंह ने कुंवर वीरेन्द्रसिंह से पूछा, ‘‘आप बाग को देखकर चौंके क्यों? इसमें से कौन-सी अद्भुत चीज़ आपको नज़र पड़ी?’’

कुमार : मैं इस बाग को पहचान गया।

तेज़सिंह : (ताज्जुब से) आपने इसे देखा था?

कुमार : यह वही बाग है जिसमें मैं लश्कर से लाया गया था। इसी में मेरी आंखें खुली थीं, इसी बाग में जब आंखे खुली तो कुमारी चन्द्रकान्ता की तस्वीर देखी थी और इस बाग में खाना भी मिला था जिसे खाते ही मैं बेहोश होकर दूसरे बाग पहुंचाया गया था। वह देखो सामने, वह छोटा-सा तालाब है जिसमें मैंने स्नान किया था, दोनों तरफ दो जामुन के पेड़ कैसे ऊंचे दिखाई दे रहे हैं।

तेज़सिंह : हम लोग भी इस बाग की सैर कर लेते तो बेहतर था।

कुमार : चलो घूमो, मैं खयाल करता हूँ कि उस कमरे का दरवाज़ा भी खुला होगा जिसमें कुमारी चन्द्रकान्ता की तस्वीर देखी थी।

चारों आदमी उस बाग में घूमने लगे। तीसरे हिस्से में इस बाग की पूरी कैफियत लिखी जा चुकी है, दोहरा कर लिखना पढ़ने वालों का समय खराब करना है।

कमरे के दरवाज़े खुले हुए थे। जो-जो चीज़ें पहले कुमार ने देखी थीं आज भी नज़र पड़ी। सफाई भी अच्छी थी, किसी जगह गर्द या कतवार का नाम निशान न था।

पहली दफे जब कुमार इस बाग में आये थे तब इनकी दूसरी ही हालत थी, ताज्जुब में भरे हुए थे, तबीयत घबरा रही थी, कई बातों का सोच घेरे था इसलिए इस लिए इस बाग की सैर पूरी तरह से नहीं कर सके थे। पर आज अपने ऐयारों के साथ हैं, किसी बात की फिक्र नहीं बल्कि बहुत से अरमानों के पूरा होने की उम्मीद बंध रही है, खुशी-खुशी ऐयारों के साथ घूमने लगे। आज इस बाग की कोई कोठरी, कोई कमरा, दरवाज़ा बन्द नहीं है, जगहों को देखते अपने ऐयारों को दिखाते और मौके-मौके पर यह भी कहते जाते हैं-‘‘इस जगह हम बैठे थे, इस जगह भोजन किया था। इस जगह सो गये थे कि दूसरे बाग में पहुंचे।’’ तेज़सिंह ने कहा, ‘‘दोपहर को भोजन करके सो रहने के बाद आप जिस कमरे में पहुंचे थे, ज़रूर उस बाग का रास्ता भी कहीं इस बाग में से ही होगा, अच्छी तरह घूम के खोजना चाहिए।’’

कुमार : मैं भी यही सोचता हूं।

देवी : (कुमार से) पहली दफे जब आप इस बाग में आये थे तो खूब खातिर की गयी थी, नहा कर पहनने के लिए कपड़े, मिले, पूजा-पाठ का सामान दुरुस्त था, भोजन करने के लिए अच्छी-अच्छी चीज़ें मिली थीं पर आज तो कोई बात नहीं पूछता, यह क्या?

कुमार : यह तुम लोगों के कदमों की बरकत है।

घूमते-घूमते एक दरवाज़ा इन लोगों को मिला जिसे खोल ये लोग दूसरे बाग में पहुंचे, कुमार ने कहा, ‘‘बेशक यह वही बाग है जिसमें दूसरी दफे मेरी आंख खुली थी या जहां कई औरतों ने मुझे गिरफ्तार कर लिया था, लेकिन ताज्जुब है कि आज किसी की भी सूरत दिखाई नहीं देती। वाह रे चित्रनगर! पहले तो कुछ और था आज कुछ और ही है। खैर, चलो इस बाग में चलकर देखें कि क्या कैफियत है, वह तस्वीर का दरबार और रौनकें बाकी हैं या नहीं। रास्ता याद है और मैं इस बाग में बखूबी जा सकता हूं।’’ इतना कहकर कुमार आगे हुए और उसके पीछे-पीछे चारों ऐयार भी तीसरे बाग की तरफ बढ़े।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book