उपन्यास >> चंद्रकान्ता चंद्रकान्तादेवकीनन्दन खत्री
|
4 पाठकों को प्रिय 93 पाठक हैं |
चंद्रकान्ता पुस्तक का ई-संस्करण
पांचवाँ बयान
कुंवर वीरेन्द्रसिंह तीनो ऐयारों के साथ खोह के अन्दर घूमने लगे। तेज़सिंह ने इधर-उधर के कई निशानों को देखकर कुमार से कहा, ‘‘बेशक यहां का छोटा तिलिस्म तोड़ कोई खज़ाना ले गया। ज़रूर कुमारी चन्द्रकान्ता को भी उसी ने क़ैद किया होगा। मैंने अपने उस्ताद की जुबानी सुना था कि इस खोह में कई इमारतें और बाग देखने, रहने लायक हैं। शायद वह चोर इन्हीं में कहीं मिल जाये, ताज्जुब नहीं।’’
कुमार : तब जहां तक हो सके, काम में जल्दी करनी चाहिए।
तेज़सिंह : बस हमारे साथ चलिए, अभी से काम शुरू हो जाये।
यह कह तेज़सिंह कुंवर वीरेन्द्रसिंह को उसी पहाड़ी के नीचे ले गये जहां से पानी का चश्मा शुरू होता था। उस चश्में में उतर चालीस हाथ नाप कर कुछ ज़मीन खोदी।
कुमार से तेज़सिंह ने कहा था कि , ‘‘इस छोटे तिलिस्म के तोड़ने और खज़ाना पाने की युक्ति किसी धातु के पत्र पर खुदी हुई यहीं ज़मीन में गड़ी है, मगर इस वक़्त यहां खोदने से उसका कुछ पता न लगा, हां एक चिट्ठी उसमें से जरूर मिली जिसको कुमार ने निकालकर पढ़ा यह लिखा था–’’
अब क्या खोदते हो! मतलब की कोई चीज़ नहीं है जो था, सो निकल गया, तिलिस्म टूट गया। अब हाथ मल के पछताओ।
तेज़सिंह : (कुमार की तरफ देखकर) देखिए, यह पूरा सबूत तिलिस्म टूटने का मिल गया।
कुमार : जब तिलिस्म टूट ही चुका है तो उसके हर एक दरवाज़े भी खुले होंगे। हां ज़रूर खुले होंगे। यह कहकर तेज़सिंह पहाड़ियों पर चढ़ाते-घुमाते-फिराते कुमार को एक गुफा के पास ले गये जिसमें सिर्फ एक आदमी के जाने लायक राह थी।
तेज़सिंह के कहने से एक-एक करके चारों आदमी उस गुफा में घूमे। भीतर कुछ दूर जाकर खुलासा जगह मिली, यहां तक कि चारों आदमी खड़े होकर चलने लगे मगर टटोलते हुए, क्योंकि बिलकुल अंधेरा था, हाथ तक नहीं दिखाई देता था। चलते-चलते कुंवर वीरेन्द्रसिंह का हाथ एक बन्द दरवाज़े पर लगा जो धक्का देने से खुल गया और भीतर बाखूबी रोशनी मालूम होने लगी।
चारों आदमी अन्दर गये, छोटा-सा बाग देखा जो चारों तरफ से साफ कहीं तिनके तक का नाम-निशान नहीं मालूम होता था, अभी कोई झाड़ू देकर गया है। इस बाग में कोई इमारत न थी, सिर्फ एक फौवारा बीच में था, मगर यह नहीं मालूम होता था कि इसका हौज़ कहां है।
बाग में घूमने और इधर-उधर देखने से मालूम हुआ कि ये लोग पहाड़ी के ऊपर चले गये हैं। जब फौवारे के पास पहुंचे तो एक बात ताज्जुब की दिखाई पड़ी। उस जगह ज़मीन पर जनाने हाथों का एक जोड़ा कंगन नज़र पड़ा, जिसे देखते ही कुमार ने पहचान लिया कि कुमारी चन्द्रकान्ता के हाथों का यह है। झट उठा लिया, आंखों से आंसू की बूंदें टपकने लगीं, तेज़सिंह से पूछा–‘‘यह कंगन यहां क्योंकर पहुंचा? इसके बारे में क्या खयाल किया जाये?’’ तेज़सिंह कुछ जवाब देना ही चाहते थे कि उनकी निगाह एक काग़ज़ पर जा पड़ी जो उस जगह चिट्ठी की तरह मोड़ा हुआ पड़ा था। जल्दी से उठा लिया और खोलकर पढ़ा यह लिखा था–
‘‘बड़ी होशियारी से जाना, ऐयार लोग पीछा करेंगे, ऐसा न हो कि पता लग जाये नहीं तो तुम्हारा और कुमार दोनों ही का बड़ा भारी नुकसान होगा। अगर मौका मिला तो कल आऊंगा। वहीं।’’
इस पुर्जे को पढ़कर तेज़सिंह किसी सोच में पड़े गये, देर तक चुपचाप खड़े न जाने क्या-क्या विचार करते रहे। आखिर कुमार से न रहा गया, पूछा, ‘‘क्यों? क्या सोच रहे हो? इस चिट्ठी में क्या लिखा है?’’
तेज़सिंह ने वह चिट्ठी कुमार के हाथों में दे दी, वे भी पढ़कर हैरान हो गये, बोले, ‘‘इसमें जो कुछ लिखा है उस पर गौर करने से तो मालूम होता है कि हमारे वनकन्या के मामले में ही कुछ है मगर किसने लिखा यह पता नहीं लगता।’’
तेज़सिंह : आपका कहना ठीक है, पर मैं एक और बात सोच रहा हूं जो इससे भी ताज्जुब की है।
कुमार : वह क्या?
तेज़सिंह : इन हरफों को मैं कुछ पहचानता हूं मगर साफ समझ में नहीं आता क्योंकि लिखने वाले ने अपना हर्फ छिपाने के लिए कुछ बिगाड़ कर लिखा है।
कुमार : खैर, इस चिट्ठी को रख छोड़ो। कभी-न-कभी कुछ पता लग ही जायेगा अब आगे का काम करो।
फिर ये लोग घूमने लगे, बाग के कोने में इन लोगों को छोटी-छोटी चार खिड़कियां नज़र आई जो एक के साथ एक बराबर सी बनी हुई थीं, पहले चारों आदमी बाईं तरफ वाली खिड़की में घुसे। थोड़ी दूर जाकर एक दरवाज़ा मिला जिसके आगे जाने की विल्कुल राह न थी क्योंकि नीचे बेढब खतरनाक पहाड़ी दिखाई देती थी।
इधर-उधर देखने और खूब गौर करने से मालूम हुआ कि यह वही दरवाज़ा है जिसको इशारे से उस योगी ने तेज़सिंह को दिखाया था। इस जगह से वह दालान बहुत साफ दिखाई देता था जिसमें कुमारी चन्द्रकान्ता और चपला बहुत दिनों तक बेबस पड़ी रही थीं।
ये लोग वापस होकर फिर उसी बाग में चले आये और उसके बगल वाली दूसरी खिड़की में घुसे जो बहुत अंधेरी थी। कुछ दूर जाने पर उजाला नज़र पड़ा बल्कि हद तक पहुंचने पर एक बड़ा-सा फाटक मिला। जिससे बाहर होकर ये चारों आदमी खड़े हो चारों ओर निगाह दौड़ाने लगे।
लम्बे चौड़े मैदान के सिवाय और कुछ नज़र न आया। तेज़सिंह ने चाहा कि घूमकर इस मैदान का हाल मालूम करें, मगर कई सबबों से वे ऐसा न कर सके। एक तो धूप कड़ी थी दूसरे कुमार ने घूमने की राय न दी और कहा, ‘‘ फिर जब मौका होगा इसके देख लेंगे। इस वक़्त तीसरी व चौथी खिड़की में चलकर देखने चाहिए क्या है?’’
चारों आदमी लौट आये और तीसरी खिड़की में घुसे। एक बाग में पहुंचते ही देखा कि वनकन्या कई सखियों को लिये घूम रही है लेकिन कुँवर वीरेन्द्रसिंह वगैरह को देखते ही तेज़ी के साथ बाग के एक कोने में जाकर गायब हो गयी।
चारों आदमियों ने उसका पीछा किया और घूम-घूमकर तलाश भी किया, मगर कहीं कुछ भी पता न लगा, हां, जिस कोने में वे सब गायब हुई थीं वहां जाने पर एक बंद दरवाज़ा ज़रूर देखा जिसके खोलने की बहुत युक्ति लगायी मगर न खुला।
उस बाग के एक तरफ छोटी-सी बारादरी थी। लाचार होकर ऐयारों के साथ कुंवर वीरेन्द्रसिंह उस बारहदरी में एक ओर बैठकर सोचने लगे, ‘‘यह वनकन्या यहां कैसे आयी? क्या उसके रहने का यही ठिकाना है? फिर हम लोगों को देखकर भाग क्यों गई? क्या अभी हमसे मिलना उसे मंजूर नहीं?’’ इन सब बातों को सोचते-सोचते शाम हो गई मगर किसी की अक्ल ने कुछ काम न दिया। इस बाग में मेवों के दरख्त बहुत थे और एक छोटा-सा चश्मा भी था। चारों आदमियों ने मेवों से अपना पेट भरा और चश्में का पानी पीकर उसी बारादरी में ज़मीन पर लेट गये। यह राय ठहरी कि रात को इसी बारहदरी में गुज़ारा करेंगे, सवेरे जो कुछ होगा देखा जायेगा।
देवीसिंह ने अपने बटुए में से सामान निकालकर चिराग जलाया, इसके बाद बैठकर आपस में बातें करने लगे।
कुमार : चन्द्रकान्ता की मुहब्बत में हमारी दुर्गति हो गई, तिस पर भी अब तक कोई उम्मीद नहीं मालूम पड़ती।
तेज़सिंह : कुमारी सही सलामत हैं और आपको मिलेगीं इसमें कोई शक नहीं। जितनी मेहनत से जो चीज़ मिलती है उसके साथ उतनी ही खुशी से ज़िंदगी बीतती है।
कुमार : तुमने चपला के लिए कौन-सी तकलीफ उठाई?
तेज़सिंह : तो चपला ने ही मेरे लिए कौन-सा दुःख भोगा? जो कुछ किया कुमारी चन्द्रकान्ता के लिए।
ज्योतिषी : क्यों तेज़सिंह, क्या यह चपला तुम्हारी ही जात की है?
तेज़सिंह : इसका हाल तो कुछ मालूम नहीं कि यह कौन जात है, लेकिन जब मुहब्बत हो गयी तो फिर चाहे कोई जात हो।
ज्योतिषी : लेकिन क्या उसका कोई वारिस भी नहीं है? अगर तुम्हारी जाति की न हुई तो उसके मां-बाप कब कबूल करेंगे?
तेज़सिंह : अगर कुछ ऐसा वैसा हुआ तो उसको मार डालूंगा और अपनी भी जान दे दूंगा।
कुमार : कुछ इनाम तो दो हम चपला का हाल तुम्हें बता दें।
तेज़सिंह : इनाम में हम चपला ही को आपके हवाले कर देंगे।
कुमार : खूब याद रखना, चपला फिर हमारी हो जायेगी।
तेज़सिंह : जी हां, जी हां, आपकी हो जायेगी।
कुमार : चपला हमारी ही जाति की है, इसका बाप बड़ा भारी जमींदार और पूरा ऐयार था। इसको सात दिन का छोड़कर इसकी मां मर गयी। इसके बाप ने इसे पाला और ऐयारी सिखाई, अभी कुछ वर्ष गुज़रे हैं कि इसका बाप भी मर गया। महाराज जयसिंह उसको बहुत मानते थे, उसने इनके बहुत बड़े-बड़े काम किये थे। मरने के वक़्त अपनी सारी जमा पूँजी और चपला को महाराज के सुपुर्द कर गया। क्योंकि उसका कोई वारिस नहीं था। महाराज जयसिंह इसको लड़की की तरह मानते हैं और महारानी भी इसे बहुत चाहती हैं। कुमारी चन्द्रकान्ता का और उसका लड़कपन ही से साथ होने के सबब से दोनों में मुहब्बत है।
तेज़सिंह : आज तो आपने बड़ी खुशी की बात सुनाई बहुत दिनों से इसका खटका लगा था पर कई बातों को सोचकर आपसे नहीं पूछा। भला यह बातें आपको मालूम कैसे हुईं?
कुमार : खास चन्द्रकान्ता की जुबानी।
तेज़सिंह : तब तो बहुत ठीक है।
तमाम रात बातचीत में गुज़र गई, किसी को नींद न आई। सवेरे ही उठ कर ज़रूरी कामों से छुट्टी पा उसी चश्में में नहाकर संध्या-पूजा की और कुछ मेवा खा जिस राह से उस बाग में गये थे उसी राह से लौट आये और चौथी खिड़की के अन्दर क्या है देखने के लिए उसमें घुसे। उसमें भी जाकर हरा-भरा बाग देखा जिसे देखते ही कुमार चौंक पड़े।
|