उपन्यास >> चंद्रकान्ता चंद्रकान्तादेवकीनन्दन खत्री
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चंद्रकान्ता पुस्तक का ई-संस्करण
आठवां बयान
बद्रीनाथ ज़ालिमखां की फिक्र में रवना हुए। वह क्या करेंगे या कैसे ज़ालिमखां को गिरफ्तार करेंगे इसका हाल किसी को मालूम नहीं। ज़ालिमखां ने आखिरी इश्तिहार में महाराज को धमकाया था कि अब तुम्हारे महल में डाका मारूंगा।
महाराज पर इश्तिहार का बहुत कुछ असर हुआ। पहरे पर आदमी चौगुने कर दिये गये। आप भी रात भर जागने लगे, हरदम तलवार का कब्ज़ा हाथ में रहता था। बद्रीनाथ के आने से कुछ तसल्ली हो गयी थी, मगर जिस रोज़ वह ज़ालिमखां को गिरफ्तार करने चले गये उसके दूसरे ही दिन फिर इश्तिहार शहर में हर चौमुहानी और सड़कों पर चिपका हुआ लोगों की नज़र में पड़ा, जिसका एक काग़ज़ जासूस ने लाकर महाराज के सामने पेश किया और दीवान हरदयालसिंह ने पढ़कर सुनाया, उसमें लिखा था–
‘‘महाराज जयसिंह,
होशियार रहना, पंडित बद्रीनाथ की ऐयारी के भरोसे मत फूलना, वह कल का छोकरा क्या कर सकता है? पहले तो ज़ालिमखां तुम्हारा दुश्मन था, अब मैं भी पहुंच गया हूं। पन्द्रह दिन के अन्दर इस शहर को उजाड़ दूंगा और आज के चौथे दिन बद्रीनाथ का सिर लेकर बारह बजे रात को तुम्हारे महल में पहुंचूंगा। होशियार! उस वक़्त भी जिसका जी चाहे मुझे गिरफ्तार कर ले। देखूं तो, माई का लाल कौन निकलता है? जो कोई महाराज का दुश्मन हो और मुझसे मिलना चाहे वह ‘टेटी-चोटी’ में बारह बजे रात को मिल सकता है।’’
–आफतखां खूनी
इस इश्तिहार ने महाराज के तो बचे-बचाये होश भी उड़ा दिये। बस यही जी में आता था कि इस वक़्त विजयगढ़ छोड़कर भाग जायें, मगर जवांमर्दी और हिम्मत ऐसा करने से रोकती थी।
जल्दी से दरबार बर्खास्त किया, दीवान हरदयालसिंह को साथ ले दीवानखाने में चले गये और इस नये आफतखां खूनी के बारे में बातचीत करने लगे।
महाराज : अब क्या किया जाये! एक ने आफत मचा ही रखी थी अब दूसरे इस आफतखां ने आकर जान और भी सुखा दी। अगर ये दोनों गिरफ्तार न हुए तो हमारे राज्य पर लानत है।
हरदयाल : बद्रीनाथ के आने से कुछ उम्मीद हो गयी थी कि ज़ालिमखां को गिरफ्तार करेंगे, मगर अब तो उनकी जान भी बचती नज़र नहीं आती।
महाराज : किसी उपाय से आज की यह खबर नौगढ़ पहुँचती तो बेहतर होता। वहां से बद्रीनाथ की मदद के लिए कोई और ऐयार आ जाता।
हरदयाल : नौगढ़ जिस आदमी को भेजेंगे उसी की जान जायेगी, हाँ, सौ-दो सौ आदमियों के पहरे में कोई खत जाये तो शायद पहुंचे।
महाराज : (गुस्से में आकर) नाम को हमारे यहां पचासों जासूस हैं, वर्षों से हरामखोरों की तरह बैठे खा रहे हैं मगर आज एक काम उनके किये नहीं हो सकता। न कोई ज़ालिमखां की खबर लाता है न कोई नौगढ़ खत पहुंचाने लायक है।
हरदयाल : एक ही जासूस के मरने से सभी के छक्के छूट गये।
महाराज : खैर, आज शाम को हमारे सारे जासूसों को लेकर बाग में आओ, या तो कुछ काम ही निकलेंगे या सारे जासूस तोप के सामने खड़े कर उड़ा दिये जायेंगे फिर जो कुछ होगा, देखा जायेगा। मैं खुद उस हरामजादे को पकड़ूंगा।
हरदयाल : जो हुक्म।
महाराज : बस अब जाओ, जो हमने कहा है उसकी फिक्र करो।
दीवान हरदयालसिंह महाराज से विदा हो अपने मकान पर गये, मगर हैरान थे कि क्या करें, क्योंकि महाराज को बेहतर क्रोध चढ़ आया था। उम्मीद तो यही थी कि किसी जासूस के किये कुछ न होगा और वे बेचारे मुक्त में तोप के आगे उड़ा दिये जायेंगे। फिर वे सोचते थे कि जब महाराज खुद उन दुष्टों की गिरफ्तारी की फिक्र में घर से निकलेंगे तो मेरी जान भी गयी, अब ज़िन्दगी की क्या उम्मीद है।
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