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उपन्यास >> चंद्रकान्ता

चंद्रकान्ता

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :272
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8395
आईएसबीएन :978-1-61301-007-5

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चंद्रकान्ता पुस्तक का ई-संस्करण

नौवां बयान

कुंवर वीरेन्द्रसिंह तीसरे बाग की तरफ रवाना हुए जिसमें राजकुमारी चन्द्रकान्ता की दरबारी देखी थी, और जहां कई औरतें क़ैदियों की तरह इन्हें गिरफ्तार करके ले गयी थीं।

उसमें जाने का रास्ता इनको मालूम था। जब कुमार उस दरवाज़े के पास पहुंचे जिसमें से होकर ये लोग उस बाग में पहुंचते तो वहां एक कमसिन औरत नज़र पड़ी जो इन्हीं की तरफ आ रही थी। देखने में खूबसूरत और पोशाक भी उसकी बेशकीमती थी। हाथ में एक चिट्ठी लिए कुमार के पास आकर खड़ी हो गयी, चिट्ठी कुमार के हाथ में दे दी। उन्होंने ताज्जुब में आकर खुद उसे पढ़ा, लिखा हुआ था–

‘‘कई दिनों से आप हमारे इलाके में आये हुए हैं, इसलिए आपकी मेहमानी हमको लाजिम है। आज सब सामान दुरुस्त किया है। इसी लौंडी के साथ आइये और झोंपड़ी को पवित्र कीजिए। इसका एहसान जन्म भर न भूलूंगा।’’

–सिद्धनाथ योगी।’’

कुमार ने चिट्ठी तेज़सिंह के हाथ में दे दी, उन्होंने पढ़कर कहा, ‘‘साधु हैं, योगी हैं, इसी से इस चिट्ठी में कुछ हुकूमत झलकती है।’’ देवीसिंह और ज्योतिषीजी ने भी चिट्ठी को पढ़ा।

शाम हो चुकी थी, कुमार ने अभी उस चुट्ठी का कुछ जवाब नहीं दिया था कि तेज़सिंह ने उस औरत से कहा, ‘‘हम लोगों को महात्माजी की खातिर मंजूर है, मगर अभी तुम्हारे साथ नहीं जा सकते, घड़ी भर के बाद चलेंगे, क्योंकि संध्या करने का समय हो चुका है।’’

औरत : तब तक मैं ठहरती हूं आप लोग संध्या कर लीजिए, अगर हुक्म हो तो संध्या के लिए जल और आसन ले आऊं?

देवी : नहीं, कोई ज़रूरत नहीं।

औरत : तो फिर यहां कैसे कीजियेगा? इस बाग में कोई नहर नहीं, बावली नहीं।

तेज़ : उस दूसरे बाग में बावली है।

औरत : इतनी तकलीफ करने की क्या ज़रूरत है मैं अभी सब सामान लिए आती हूं फिर मेरे साथ चलिए, उस बाग में संध्या कर लीजिएगा, अभी तो उसका समय भी नहीं बीत चला है।

तेज़ : नहीं, हम लोग इसी बाग में संध्या करेंगे, अच्छा जल ले आओ।

इतना सुनते ही वह औरत लपकती हुई तीसरे बाग में चली गयी।

कुमार : इस चिट्ठी के भेजने वाले अगर वे ही योगी हैं जिन्होंने मुझे कूदने से बचाया था तो बड़ी खुशी की बात है, ज़रूर वहां वनकन्या से भी मुलाकात होगी। मगर तुम रुक क्यों गये, उसी में चलकर संध्या कर लेते! मैं तो उसी वक़्त कहने को था मगर यह समझ कर चुप हो रहा कि शायद इसमें भी तुम्हारा कोई मतलब हो।

तेज़ : ज़रूर ऐसा ही है।

देवी : क्यों उस्ताद, इसमें क्या मतलब है?

तेज़ : देखो, मालूम ही हुआ जाता है!

कुमार : तो कहते क्यों नहीं, आखिर कब बतलाओगे।

तेज़ : हमने यह सोचा था कि कहीं योगीजी हम लोगों से धोखा न करें। कहीं खाने-पीने में बेहोशी की दवा मिलाकर न खिला दें, और हम लोग बेहोश हो जायें तो उठवा कर खोह के बाहर रखवा दें और यहां आने का रास्ता बंद करा दें, ऐसा हो गया तो कुल मेहनत ही बर्बाद हो जायेगी। देखिए आप भी इसी बाग में बेहोश किये गये थे, जब क़ैदी बनकर आये थे और प्यास लगने पर एक कटोरा पानी पिया था, उसी वक़्त बेहोश हो गये और खोह में ले जाकर रख दिये गये थे। अगर ऐसा न हुआ होता तो उसी समय कुछ-न-कुछ हाल यहां का मिल गया होता। फिर मैं यह भी सोचता हूं कि अगर हम लोग वहां जाकर भोजन से इनकार करेंगे तो ठीक न होगा नियंत्रण कबूल करके मौके पर खाने से इनकार कर जाना उचित नहीं है।

देवी : तो फिर इसकी युक्ति क्या सोची है?

तेज़ : (हंसकर) युक्ति क्या, बस वही तिलिस्मी गुलाब का फूल घिस कर सभी को पिलाऊंगा और आप भी पीऊंगा, फिर सात-दिन तक बेहोश करने वाला कौन है?

कुमार : हां ठीक है, पर वह वैद्य भी कैसा चतुर होगा जिसने दवाइयों से ऐसे काम के नायाब फूल बनाये।

तेज़ : ठीक ही है।

इतने में वही औरत सामने से आती दिखाई पड़ी, उसके पीछे तीन लौड़ियां आसन, पंचपात्र, जल इत्यादि हाथों में लिए आ रही थीं।

उस बाग में एक पेड़ के नीचे कई पत्थर बैठने लायक रखे हुए थे। औरतों ने उन पत्थरों पर सामान दुरुस्त कर दिया उसके बाद तेज़सिंह ने उन लोगों से कहा, ‘‘अब थोड़ी देर के वास्ते तुम लोग अपने बाग में चली जाओ क्योंकि औरतों के सामने हम लोग संध्या नहीं करते।’’

‘‘आप ही लोगों की खिदमत करते जनम बीत गया, ऐसी बातें क्यों करते हैं, सीधी तरह से क्यों नहीं कहते कि हट जाओ। लो मैं जाती हूं। कहती हुई वह औरत लौंड़ियों को साथ ले चली गयी। उसकी बात पर ये लोग हंस पड़े और बोले ज़रूर ऐयारों के संग रहने वाली है।’’

संध्या करने के बाद तेज़सिंह ने तिलिस्मी गुलाब का फूल पानी में घिस कर सभी को पिलाया तथा आप भी पीया और तब राह देखने लगे कि फिर वह औरत आये तो उसके साथ हम लोग चलें।

थोड़ी देर में वही औरत फिर आई और उसने इन लोगों को चलने के लिए कहा। ये लोग भी तैयार थे, उठ खड़े हुए और उसके पीछे रवाना होकर तीसरे बाग में पहुंचे। ऐयारों ने अभी तक इस बाग को नहीं देखा था मगर कुंवर वीरेन्द्रसिंह इसे खूब पहचानते थे। इसी बाग में क़ैदियों की तरह लाये गये थे और यहीं पर कुमारी चन्द्रकान्ता की तस्वीर का दरबार देखा था, मगर आज इस बाग को वैसा नहीं पाया न तो वह रोशनी ही थी न उतने आदमी ही। हां, पांच-सात औरतें इधर-उधर घूमती-फिरती दिखाई पड़ी, और दो-तीन पेड़ों के नीचे कुछ रोशनी भी थी जहां उसका होना ज़रूरी था।

शाम हो गयी थी बल्कि कुछ अंधेरा भी हो चुका था। वह औरत उन लोगों को लिए उस कमरे की तरफ चली जहां कुमार ने तस्वीर का दरबार देखा था। रास्ते में कुमार सोचते जा रहे थे, ‘‘चाहे जो हो, आज सब भेद मालूम किये बिना योगी का पिण्ड न छोड़ूंगा। आज मालूम हो जायेगा कि वनकन्या कौन है? तिलिस्मी किताब उसने क्योंकर पाई थी? हमारे साथ उसने इतनी भलाई क्यों की और कुमारी चन्द्रकान्ता कहां चली गई?’’

दीवानखाने में पहुंचे। आज वहां तस्वीर का दरबार न था बल्कि उन्हीं योगी का दरबार था जिन्होंने पहाड़ी से कूदते हुए कुमार को बचाया था। लम्बा-चौड़ा फर्श बिछा हुआ था और उसके ऊपर एक मृगछाला बिछाए योगी जी बैठे हुए थे, बाईं तरफ कुछ पीछे हटकर वनकन्या बैठी थी और सामने की तरफ चार-पांच लौड़ियां हाथ जोड़े खड़ी थीं।

कुमार को आते देख योगीजी उठ खड़े हुए, दरवाज़े तक आकर उनका हाथ पकड़ अपनी गद्दी के पास ले गये और अपनी बगल में दाहिनी ओर मृगछाला पर बैठाया। वनकन्या उठकर कुछ दूर जा खड़ी हुई और प्रेम भरी निगाहों से कुमार की तरफ देखने लगी।

सब तरफ से हटकर कुमार की निगाह भी वनकन्या की तरफ जा डटी। इस वक़्त इन दोनों की निगाहों से मुहब्बत हमदर्दी और शर्म टपक रही थी। चारों आंखें आपस में मिल रही थीं। अगर योगी का खयाल न होता तो दोनों दिल खोल कर मिल लेते, मगर नहीं, दोनों ही को इस बात का खयाल था कि इन प्रेम की निगाहों को योगी न जानने पायें। कुछ ठहर कर योगी और कुमार में बातचीत होने लगी।

योगी : आप और आपकी मण्डली के लोग कुशल-मंगल से तो हैं?

कुमार : आपकी दया से हर तरह से प्रसन्न हैं, परन्तु..

योगी : परन्तु क्या?

कुमार : परन्तु कई बातों का भेद न खुलने से तबीयत को चैन नहीं है, फिर भी आशा है कि आपकी कृपा से हम लोगों का यह दुःख भी दूर हो जायेगा।

योगी : परमेश्वर की दया से अब कोई चिन्ता नहीं रहेगी और आपके सब सन्देह दूर हो जायेंगे। इस समय आप लोग हमारे साग-सत्तू को कबूल करें, इसके बाद रात भर हमारे आपके बीच बातचीत होती रहेगी, जो कुछ पूछना हो पूछियेगा, ईश्वर चाहेंगे तो किसी भी बात का दुःख नहीं उठाना पड़ेगा और आज से ही आपकी खुशी का दिन शुरू होगा।

योगी की अमृत भरी बातों ने कुमार और उनके ऐयारों के सूखे दिलों को हराकर दिया। तबीयत प्रसन्न हो गयी, उम्मीद बंध गयी कि अब सब काम पूरा हो जायेगा। थोड़ी देर के बाद भोजन का सामान दुरुस्त किया गया। खाने की जितनी चीज़ें थीं सभी ऐसी थीं कि सिवाय राजे-महाराजे के और किसी के यहां न पायी जायें। खाने-पीने से निश्चिन्त होने के बाद बाग के बीचोंबीच में पत्थर के खूबसूरत चबूतरे पर फर्श बिछाया गया और उसके ऊपर मृगछाला बिछाकर योगीजी बैठ गये, अपने बगल में कुमार को बैठा लिया, कुछ दूर पर हट कर वनकन्या अपनी दो सखियों के साथ बैठी, और जितनी औरतें थीं हटा दी गयीं।

रात पहर भर से ज़्यादा जा चुकी थी, चन्द्रमा अपनी पूर्ण किरणों से उदय हो रहे थे। ठंडी हवा चल रही थी जिसमें सुगन्धित फूलों की मीठी महक उड़ रही थी। योगी ने मुस्कराकर कुमार से कहा–

‘‘अब जो कुछ पूछना हो पूछिये, मैं सब बातों का जवाब दूंगा और जो कुछ काम आपके अभी तक अटके हैं उनको भी करा दूंगा।’’

कुवंर वीरेन्द्रसिंह के जी में बहुत-सी ताज्जुब की बातें भरी हुई थीं, हैरान थे कि पहले क्या पूछूं? आखिर खूब सम्हल कर बैठे और योगी से पूछने लगे।

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