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उपन्यास >> चंद्रकान्ता

चंद्रकान्ता

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :272
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8395
आईएसबीएन :978-1-61301-007-5

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चंद्रकान्ता पुस्तक का ई-संस्करण

पन्द्रहवां बयान


दो घंटे बाद दरबार के बाहर से शोरगुल की आवाज़े आने लगीं। सभी का खयाल उसी तरफ गया। एक चोबदार ने आकर अर्ज़ किया कि पंडित बद्रीनाथ उस खूनी को पकड़े लिये आ रहे हैं।

उस खूनी को कमन्द से बांधे साथ लिये हुए पंडित बद्रीनाथ आ पहुंचे।

महाराज : बद्रीनाथ, कुछ यह भी मालूम हुआ कि यह कौन है?

बद्रीनाथ : कुछ न बताता कि कौन है, और न बतायेगा।

महाराज : फिर?

बद्रीनाथ : फिर क्या? मुझे मालूम होता है कि इसने अपनी सूरत बदल रक्खी है।

पानी मंगवाकर उसका चेहरा धुलवाया गया, अब तो उसकी दूसरी ही सूरत निकल आई।

भीड़ लगी थी, सभी में खलबली मच गई। मालूम होता था कि इसे सब कोई पहचानते हैं। महाराज चौंक पड़े और तेज़सिंह की तरफ देखकर बोले, बस-बस मालूम हो गया, यह तो नाज़िम का साला है, मैं खयाल करता हूं कि ज़ालिमखां वगैरह जो क़ैद है वे भी नाज़िम और अहमद के रिश्तेदार ही होंगे। उन लोगों को फिर यहां लाना चाहिए।

महाराज के हुक्म से ज़ालिमखां वगैरह भी दरबार में लाये गये।

बद्रीनाथ : (ज़ालिमखां की तरफ देखकर) अब तुम लोग पहचाने गये कि नाज़िम और अहमद के रिश्तेदार हो, तुम्हारे साथी ने बता दिया।

ज़ालिमखां इसका कुछ जवाब देना ही चाहता था कि वह खूनी (जिसे बद्रीनाथ अभी गिरफ्तार करके लाये थे) बोल उठा, ‘‘ज़ालिमखां तुम बद्रीनाथ के फेरे में मत पड़ना यह झूठे हैं। तुम्हारे साथी को हमने कुछ कहने का मौका नहीं दिया, वह बड़ा ही डरपोक था, मैंने उसे दोजख में पहुंचा दिया। हम लोगों की जान चाहे जिस दुर्दशा से जाये मगर अपने मुंह से अपना कुछ हाल न कहना चाहिए।’’

ज़ालिमखां : (ज़ोर से) ऐसा ही होगा।

इन दोनों की बातचीत से महाराज को बड़ा ही क्रोध आया। आंखे लाल हो गई, बदन कांपने लगा। तेज़सिंह और बद्रीनाथ की तरफ देखकर बोले, ‘‘बस, हमको इन लोगों का हाल मालूम करने की कोई ज़रूरत नहीं, चाहे जो हों, अभी इस वक्त, इसी जगह, मेरे सामने इन लोगों के सिर धड़ से अलग कर दिये जायें।’’

हुक्म की देर थी, तमाम शहर इन डाकुओं के खून का प्यासा हो रहा था, उछल-उछल के लोगों ने अपने हाथों की सफाई दिखाई। सभी की लाशें उठाकर फेंक दी गई। महाराज उठ खड़े हुए। तेज़सिंह ने हाथ जोड़कर अर्ज़ किया–

‘‘महाराज, मुझे अभी तक यह कहने का मौका नहीं मिला की यहां किस काम के लिए आया था और न अभी बात करने का वक़्त है।’’

महाराज : अगर ज़रूरी कोई बात हो तो मेरे साथ महल में चलो!

तेज़सिंह : बात तो बहुत ज़रूरी है, मगर इस समय कहने का जी नहीं चाहता, क्योंकि महाराज को अभी तक गुस्सा चढ़ा हुआ है और मेरी भी तबीयत खराब हो रही है, मगर इस वक़्त कह देना मुनासिब समझता हूं कि जिस बात को सुनने में आपको बेहद खुशी होगी मैं वही बात कहूंगा।

तेज़सिंह की आखिरी बात ने महाराज का गुस्सा एकदम ठंडा कर दिया और उनके चेहरे पर खुशी झलकने लगी। तेज़सिंह का हाथ पकड़ लिया और महल में ले चले, बद्रीनाथ भी तेज़सिंह के इशारे से साथ हुए।

तेज़सिंह और बद्रीनाथ को साथ लिये हुए महाराज अपने खास कमरे में गये और कुछ देर बैठने के बाद तेज़सिंह के आने का कारण पूछा।

सब हाल खुलासा कहने के बाद तेज़सिंह ने कहा–‘‘अब आप और महाराज सुरेन्द्रसिंह खोह में चलें और सिद्धनाथ योगी की कृपा से कुमारी को साथ लेकर खुशी-खुशी लौट आयें।’’

तेज़सिंह की बात से महाराज को कितनी खुशी हुई इसका हाल लिखना मुश्किल है। लपककर तेज़सिंह को गले लगा लिया और कहा, ‘‘तुम अभी बाहर जाकर हरदयालसिंह को हमारे सफर की तैयारी करने का हुक्म दे दो और तुम लोग भी स्नान-पूजा करके कुछ खाओ-पीयो। मैं जाकर कुमारी की मां को यह खुशखबरी सुनाता हूं।’’

आज के दिन का तीन हिस्सा कठिनाई, उदासी, गुस्से और खुशी में गुज़र गया, किसी के मुंह में अन्न का एक दाना नहीं गया था।

तेज़सिंह और बद्रीनाथ महाराज से विदा हो दीवान हरदयालसिंह के मकान पर गये और महाराज ने महल में जाकर कुमारी चन्द्रकान्ता की मां को कुमारी के मिलने की उम्मीद दिलाई।

अभी घण्टे भर पहले वह महल और ही हालत में था और अब सभी के चेहरे पर हंसी दिखाई देने लगी। होते-होते यह बात हज़ारों घरों में फैल गयी कि महाराज कुमारी चन्द्रकान्ता को लाने के लिए जाते हैं।

यह भी निश्चय हो गया कि आज थोड़ी-सी रात रहते महाराज जयसिंह नौगढ़ की तरफ कूच करेंगे।

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