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उपन्यास >> चंद्रकान्ता

चंद्रकान्ता

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :272
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8395
आईएसबीएन :978-1-61301-007-5

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चंद्रकान्ता पुस्तक का ई-संस्करण

सोलहवां बयान


पाठकगण, अब वह समय आ गया है आप भी चन्द्रकान्ता और कुंवर वीरेन्द्रसिंह को खुश होते देख खुश हों। यह तो आप समझते ही होंगे कि महाराज जयसिंह विजयगढ़ से रवाना होकर नौगढ़ जायेंगे और वहां से राजा सुरेन्द्रसिंह और कुमार को साथ लेकर कुमारी से मिलने की उम्मीद में तिलिस्मी खोह के अन्दर जायेंगे।

आप को याद भी होगा कि सिद्धनाथ योगी ने तहखाने (खोह) से बाहर होते वक़्त कुमार को कह दिया था कि जब अपने पिता और महाराज जयसिंह को इस खोह में आना तो उन लोगों को खोह के बाहर छोड़कर पहले तुम आकर एक दफे हम से मिल जाना। उन्हीं के कहे मुताबिक कुमार करेंगे।

खैर इन लोगों को तो आप अपने काम में छोड़ दीजिये और थोड़ी देर के लिए आंखें बन्द करके हमारे साथ खोह में चलिए और किसी कोने में छिपकर वहां रहने वालों की बातचीत सुनिये। शायद आप लोगों के जी का भ्रम यहां निकल जाये और दूसरे तथा तीसरे हिस्से के सभी भेदों की बातें भी सुनते-सुनते खुल जायें, बल्कि कुछ खुशी भी हासिल हो।

कुंवर वीरेन्द्रसिंह और महाराज जयसिंह वगैरह तो आज वहां तक पहुंचते नहीं मगर आप इसी वक़्त ‘हमारे साथ’ उस तहखाने (खोह) में नहीं बल्कि उस, खोह में पहुंचिए जिसमें कुमार ने चन्द्रकान्ता की तस्वीर का दरबार देखा था और जिसमें सिद्धनाथ योगी और वनकन्या से मुलाकात हुई थी।

आप उसी बाग में पहुंच गये। देखिये अस्त होते हुए सूर्य भगवान अपनी सुन्दर लाल किरणों से मनोहर बाग के कुछ ऊंचे-ऊंचे पेड़ों के ऊपरी हिस्सों को चमका रहे हैं। कुछ-कुछ ठंठी हवा खुशबूदार फूलों की महक चारों तरफ फैला रही है। देखिए, इस बाग वाले बीच के संगमरमर पर तीन पलंग रखे हुए हैं जिनके ऊपर खूबसूरत लौंडियां अच्छे-अच्छे बिछौने बिछा रही हैं, खास करके बीच वाले जड़ाऊ पलंग की सजावट पर सभी का ज़्यादा ध्यान है। उधर देखिये, वह घास का छोटा-सा रमना कैसा खुशनुमा बना हुआ है। उसमें हरी-हरी दूब कैसी खूबसूरती से कटी हुई है, एकाएक सब्ज मखमली फर्श और इसमें कुछ भेद नहीं मालूम होता, और देखिए, उसी सब्ज दूब के रमने के चारों तरफ रंग-बिरंग के फूलों से खूब गुँथे हुए सीधे गुलमेंहदी के पेड़ों की कतार पल्टनों की तरह कैसी शोभा दे रही है।

उसके बगल की तरफ खयाल कीजिये, चमेली का फूला हुआ तख्त क्या ही रंग जमा रहा है और कैसे घने पेड़ हैं कि हवा को भी उसके अन्दर जाने का रास्ता मिलना मुश्किल है, और इन दोनों तख्तों के बीच वाला छोटा खूबसूरत बंगला क्या मजा दे रहा है तथा उसके चारों तरफ नीचे से ऊपर तक मालती की लता कैसी घनी चढ़ी हुई और फूल भी कितने प्यारे फूले हुए हैं। अगर जी चाहे तो किसी एक तरफ निगाह दौड़ाइए फूली हुई मेंहदी की टट्टी के नीचे जंगली रंग-बिरंग के पत्तों वाले हाथ-डेढ़-हाथ ऊंचे दरख्तों (करोटन) की चौहरी कतार क्या है भली मालूम होती है, और उसके बुन्दकीदार सुर्खी लिये हुए सफेद लकीरों वाले, सब्ज धारियों, लम्बे घूंघर वाले बालों की तरह ऐंठे हुए पत्ते क्या कैफियत दिखा रहे हैं और इधर-उधर हट के दोनों तरफ तिनकोनिया तख्तों की भी रंगत देखिये जो सिर्फ हाथ भर के ऊंचे रंगीन छिटकती हुई धारियों वाले पत्तों के जंगली पेड़ों (कोलियस) के गमलों से पहाड़ीनुमा सजाये हुए हैं और जिनके चारों तरफ रंग-बिरंगे देशी फूल खिले हुए हैं।

अब तो हमारी निगाह इधर-उधर और खूबसूरत क्यारियों फूलों और छूटते हुए फौवारों का मज़ा नहीं लेती, क्योंकि उन तीनों औरतों के पास जाकर अटक गयी हैं, जो मेंहदी के पत्ते तोड़-तोड़कर अपनी झोलियों में बटोर रही हैं! यहां निगाह भी अदब करती है, क्योंकि उन तीनों औरतों में से एक तो हमारे उपन्यास की ताज वनकन्या है और बाकी तीनों उसकी प्यारी सखियां है।

वनकन्या की पोशाक सफेद है, मगर उसकी दोनों सखियों की सब्ज और सुर्ख। वे तीनों मेंहदी की पत्तियां तोड़ चुकीं, अब इस संगमरमर के चबूतरे की तरफ चली आ रही हैं। शायद इन्हीं तीनों पलंगो पर बैठने का इरादा हो।

हमारा सोचना ठीक हुआ। वनकन्या मेंहदी की पत्तियां ज़मीन पर उछालकर थकावट की मुद्रा से बिचले जड़ाऊ पलंग पर लेट गई और दोनों सखियां अगल-बगल वाले दोनों पलंगों पर बैठ गई। पाठक, हम और आप भी एक तरफ चुपचाप खड़े होकर इन तीनों की बातचीत सुनें।

वनकन्या : ओफ, थकावट मालूम होती है।

सब्ज कपड़े वाली सखी : घूमे भी क्या कम हैं?

सुर्ख कपड़े वाली सखी : (दूसरी सखी से) क्या तू भी थक गई है?

सब्ज सखी : मैं क्यों थकने लगी? दस-दस कोस का रोज़ चक्कर लगाती रही तब तो थकी ही नहीं।

सुर्ख सखी : ओफ, उन दिनों कितना दौड़ना पड़ता था। कभी इधर तो कभी उधर, कभी जाओ तो कभी आओ।

सब्ज सखी : आखिर कुमार के ऐयार हम लोगों का पता नहीं ही लगा सके।

सुर्ख सखी : खुद ज्योतिषीजी की अक्ल चकरा गई जो बड़े रम्माल और नज़ूमी कहलाते थे, दूसरों की कौन कहे।

वनकन्या : ज्योतिषीजी के रमल को तो इन यन्त्रों ने बेकार कर दिया जो बाबा सिद्धनाथ ने हम लोगों के गले में डाल दिया है और अभी तक जिसे उतारने नहीं देते।

सब्ज सखी : मालूम नहीं इस ताबीज (यन्त्र) में कौन-सी ऐसी चीज़ है जो रमल को चलने नहीं देती!

वनकन्या : मैंने यही बात एक दफे सिद्धनाथ बाबा से पूछी थी जिसके जवाब में वे बहुत कुछ बक गये। मुझे सब तो याद नहीं कि क्या-क्या कह गये, हां इतना याद है कि रमल जिस धातु की बनाई जाती है और रमल के साथी ग्रह, राशि, नक्षत्र, तारे वगैरह का असर पड़ने वाली जितनी धातुएँ हैं, उन सभी को एक साथ मिलाकर यह यन्त्र बनाया गया है, इसलिए जिसके पास यह रहेगा उसके बारे में कोई नजूमी या ज्योतिषी रमल के जरिये से कुछ नहीं देख सकेगा।

सुर्ख सखी : बेशक, इसमें बहुत कुछ असर है, देखिए मैं सूरजमुखी बनकर गई थी, तब भी ज्योतिषीजी रमल से न बता सके कि यह ऐयार है।

वनकन्या : कुमार तो खूब ही छके होंगे?

सुर्ख सखी : कुछ न पूछिये, वे बहुत ही घबराये कि शैतान कहां से आई और क्या शर्त कराके अब क्या चाहती है?

सब्ज सखी : उसी के थोड़ी देर पहले मैं प्यादा बनकर खत का जवाब लेने गई थी और देवीसिंह को चेला बनाया था। यह कोई नहीं कह सका कि इसे मैं पहचानता हूं।

सुर्ख सखी : यह सब तो हुई है, मगर किस्मत भी कोई चीज़ है। देखो, शिवदत्त के ऐयारों ने तिलिस्मी किताब चुराई थी और जंगल में ले जाकर ज़मीन के अन्दर गाड़ रहे थे, उसी वक़्त इत्तिफाक से हम लोगों ने पहुंचकर दूर से देख लिया कि कुछ गाड़ रहे हैं, उन लोगों के जाने के बाद खोदकर देखा तो तिलिस्मी किताब है।

वनकन्या : ओफ, बड़ी मुश्किल से सिद्धनाथ ने हम लोगों को घूमने का हुक्म दिया था, तिस पर भी कसम दे दी थी कि दूर-दूर से कुमार को देखना, पास मत जाना।

सुर्ख सखी : इसमें तुम्हारा ही फायदा था, बेचारे सिद्धनाथ कुछ आपने वास्ते थोड़ी ही करते थे।

वनकन्या : यह सब सच है, मगर क्या करे बिना देखे जी जो नहीं मानता।

सब्ज सखी : हम दोनों को तो यही हुक्म दे दिया था कि बराबर घूम-घूमकर कुमार की मदद किया करो। मालिन रूपी बद्रीनाथ से कैसा बचाया था।

सुर्ख सखी : क्या ऐयार लोग पता लगाने की कम कोशिश करते थे? मगर यहां तो ऐयारों के गुरुघंटाल सिद्धनाथ हरदम मदद पर थे, उनके किये हो क्या सकता था? देखो, गंगा जी में नाव के पास आते वक़्त तेज़सिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी कैसा छके, हम लोगों ने सभी कपड़े तक ले लिये।

सब्ज सखी : चाहें वे लोग कितने ही तेज़ हों मगर हमारे सिद्धनाथ को नहीं पा सकते, हां उन लोगों में तेज़सिंह बड़े चालाक हैं।

सुर्ख सखी : तेज़सिंह बहुत चालाक हैं तो क्या हुआ, मगर हमारे सिद्धनाथ तेज़सिंह के भी बाप हैं।

वनकन्या : (हंसकर) इसका हाल तो तुम ही जानो!

सुर्ख सखी : आप तो दिल्लगी करती हैं।

सब्ज सखी : हकीकत में सिद्धनाथ ने कुमार और उनके ऐयारों को बड़ा भारी धोखा दिया। उन लोगों को इस बात का खयाल तक न आया कि इस खोह वाले तिलिस्म को सिद्धनाथ बाबा हम लोगों के हाथ से फतह करा रहे हैं।

सुर्ख सखी : जब हम लोग अन्दर से इस खोह का दरवाज़ा बन्द कर तिलिस्म तोड़ रहे थे तब तेज़सिंह बद्रीनाथ की गठरी लेकर इसमें आये थे, मगर दरवाज़ा बन्द पाकर लौट गये।

वनकन्या : बड़ा ही घबराये होंगे कि अन्दर से इसका दरवाज़ा किसने बन्द किया?

सुर्ख सखी : ज़रूर घबराये होंगे! इसी में क्या और कई बातों में हम लोगों ने कुमार और उनके ऐयारों को धोखा दिया था। देखिए, मैं उधर सूरजमुखी बनकर कह आई कि शिवदत्त को छुड़ा दूंगी और इधर इस बात की कसम कि कुमार से दुश्मनी न करेगा, शिवदत्त को छोड़ दिया। उन लोगों ने भी ज़रूर सोचा होगा कि सूरजमुखी कोई भारी शैतान है।

वनकन्या : मगर फिर भी हरामजादे शिवदत्त ने धोखा दिया और कुमार से दुश्मनी करने पर कमर बाधीं, उसकी कसम का कोई ऐतबार नहीं।

सुर्ख सखी : इसी से फिर हम लोगों ने गिरफ्तार भी तो कर लिया और तिलिस्मी किताब पाकर फिर कुमार को दे दी। हां, क्रूरसिंह ने एक हम लोगों को पहचान लिया था। मैंने सोचा कि अब अगर यह जीता तो सब भांडा फूट जायेगा, बस लड़ ही तो गई। आखिर मेरे हाथ से उसकी मौत लिखी थी, मारा गया।

सब्ज़ सखी : उस मुए को धुन सवार थी कि हम ही तिलिस्म फतह करके खज़ाना ले लें।

वनकन्या : मुझको तो इसी बात की खुशी है कि यह खोह वाला तिलिस्मी मेरे हाथ से फतह हुआ।

सुर्ख सखी : इसमें काम ही कितना था, तिस पर सिद्धनाथ बाबा की मदद।

वनकन्या : खैर यह बात तो है।

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