उपन्यास >> चंद्रकान्ता चंद्रकान्तादेवकीनन्दन खत्री
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चंद्रकान्ता पुस्तक का ई-संस्करण
उन्नीसवां बयान
बहुत सवेरे महाराज जयसिंह, राजा सुरेन्द्रसिंह और कुमार अपने सभी ऐयारों को साथ ले खोह के दरवाज़े पर आये। तेज़सिंह ने दोनों ताले खोले जिन्हें देख महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह बहुत हैरान हुए। खोह के अन्दर जाकर तो इन लोगों की और कैफियत हो गयी, ताज्जुब भरी निगाहों से चारों तरफ देखते और तारीफ करते थे।
घुमाते-फिराते कई ताज्जुब की चीज़ों को दिखाते और कुछ हाल समझाते, सभी को साथ लिए हुए तेज़सिंह उस बाग के दरवाज़े पर पहुंचे जिसमें सिद्धनाथ रहते थे इन लोगों के पहुंचने के पहले ही सिद्धाथ इस्तकबाल (अगवानी) के लिए द्वार पर मौजूद थे।
तेज़सिंह ने महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह को उंगली के इशारे से बता कर कहा, ‘‘देखिये सिद्धनाथ बाबा दरवाज़े पर खड़े हैं।’’
दोनों राजा चाहते थे कि जल्दी से पास पहुंचकर बाबाजी को दण्डवत् करें मगर इसके पहले ही बाबाजी ने पुकार कर कहा, ‘‘खबरदार मुझे कोई दण्डवत न करना नहीं तो पछताओगे और मुलाकात भी न होगी।’’
इरादा करते रह गये, किसी की मज़ाल न हुई कि दण्डवत् करता। महाराज जयसिंह और राजा सुरेन्द्रसिंह हैरान थे बाबा जी ने दण्डवत् करने से क्यों रोका? पास पहुंच कर हाथ मिलाना चाहा, मगर बाबा जी इसे भी न मंजूर करके कहा, ‘‘महाराज मैं इस लायक नहीं आपका दर्ज़ा मुझसे बहुत बड़ा है।’’
सुरेन्द्रसिंह : साधुओं से बढ़कर किसी का दर्ज़ा नहीं हो सकता।
बाबाजी : किसी तरह का हो मगर साधु हो तब तो!
सुरेन्द्रसिंह : तो आप कौन है?
बाबाजी : कोई भी नहीं।
जय० : आपकी बातें ऐसी हैं कि कुछ समझ ही में नहीं आती और हर बात ताज्जुब, मुश्किल, सोच और घबराहट बढ़ाती है।
बाबाजी : (हंसकर) अच्छा, आइये इस बाग में चलिए।
सभी को अपने साथ लिए सिद्धनाथ बाग के अन्दर गये।
पाठक, घड़ी-घड़ी बाग की तारीफ करना तथा हर एक गुल, बूटे और पत्तियों की कैफियत लिखना मुझे मंजूर नहीं, क्योंकि इस छोटे से ग्रंथ को शुरू से इस वक़्त तक मुख्तसर ही में लिखता चला आया हूं। सिवाय इसके खोह के बाग कौन बड़े लम्बे चौड़े हैं, जिनके लिए कई पन्ने काग़ज़ के बरबाद किये जायें, लेकिन इतना कहना ज़रूरी है इस खोह में जितने बाग हैं, चाहे छोटे हों मगर सभी की सजावट अच्छी है और फूलों के सिवाय पहाड़ी खुशनुमा पत्तियों की बहार कहीं बढ़ी-चढ़ी है।
महाराज जयसिंह, राजा सुरेन्द्रसिंह, कुंवर वीरेन्द्रसिंह और उनके ऐयारों को साथ लिए घूमते हुए बाबाजी उसी दीवानखाने में पहुंचे जिसमें कुमारी का दरबार कुमार ने देखा था बल्कि कहना चाहिए कि अभी कल ही जिस कमरे में कुमार खास कुमारी चन्द्रकान्ता से मिले थे।
जिस तरह की सजावट आज इस दीवानखाने की है, इसके पहले कुमार ने नहीं देखी थी। बीच में एक कीमती गद्दी बिछी हुई थी, बाबाजी ने उस पर राजा सुरेन्द्रसिंह, महाराज जयसिंह और कुंवर वीरेन्द्रसिंह को बैठा कर उनके दोनों की तरफ दर्ज़े-ब-दर्ज़े ऐयारों को बैठाया और आप भी उन्हीं लोगों के सामने एक मृगछाला पर बैठ गये जो पहले से बिछा हुआ था, इसके बाद बातचीत होने लगी।
बाबाजी : (महाराज जयसिंह और राजा सुरेन्द्रसिंह की तरफ देखकर) आप लोग कुशल से तो हैं?
दोनों राजा : आपकी कृपा से बहुत आनन्द है, और आज तो आप से मिलकर बहुत प्रसन्नता हुई।
बाबाजी : आप लोगों को यहां तक आने में तकलीफ हुई, उसे माफ कीजिएगा।
जयसिंह : यहां आने के खयाल ही से हम लोगों की तकलीफ जाती रही। आपकी कृपा न होती और यहां तक आने की नौबत न पहुंचती तो न मालूम कब तक कुमारी चन्द्रकान्ता के वियोग का दुःख हम लोगों को सहना पड़ता।
बाबाजी : (मुस्कराकर) अब कुमारी की तलाश में आप लोग तकलीफ न उठायेंगे।
जयसिंह : आशा है कि आज आपकी कृपा से कुमारी को ज़रूर देखेंगे।
बाबा : शायद, किसी वजह से अगर आज कुमारी को देख न सके तो कल ज़रूर आप लोग मिलेंगे। इस वक़्त आप लोग स्नान-पूजा से छुट्टी पाकर कुछ भोजन कर लें, तब हमारे-आपके बीच बातचीत होगी।
बाबाजी ने एक लौंडी को बुलाकर कहा कि ‘हमारे मेहमान लोगों के नहाने का सामान उस बाग में दुरुस्त करो जिसमें बावली है।’
बाबाजी सभी को लिए उस बाग में गये जिसमें बावली थी। उसी में सभी ने स्नान किया और उत्तर की ओर वाले दालान में भोजन करने के बाद उस कमरे में बैठे जिसमें कुंवर वीरेन्द्रसिंह की आंख खुली थी। आज भी वह कमरा वैसा ही सजा हुआ है जैसे पहले दिन कुमार ने देखा था। हां, इतना फर्क है कि आज कुमारी चन्द्रकान्ता की तस्वीर उसमें नहीं है।
जब सब लोग निश्चिंत होकर बैठे तब राजा सुरेन्द्रसिंह ने सिद्धनाथ योगी से पूछा–
‘‘यह खूबसूरत पहाड़ी जिसमें छोटे-छोटे कई बाग हैं हमारे ही इलाके में हैं मगर आज तक कभी इसे देखने की नौबत नहीं पहुंची। क्या इस बाग से ऊपर-ही-ऊपर कोई और रास्ता भी बाहर जाने का है?’’
बाबाजी : इसकी राह गुप्त होने के सबब से यहां कोई आ या जा नहीं सकता, हां जिसे इस छोटे से तिलिस्म की कुछ खबर है, वह शायद आ सके। एक रास्ता तो इसका वही जिससे आप आये हैं, दूसरा बाहर आने-जाने का इस बाग में लेकिन वह उससे भी ज़्यादा छिपा हुआ है।
सुरेन्द्र : आप कब से इस पहाड़ी में रह रहे हैं?
बाबाजी : मैं बहुत थोड़े दिनों में इस खोह में आया हूं। सो भी अपनी खुशी से नहीं आया, मालिक के काम से आया हूं।
सुरेन्द्र : (ताज्जुब से) आप किसके नौकर है?
बाबाजी : यह भी आपको बहुत जल्दी मालूम हो जायेगा।
जयसिंह : (सुरेन्द्रसिंह की तरफ इशारा करके) महाराज की जुबानी मालूम होता है कि यह दिलचस्प पहाड़ी चाहे इनके राज्य में हो मगर इन्हें इसकी खबर नहीं और यह जगह भी ऐसी मालूम होती जिसका कोई मालिक न हो, आप यहां के रहने वाले नहीं हैं तो इस दिलचस्प पहाड़ी और सुन्दर-सुन्दर मकानों और बगीचों का मालिक कौन है?
महाराज जयसिंह की बात का जवाब अभी सिद्धनाथ बाबा ने नहीं दिया था कि सामने से वनकन्या आती दिखाई पड़ी। दोनों बगल उसके दो सखियां और पीछे-पीछे दस पन्द्रह लौंडियों की भीड़ थी।
बाबाजी : (वनकन्या की तरफ इशारा करके) इस जगह की मालिक यही है।
सिद्धनाथ बाबा की बात सुनकर दोनों महाराज और ऐयार लोग ताज्जुब से वनकन्या की तरफ देखने लगे। इस वक़्त कुंवर वीरेन्द्रसिंह और तेज़सिंह भी हैरान हो वनकन्या की तरफ देख रहे थे। सिद्धनाथ की जुबानी यह सुनकर कि इस जगह की मालिक यही है, कुमार और तेज़सिंह को पिछली बातें याद आ गई। कुंवर वीरेन्द्रसिंह सिर नीचा कर सोचने लगे कि बेशक कुमारी चन्द्रकान्ता इसी वनकन्या की क़ैद में हैं। वह बेचारी तिलिस्म की राह से आकर जब इस खोह में फंसी तब उन्होंने क़ैद कर लिया, तभी तो इस ज़ोर की चिट्ठी लिखी थी कि बिना हमारी मदद के तुम कुमारी चन्द्रकान्ता को नहीं देख सकते, और उस दिन सिद्धनाथ बाबा ने भी यही कहा था कि जब यह चाहेगी तब चन्द्रकान्ता से तुम्हारी मुलाकात होगी। बेशक कुमारी को इसी ने क़ैद किया है, हम इसे अपना दोस्त कभी न कह सकते, बल्कि यह हमारी दुश्मन है क्योंकि इसने नाहक ही कुमारी चन्द्रकान्ता को क़ैद करके तकलीफ में डाला और हम दोनों को भी परेशान किया।
नीचा मुंह किये इसी किस्म की बातें सोचते-सोचते कुमार को गुस्सा चढ़ आया और उन्होंने सिर उठाकर वनकन्या की तरफ देखा।
कुमार के दिल में चन्द्रकान्ता की मुहब्बत चाहे कितनी ही ज़्यादा हो मगर वनकन्या की मुहब्बत भी कम न थी। हां, इतना फर्क ज़रूर था कि जिस वक़्त कुमारी चन्द्रकान्ता की याद में मग्न होते थे। उस वक़्त वनकन्या का खयाल भी जी में नहीं आता था, मगर सूरत देखने से मुहब्बत की मजबूत फांस गले में पड़ी जाती थी। इस वक़्त भी इनकी वही दशा हुई। यह सोचकर की कुमारी को इसने क़ैद किया है एकदम गुस्सा चढ़ आया, मगर कब तक? जब तक कि ज़मीन की तरफ देखकर सोचते रहे, जहां सिर उठाकर वनकन्या की तरफ देखा, गुस्सा बिलकुल जाता रहा, खयाल ही दूसरे हो गये, पहले कुछ सोचा था अब कुछ और ही सोचने लगे–
‘‘नहीं, नहीं, यह बेचारी हमारी दुश्मन नहीं है। राम! राम! न मालूम क्यों ऐसा खयाल मेरे दिल में आ गया। इससे बढ़कर तो दोस्त दिखाई ही नहीं देता। अगर यह हमारी मदद न करती तो तिलिस्म का टूटना मुश्किल हो जाता, कुमारी के मिलने की उम्मीद जाती रहती, बल्कि मैं खुद दुश्मनों के हाथ पड़ जाता।’’
कुमार क्या सभी के दिल में एकदम यह बात पैदा हुई कि इस बाग और पहाड़ी की मालिक अगर यह है तो इसी ने कुमारी को भी क़ैद कर रखा होगा। आखिर महाराज जयसिंह से न रहा गया, सिद्धनाथ की तरफ देखकर पूछा–
‘‘बेचारी चन्द्रकान्ता इस खोह में फंस कर इन्हीं की क़ैद में पड़ी होगीं?’’
बाबा : नहीं, जिस वक़्त कुमारी चन्द्रकान्ता इस खोह में फंसी थीं उस वक़्त यहां का मालिक कोई न था, इसके बाद यह पहाड़ी, बाग और मकान इनको मिला है।
सिद्धनाथ बाबा की इस दूसरी बात ने और भ्रम में डाल दिया, यहां तक कि कुमार का जी घबराने लगा। अगर महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह वहां न होते तो ज़रूर कुमार चिल्ला उठते, मगर नहीं शर्म ने मुंह बन्द कर दिया और गम्भीरता से दोनों मोढ़ों पर हाथ धर के नीचे की तरफ दबाया।
महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह से न रहा गया, सिद्धनाथ की तरफ देख और गिड़गिड़ा कर बोले, ‘‘आप कृपा कर के पेंचीदा और बहुत से मायने पैदा करने वाली बातों को छोड़ दीजिए और साफ कहिए कि यह लड़की जो सामने खड़ी है कौन है? यह पहाड़ी इसे किसने दी और चन्द्रकान्ता कहां है?’’
महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह की बात सुनकर बाबाजी मुस्कुराने लगे और वनकन्या की तरफ देख कर इशारे से उसे अपने पास बुलाया, वनकन्या अपनी अलग-बगल वाली दोनों सखियों को जिनमें से एक की पोशाक सुर्ख और दूसरी की सब्ज थी, साथ लिये हुए सिद्धनाथ के पास आई। बाबा ने उसके चेहरे पर से एक झिल्ली जैसी कोई चीज़ जो तमाम चेहरे के साथ चिपकी हुई थी खींच ली और हाथ पकड़कर महाराज जयसिंह के पैर पर डाल दिया और कहा, ‘‘लीजिए यही आपकी चन्द्रकान्ता है।’’
चेहरे पर से झिल्ली उतर जाने से सभी ने कुमारी चन्द्रकान्ता को पहचान लिया। महाराज जयसिंह पैरों से उसका सिर उठाकर देर तक छाती से लगाये रहे और खुशी से गद्गद हो उठे।
सिद्धनाथ योगी ने उसकी दोनों सखियों के मुंह पर से झिल्लियां उतार दीं। लाल पोशाक वाली चपला और सब्ज पोशाक वाली चम्पा साफ पहचानी गई।
मारे खुशी के सभी का चेहरा चमक उठा, आज की सी खुशी कभी किसी ने नहीं पाई थी। महाराज जयसिंह के इशारे से कुमारी चन्द्रकान्ता ने राजा सुरेन्द्रसिंह के पैरों पर सिर रखा उन्होंने उसका सिर उठा कर सूंघा।
घण्टों तक मारे खुशी के सभी की अजब हालत रही। कुंवर वीरेन्द्रसिंह की दशा तो लिखनी ही मुश्किल है। अगर सिद्धनाथ योगी इनको पहले ही कुमारी से न मिलाये रहते तो इस समय इनकी शर्म और हया कभी न दब सकती, ज़रूर कोई बेअदबी हो जाती।
महाराज जयसिंह की देखकर सिद्धनाथ बाबा बोले, ‘‘आप कुमारी को हुक्म दीजिए कि अपनी सखियों के साथ घूमे-फिरे या दूसरे कमरे में चली जाये और आप लोग इस पहाड़ी और कुमारी का विचित्र हाल मुझसे सुनें।’’
जयसिंह : बहुत दिनों के बाद इसकी सूरत देखी है, अब कैसे अपने से अलग करूं, कहीं ऐसा न हो कि फिर कोई आफत आये और इसका देखना मुश्किल हो जाये।
बाबा : (हंसकर) नहीं, नहीं, अब यह आपसे अलग नहीं हो सकती।
जयसिंह : खैर, जो हो, इसे मुझसे अलग मत कीजिए और कृपा करके इसका हाल शुरू से कहिए।
बाबा : अच्छा, जैसी आपकी मर्जी।
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