उपन्यास >> चंद्रकान्ता चंद्रकान्तादेवकीनन्दन खत्री
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चंद्रकान्ता पुस्तक का ई-संस्करण
अट्ठारहवां बयान
कुंवर वीरेन्द्रसिंह उस कमरे के अन्दर घुसे। दूर से कुमारी चन्द्रकान्ता को चपला और चम्पा को साथ-साथ खड़े दरवाज़े की तरफ टकटकी लगाये देखा।
देखते ही कुंवर वीरेन्द्रसिंह कुमारी की तरफ झपटे और चन्द्रकान्ता कुमार की तरफ। अभी एक दूसरे कुछ दूर ही थे कि दोनों ज़मीन पर गिर कर बेहोश हो गये। तेज़सिंह और चपला की भी आपस में टकटकी बंध गई। बेचारी चम्पा कुंवर वीरेन्द्रसिंह और कुमारी चन्द्रकान्ता की यह दशा देख दौड़ी हुई कमरे में गई और हाथ में बेशमुश्क के अर्क से भरी सुराही और दूसरे हाथ में सूखी चिकनी मिट्टी का ढेला लेकर दौड़ी हुई आयी।
दोनों के मुंह पर अर्क का छींटा दिया और थोड़ा सा अर्क उस मिट्टी के ढेले पर डाल हलका लखलखा बना कर दोनों को सुंघाया।
कुछ देर बाद तेज़सिंह और चपला की भी मूर्छा टूटी और ये भी कुमार और चन्द्रकान्ता की हालत देख उनको होश में लाने की फिक्र करने लगे।
कुंवर वीरेन्द्रसिंह और चन्द्रकान्ता होश में आ दोनों एक दूसरे की तरफ देखने लगे, मुंह से बात किसी के नहीं निकलती थी। क्या पूछें, कौन सी शिकायत करें, किस जगह से बात उठायें, दोनों के दिल में यही सोच था। पेट से बात निकलती थी मगर गले में जाकर रुक जाती थी, बातों की भरावट से गला फूलता था, दोनों की आंखें डबडबा आईं थी, बल्कि आंसू की बूदें बाहर गिरने लगीं।
घण्टों बीत गये, देखा देखी में ऐसे लीन हुए कि दोनों को तन-बदन की सुध न रही। कहां है, क्या कर रहे हैं, सामने कौन है, इसका खयाल तक किसी को नहीं।
कुंवर वीरेन्द्रसिंह और कुमारी चन्द्रकान्ता के दिल का हाल अगर कुछ मालूम है तो तेज़सिंह और चपला के सिवा दूसरा कौन जाने, कौन उनकी मुहब्बत का अन्दाजा लगा सके, सो वे दोनों भी अपने आपे में नहीं थे। हां, बेचारी चम्पा इन लोगों का हद दर्जे तक पहुंचा हुआ प्रेम देखकर घबरा उठी, जी में सोचने लगी कि कहीं ऐसा न हो कि इसी देखा-देखी में इन लोगों का दिमाग बिगड़ जाये। कोई ऐसी युक्ति करनी चाहिए जिससे इनकी दशा बदले और आपस में बातचीत करने लगें। आखिर कुमारी का हाथ पकड़ चम्पा बोली।
‘‘कुमारी तुम कहती थी, कि कुमार जिस रोज़ मिलेंगे उनसे पूछूंगी कि वनकन्या किसका नाम रखा था? वह कौन औरत है, उससे क्या वादा किया है? अब किसके साथ शादी का इरादा है? क्या ये सब बातें भूल गईं अब इनसे न कहोगी?’’
किसी तरह किसी की लौ तभी तक लगी रहती है जब तक कोई दूसरा आदमी किसी तरह की चोट उसके दिमाग पर न दे और उसके ध्यान को छेड़ कर न बिगाड़े, इसलिए योगियों को एकान्त में बैठना कहा है। कुंवर वीरेन्द्रसिंह और कुमारी चन्द्रकान्ता की मुहब्बत बाज़ारू नहीं थी, वे दोनों एक रूप हो रहे थे, दिल ही दिल में अपनी जुदाई का सदमा एक दूसरे से कहा और दोनों समझ गये मगर किसी पास वाले को मालूम नहीं हुआ, क्योंकि जुबान दोनों की बन्द थी। हां, चम्पा की बात ने दोनो को चौंका दिया, दोनों की चार आंखे जो मिल जुल कर एक हो रही थीं हिल डोल कर नीचे की तरफ हो गईं और सिर नीचा किये दोनों कुछ बोलने लगे। क्या जाने वे दोनों क्या बोलते थे और क्या समझते थे, उनकी वे ही जानें। बेसिर-पैर की टूटी-फूटी पागलों की सी बातें कौन सुने, किसकी समझ में आये। न तो कुमारी चन्द्रकान्ता से कुमार की शिकायत करते बनी और न कुमार उनकी तकलीफ पूछ सके।
वे दोनों पहरों आमने-सामने बैठे रहते तो शायद कहीं जुबान खुलती मगर लौंड़ी ने बाहर से आकर कहा, ‘‘कुमार, आपको सिद्धनाथ बाबाजी ने बहुत जल्द बुलाया है, चालिए देर मत कीजिए।’’
कुमार की मज़ाल न थी कि सिद्धनाथ योगी की बात टालते, घबरा कर उसी वक़्त चलने को तैयार हो गये। दोनों के दिल की बात दिल ही में रह गई।
कुमारी चन्द्रकान्ता को उसी तरह छोड़कर कुमार उठ खड़े हुए। कुमारी को कुछ कहना ही चाहते थे तब एक दूसरी लौंडी ने पहुंच कर जल्दी मचा दी। आखिर कुंवर वीरेन्द्रसिंह और तेज़सिंह उस कमरे के बाहर आये। दूर से सिद्धनाथ बाबा दिखाई पड़े जिन्होंने कुमार को पास बुलाकर कहा–
‘‘कुमार, हमने तुमको यह नहीं कहा था कि दिन भर चन्द्रकान्ता के पास बैठे रहो। दोपहर होने ही चाहती है, जिन लोगों को खोह के बाहर छोड़ आये हो वे बेचारे तुम्हारी राह देखते होंगे।’’
कुमार : (सूरत की तरफ देखकर) हां दिन तो...
बाबा : दिन तो क्या?
कुमार : (सकपकाने से होकर) देर तो ज़रूर हो गयी, अब हुक्म हो तो जाकर अपने पिता महाराज जयसिंह को जल्दी ले आऊं?
बाबा : हां, जाओ उन लोगों को यहां ले आओ। मगर मेरी तरफ से दोनों राजाओं को कह देना कि इस खोह के अन्दर उन्ही लोगों को अपने साथ लायें जो कुमारी चन्द्रकान्ता को देख सकें या जिनके सामने वह हो सके।
कुमार : बहुत अच्छा।
बाबा : प्रणाम करता हूं।
बाबा : इसकी कोई ज़रूरत नहीं, क्योंकि आज ही तुम फिर लौटोगे।
तेज़सिंह : दण्डवत्।
बाबा : तुमको तो जन्म भर दण्डवत् करने का मौका मिलेगा, मगर इस वक़्त इस बात का खयाल रखना कि तुम लोगों की जुबानी कुमारी से मिलने का हाल खोह के बाहर वाले न सुनें और आते वक़्त अगर दिन थोड़ा रहे तो आज मत आना।
तेज़सिंह : जी नहीं, हम लोग क्यों कहने लगे।
बाबा : अच्छा जाओ।
दोनों आदमी सिद्धनाथ बाबा से विदा हो उसी मामूली राह से घूमते-फिरते खोह के बाहर आये।
दिन दोपहर से कुछ ज़्यादा जा चुका था। उस वक़्त तक कुमार ने स्नान पूजा कुछ नहीं की थी।
लश्कर में जाकर कुमार राजा सुरेन्द्रसिंह और महाराज जयसिंह से मिले और सिद्धनाथ योगी का सन्देश दिया। दोनों ने पूछा कि बाबा जी ने तुमको सबसे पहले क्यों बुलाया था?
इसके जवाब में जो कुछ मुनासिब समझा कह कर दोनों अपने-अपने डेरे में आये, स्नान-पूजा करके भोजन किया।
राजा सुरेन्द्रसिंह तथा महाराज जयसिंह एकान्त में बैठकर इस बात की सलाह करने लगे कि हम लोग अपने साथ किस-किस को खोह के अन्दर ले चलें।
सुरेन्द्र : योगीजी ने कहला भेजा है कि उन्हीं लोगों को अपने साथ खोह में लायें जिनके सामने कुमारी हो सके।
जयसिंह : हम, आप, कुमार और तेज़सिंह तो ज़रूर ही चलेंगे। बाकी जिस-जिसको आप चाहें, ले चलें।
सुरेन्द्र : बहुत आदमियों को साथ ले चलने की कोई ज़रूरत नहीं, हां ऐयारों को ज़रूर ले चलना चाहिए क्योंकि इन लोगों से किसी किस्म का पर्दा रह नहीं सकता, बल्कि ऐयारों से पर्दा रखना ही मुनासिब नहीं!
जयसिंह : आपका कहना बहुत ठीक है, इन ऐयारों के सिवाय और कोई इस लायक नहीं है जिसके साथ खोह में ले चलें।
बातचीत और राय पक्की करते दिन थोड़ा रह गया, सुरेन्द्रसिंह ने तेज़सिंह को उसी जगह बुलाकर पूछा कि ‘यहां से चलकर बाबाजी के पास पहुंचने तक राह में कितनी देर लगती है?’ तेज़सिंह ने जवाब दिया, ‘अगर इधर-उधर खयाल न करके सीधे ही चलें तो पांच छः घड़ी में इस बाग तक पहुंचेंगे जिसमें बाबा रहते हैं, मगर मेरी राय इस वक़्त वहां चलने की नहीं है क्योंकि दिन बहुत थोड़ा रह गया है और इस खोह में बड़े बेढ़ब रास्ते से चलना होगा। अगर अंधरा हो गया तो एक कदम आगे चल नहीं सकेंगे।’
कुमारी को देखने के लिए महाराज जयसिंह बहुत घबरा रहे थे, मगर इस वक़्त तेज़सिंह की राय उनको कबूल करनी पड़ी और दूसरे दिन सुबह को खोह में चलने की ठहरी।
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