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चन्द्रकान्ता सन्तति - 3

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8401
आईएसबीएन :978-1-61301-028-0

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चन्द्रकान्ता सन्तति 3 पुस्तक का ई-संस्करण...

आठवाँ बयान


दारोगा जिस समय इन्द्रदेव के सामने से उठा तो बिना इधर-उधर देखे अपने कमरे में चला गया, और चादर से मुँह ढाँपकर पलँग पर सो रहा। घण्टे-भर रात गयी होगी, जब मायारानी यह पूछने के लिए कि इन्द्रदेव ने आपको क्यों बुलाया था, बाबाजी के कमरे में आयी, मगर जब बाबाजी को चादर से मुँह छिपाये हुए देखा तो उसे आश्चर्य हुआ। वह उनके पास गयी और चादर हटाकर देखा तो बाबाजी को जागते पाया। इस समय बाबाजी का चेहरा जर्द हो रहा था और ऐसा मालूम पड़ता था कि उनके शरीर में खून का नाम भी नहीं है, या महीनों से बीमार हैं।

बाबाजी की अवस्था देखकर मायारानी सन्न हो गयी और बाबाजी का मुँह देखने लगी।

दारोगा : इस समय जाओ सो रहो, मेरी तबीयत ठीक नहीं है।

माया : मैं केवल इतना ही पूछने आयी थी कि इन्द्रदेव ने आपको क्यों बुलाया था, और क्या कहा!

दारोगा : कुछ नहीं, उसने केवल धीरज दिया और कहा कि चार-पाँच दिन ठहरो, मैं तुम लोगों का बन्दोबस्त कर देता हूँ, तब तक नागर भी गिरफ्तार होकर आ जाती है, लोग उसे पकड़ने के लिए गये हैं।

माया : मगर आपकी अवस्था तो कुछ और कह रही है!

दारोगा : बस इस समय और कुछ न पूछो, मैं अभी कह चुका हूँ कि मेरी तबीयत ठीक नहीं है, मैं इस समय बात भी मुश्किल से कर सकता हूँ।

मायारानी और कुछ न पूछ सकी, उलटे पैर लौटकर अपने कमरे में चली गयी और पलँग पर लेटकर सोचने-विचारने लगी, मगर थकावट, माँदगी और चिन्ता ने उसे विशेष देर तक चैतन्य न रहने दिया, और शीघ्र ही वह नींद की गोद में जाकर खर्राटे लेने लगी।

रात बीत गयी। सबेरा होने पर दारोगा ने दरियाफ्त किया तो मालूम हुआ कि इन्द्रदेव यहाँ नहीं हैं। एक आदमी ने कहा कि तीन-चार दिन के बाद आने का वादा करके कहीं चले गये हैं, और यह कह गये हैं कि आप और मायारानी तब तक यहाँ से जाने का इरादा न करें। अब बाबाजी को मालूम हुआ कि दुनिया में उनका साथी कोई भी नहीं है, और उनके बुरे कर्मों पर ध्यान देकर भी कोई उनकी मदद नहीं कर सकता। उन्हें अपने कर्मों का फल अवश्य भोगना ही होगा।

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