लोगों की राय

मूल्य रहित पुस्तकें >> चन्द्रकान्ता सन्तति - 3

चन्द्रकान्ता सन्तति - 3

देवकीनन्दन खत्री

Download Book
प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8401
आईएसबीएन :978-1-61301-028-0

Like this Hindi book 3 पाठकों को प्रिय

107 पाठक हैं

चन्द्रकान्ता सन्तति 3 पुस्तक का ई-संस्करण...

नौवाँ बयान


दारोगा साहब को मकान में बैठकर झक मारते हुए चार दिन बड़ी मुश्किल से बीते और आज पाँचवा दिन है। जैसे ही बाबा जी ने अपनी चारपाई पर से उठकर बाहर निकले, वैसे ही एक आदमी ने आकर सन्देश दिया कि इन्द्रेदेव जी आपको बुलाते हैं, मायारानी को साथ लेकर नजरबाग में जाइए’। यह सुनते ही बाबा जी लौटकर मायारानी के कमरे में गये और मायारानी को साथ लिये हुए उसी नजरबाग में पहुँचे जहाँ पहिले दिन उनकी नसीहत की गयी थी। बाबाजी और मायारानी ने देखा कि इन्द्रदेव एक कुर्सी पर बैठा हुआ है, और उसके बगल में दो कुर्सियाँ खाली पड़ी हैं, उसके सामने दो आदमी नागर के दोनों बाजू पकड़े खड़े हैं। नागर का हाथ पीठ पीछे मजबूती के साथ बँधा हुआ है। इन्द्रदेव ने दारोगा और मायारानी को बैठने का इशारा किया, और वे दोनों उन कुर्सियों पर बैठ गये, जो इन्द्रदेव के बगल में खाली पड़ी हुई थीं।

बाबाजी की अवस्था देखकर मायारानी को निश्चय हो गया था कि इन्द्रदेव ने मदद से साफ़-साफ़ इन्कार कर दिया है, और इसी से बाबाजी उदास और बेचैन हैं, मगर इस समय नागर को अपने सामने बेबस खड़ी देखकर मायारानी को कुछ ढाँढ़स हुई, और उसने सोचा कि बाबाजी की उदासी का कोई दूसरा ही कारण होगा, इन्द्रदेव हम लोगों की मदद अवश्य करेगा।

पाठक महाशय समझ गये होंगे कि नागर को गिरफ्तार कराने वाला इन्द्रदेव ही है, जिसका हाल ऊपर के एक बयान में लिख चुके हैं, और जिस श्यामलाल ने नागर को गिरफ्तार किया था, वह इन्द्रदेव ही का कोई ऐयार होगा या स्वयं इन्द्रदेव ही होगा।

इन्द्रदेव के बगल में जब मायारानी और दारोगा बैठ गये तो इन्द्रदेव ने नागर से पूछा, "क्या बाबाजी की नाक तूने ही काटी है?"

नागर : जी हाँ, मैंने मायारानी की आज्ञा पाकर इनकी नाक काटी है।

इन्द्रदेव : (अपने आदमी से) अच्छा तुम इस कम्बख्त नागर की नाक और उसके साथ कान भी काट लो और यदि कुछ बोले तो जुबान भी काट लो!

हुक्म की देर थी, नौकर मानो पहिले ही से नाक-कान काटने के लिए तैयार था। अस्तु, इस समय जो कुछ होना था हो गया, और इसके बाद नागर कैदखाने में भेज दी गयी। मायारानी भी इन्द्रदेव की आज्ञानुसार अपने कमरे में चली गयी। और इन्द्रदेव तथा दारोगा अकेले ही रह गये।

इन्द्रदेव : आप देखते हैं कि जिसने आपके साथ बिना कारण के बुराई की थी, उसे उस बुराई का बदला ईश्वर ने कुछ विशेषता के साथ दे दिया। आपको भी इसी तरह विचारना चाहिए कि क्या राजा बीरेन्द्रसिंह और राजा गोपालसिंह के साथ, जो बड़े नेक और बिल्कुल बेकसूर हैं, बुराई करनेवाला अपनी सजा को न पहुँचेगा?

दारोगा : निःसन्देह आपका कहना ठीक है, परन्तु...

दारोगा ‘परन्तु’ से आगे कहने भी न पाया था कि इन्द्रदेव फिर जोश में आ गया और कड़ी निगाह से बाबाजी की तरफ देखके बोला—

"मैं इतना बक गया, मगर अभी तक ‘परन्तु’ का डेरा आपके दिल से न निकला। बीरेन्द्रसिंह के ऐयारों से उलझने की इच्छा आपकी अभी तक बनी ही है। खैर, जो आपके जी में आवे कीजिए, मगर मुझसे इस बारे में किसी तरह की आशा न रखिए। आप चाहे मुझे कोई भारी वस्तु समझ बैठे हों, परन्तु मैं अपने को उन लोगों के मुकाबले में एक भुनगे के बराबर भी नहीं समझता। मुझे अच्छी तरह विश्वास है कि जहाँ हवा पानी भी नहीं घुस सकती, वहाँ बीरेन्द्रसिंह के ऐयार पहुँचते हैं। (बगल से एक चीठी निकालकर और दारोगा की तरफ बढ़ाकर) लीजिए पढ़ लीजिए और सुनकर चौंक जाइए कि प्रातःकाल जब मैं सोकर उठा तो इस पत्र को अपने गले के साथ ताबीज की तरह बँधा हुआ देखा। ओफ, जिनके ऐसे-ऐसे ऐयार ताबेदार हैं, उनके साथ उलझने की नीयत रखने वाला पागल या यमराज का मेहमान नहीं, तो और क्या समझा जायगा!

बाबाजी ने डरते-डरते वह पत्र इन्द्रदेव के हाथ से ले लिया और पढ़ा, लिखा हुआ था—

"इन्द्रदेव,

    तुम यह मत समझो कि ऐसे गुप्त स्थान में रहकर हम लोगों की नजरों से भी छिपे हुए हो! नहीं नहीं, ऐसा नहीं है। हम लोग तुम्हें अच्छी तरह जानते हैं, और हमें भी मालूम है कि तुम अच्छे ऐयार, बुद्धिमान और वीर पुरुष हो, परन्तु बुराई करना तो दूर रहा, हम लोग बिना कारण या बिना बुलाये किसी के सामने भी कभी नहीं जाते, इसी से हमारा तुम्हारा सामना अभी तक नहीं हुआ। तुम यह मत समझो कि तुम बिल्कुल बेकसूर हो, कमबख्त दारोगा को रोहतासगढ़ के कैदखाने से निकाल लाने का कसूर तुम्हारी गर्दन पर है, मगर तुमने यह बड़ी बुद्धिमानी की कि हमारे किसी आदमी को दुःख नहीं दिया और इसी से तुम अभी तक बचे हुए हो। हम तुम्हें मुबारकबाद देते हैं कि श्रीतेजसिंह ने तुम्हारा कसूर जो हरामखोर और विश्वाघाती दारोगा को कैद से छुड़ाने के विषय में था, माफ किया। इसका कारण यही था कि वह तुम्हारा गुरुभाई है, अतएव उसकी कुछ-न-कुछ मदद करना तुम्हें उचित ही था, चाहे वह निमकहराम तुम्हारा गुरुभाई कहलाने योग्य नहीं है। खैर, तुमने जो कुछ किया, अच्छा किया, मगर इस समय तुम्हें चेताया जाता है कि आज से मायारानी, दारोगा या और किसी भी हमारे दुश्मन का यदि तुम साथ दोगे, पक्ष करोगे, हमारी कैद से निकाल ले जाने का उद्योग करोगे या केवल राय देकर भी सहायता करोगे, तो तुम्हारे लिए अच्छा न होगा। तुम चुनारगढ़ के तहखाने में अपने को हथ-कड़ी बेड़ी से जकड़े हुए पाओगे, बल्कि आश्चर्य नहीं कि इससे भी बढ़कर तुम्हारी दुर्दशा की जाय। हाँ, यदि तुम दुनिया में नेकी ईमानदारी और योग्यता के साथ रहोगे तो ईश्वर भी तुम्हारा भला करेगा। हम लोग, ईमानदार, नेक और योग्य पुरुष का साथ देने के लिए हरदम कमर कसे तैयार रहते हैं। इसके सिवाय एक बात और कहना है, सो भी सुन लो। दो अदद तिलिस्मी खंजर जो हम लोगों की मिलकियत हैं, मायारानी और नागर के कब्जे में चला गया है, इस समय दारोगा को साथ लेकर मायारानी तुम्हारे यहाँ मदद माँगने के लिए आयी है, सो खैर, उससे तो कुछ मत कहो, उसके पास जो हमारा खंजर है, हम ले लेंगे कोई चिन्ता नहीं, मगर नागर के पास तो तिलिस्मी खंजर था, वह तुम्हारे एक ऐयार के पास है, जो श्यामलाल बनकर नागर को गिरफ्तार करने गया था और उसे गिरफ्तार कर लाया है। बेशक वह खंजर तुम्हारे पास दाखिल किया जायगा, मगर तुम्हें मुनासिब है कि उसको हमारे हवाले करो। कल ठीक दोपहर के समय हम खोह के मुहाने पर मिलने के लिए तैयार रहेंगे, जो तुम्हारे इस मकान में आने के पहिले दरवाज़े के समान है। यदि उस समय तिलिस्मी खंजर लिए तुम हमसे न मिलोगे तो हम समझेंगे कि तुम मायारानी और दारोगा का साथ देने के लिए तैयार हो गये, फिर जो कुछ होगा देखा जायगा।    

मिती 13 प्रथम ऋतु।
संवत् 412 कु.।

तुमको होशियार करने वाला
एक बालक
भैरोसिंह ऐयार"


पत्र पढ़कर दारोगा ने इन्द्रदेव के हाथ में दे दिया। उस समय दारोगा का चेहरा डर, चिन्ता और निराशा के कारण पीला पड़ गया था, और भविष्य पर ध्यान देने ही से वह अधमुआ हो गया था। भैरोसिंह के पत्र में तिलिस्मी खंजर का जिक्र था, इसलिए दारोगा ने इन्द्रदेव की उँगलियों पर निगाह दौड़ाकर, उसी समय देख लिया था कि तिलिस्मी खंजर के जोड़ की अँगूठी, उसकी उँगली में मौजूद है, अतएव उसे निश्चय हो गया कि भैरोसिंह से कोई छिपी नहीं है, इन्द्रदेव सहायता करते दिखायी नहीं देते, और अपना भविष्य बुरा नजर आता है। दारोगा इसी विचार में सिर झुकाए कुछ देर तक खड़ा रहा। आखिर इन्द्रदेव ने कहा, "मैं समझता हूँ कि इस चीठी के प्रत्येक शब्द पर आपने गौर किया होगा और मतलब पूरा-पूरा समझ गये होंगे!"

दारोगा : जी हाँ।

इन्द्रदेव : खैर, तो अब मुझे इतना ही कहना है कि यदि इस समय आपके बदले में कोई दूसरा आदमी मेरे सामने होता तो मैं उसे तुरन्त ही निकलवा देता, परन्तु आप मेरे गुरुभाई हैं, इसलिए तीन दिन की मोहलत देता हूँ, इस बीच में आप यहाँ रहकर भले-बुरे को अच्छी तरह सोच लें और फिर जो कुछ करने का इरादा हो, मुझसे कहें, साथ ही इसके इस बात पर भी ध्यान रहे कि यदि आपकी नीयत अच्छी रही तो आपका कसूर क्षमा कराने के लिए मैं उद्योग करूँगा, नहीं तो राजा बीरेन्द्रसिंह के विषय में मुझसे मदद पाने की आशा आप कदापि न रखें।

दारोगा : क्या आप भैरोसिंह से मिलकर तिलिस्मी खंजर उसके हवाले करेंगे?

इन्द्रदेव : क्या आपको इसमें शक है? अफसोस!

दारोगा ने फिर कुछ न पूछा और चुपचाप वहाँ से उठ अपने कमरे में चला गया। मायारानी यह जानने के लिए कि इन्द्रदेव में और दारोगा में क्या बातें हुईं, पहिले ही से दारोगा के कमरे में बैठी हुई थी। जब दारोगा लम्बी साँस लेकर बैठ गया तो उसने पूछा—

माया : कहिए क्या हुआ? कमबख्त नागर से तो खूब बदला लिया गया?

दारोगा : ठीक है, मगर इससे यह न समझना चाहिए कि इन्द्रदेव हमारी मदद करेगा।

माया : (चौंककर) तो क्या उसने इशारे में कुछ इनकार किया?

दारोगा : इशारे में क्या बल्कि साफ़-साफ़ जवाब दे दिया।

माया : तब तो वह बड़ा ही डरपोक निकला? अच्छा कहिए तो क्या-क्या बातें हुईं?

इन्द्रदेव ने दारोगा से जो कुछ बातें हुई थीं, इस समय उसने मायारानी से साफ़-साफ़ कह दीं और भैरोसिंह की चीठी का हाल भी सुना दिया।

माया : (ऊँची साँस लेकर और यह सोचकर कि इन्द्रदेव की बातों में पड़कर दारोगा कहीं मेरा साथ न छोड़ दे) अफसोस, इन्द्रदेव कुछ भी निकला! वह निरा डरपोक और कमहिम्मत है, घर में बैठे-बैठे खाना-पीना और सो रहना जानता है, उद्योग की कदर कुछ भी नहीं जानता। ऐसा मनुष्य दुनिया में क्या खाक नाम और इज्जत पैदा कर सकता है! मगर हम लोग ऐसे सुस्त नहीं और भूँड़ी किस्मत पर भरोसा करके चुप बैठे रहने वाले नहीं हैं। हम लोग उनमें से हैं, जो गरीब और लाचार होकर भी और चक्रवर्ती होने के लिए कृतकार्य न होने पर भी उद्योग किये ही जाते हैं। जरा गौर तो कीजिए और सोचिए तो सही कि मैं कौन थी, और उद्योग ने मुझे कहाँ पहुँचा दिया? तो क्या ऐसे समय में जब किसी कारण से दुश्मन हम पर बलवान हो गया, उद्योग को तिलांजली दे बैठना उचित होगा? नहीं, कदापि नहीं! क्या हुआ यदि इन्द्रदेव डरपोक और कम हिम्मत निकला, मैं तो हिम्मत हारने वाली नहीं हूँ, और न आप ऐसे हैं। देखिए तो सही मैं क्या हिम्मत करती हूँ, और दुश्मनों को कैसा नाच नचाती हूँ! आप मेरी और अपनी हिम्मत पर भरोसा करें, और इन्द्रदेव की आशा छोड़ मौका देखकर चुपचाप यहाँ से निकल चलें।

अफसोस! दुनिया में अच्छी नसीहत का असर बहुत कम होता है, और बुरे सोहबत की बुरी शिक्षा शीघ्र अपना असर करके मनुष्य को बुराई के चेहरे में फँसाकर सत्यानाश कर डालती है। मगर यह बात उन लोगों के लिए नहीं है जिनके दिमाग में सोचने-समझने और गौर करने की ताकत है। सन्तति के इस बयान में दोनों रंग के पात्र मौजूद हैं, अतएव पाठकों को आश्चर्य न करना चाहिए।

दूसरे दिन इन्द्रदेव ने अपने दोनों मेहमानों दारोगा और मायारानी को अपने घर में न पाया और पता लगाने से मालूम हुआ कि वे दोनों रात ही को किसी समय मौका पाकर वहाँ से निकल भागे।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book