लोगों की राय

मूल्य रहित पुस्तकें >> चन्द्रकान्ता सन्तति - 3

चन्द्रकान्ता सन्तति - 3

देवकीनन्दन खत्री

Download Book
प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8401
आईएसबीएन :978-1-61301-028-0

Like this Hindi book 3 पाठकों को प्रिय

107 पाठक हैं

चन्द्रकान्ता सन्तति 3 पुस्तक का ई-संस्करण...

नौवाँ बयान


दिन पहर-भर से ज्यादे चढ़ चुका है। रोहतासगढ़ के महल में एक कोठरी के अन्दर, जिसके दरवाज़े में लोहे के सींखचे लगे हुए हैं, मायारानी सिर नीचे किये हुए गर्म-गर्म आँसुओं की बूँदों से अपने चेहरे पर कालिख धोने का उद्योग कर रही है, मगर उसे इस काम में सफलता नहीं होती। दरवाज़े के बाहर सोने की पीढ़ियों पर, जिन्हें बहुत-सी लौंडियाँ घेरे हुई हैं, कमलिनी, किशोरी, कामिनी, लाडिली, लक्ष्मीदेवी और कमला बैठी हुई मायारानी पर बातों के अमोघ बान चला रही हैं।

किशोरी : (कमलिनी से) तुम्हारी बहिन मायारानी है बड़ी खूबसूरत!

कमला : केवल खूबसूरत ही नहीं, भोली और शर्माऊ भी हद से ज्यादे है, देखिए सिर ही नहीं उठाती बात करना तो दूसरी बात है।

कामिनी : इन्हीं गुणों ने तो राजा गोपालसिंह को लुभा लिया था।

कमलिनी : मगर मुझे इस बात का बहुत रंज है कि ऐसी नेक बहिन की सोहबत में ज्यादे दिन तक रह न सकी।

किशोरी : बेशख, इसका रंज तुम्हें और लाडिली को भी होना चाहिए।

कमला : जो हो, मगर एक छोटी-सी भूल तो मायारानी से भी हो गयी।

कामिनी : वह क्या?

कमलिनी : यही कि राजा गोपालसिंह को इन्होंने कोठरी में बन्द करके कैदियों की तरह रख छोड़ा था।

किशोरी : इसका कोई-न-कोई सबब तो जरूर ही होगा। मैंने सुना है कि राजा गोपालसिंह इधर-उधर आँखें बहुत लड़ाया करते थे, यहाँ तक कि धनपति नामी एक वैश्या को अपने घर के अन्दर डाल रक्खा था। (मायारानी से) क्यों बीबी, यह बात सच है?

लक्ष्मीदेवी : ये तो बोलती ही नहीं, मालूम होता है हम लोगों से कुछ खफा हैं।

कमला : हम लोगों ने इनका क्या बिगाड़ा है, जो हम लोगों से खफा होंगी, हाँ, अगर तुमसे रंज हों तो कोई ताज्जुब की बात नहीं, क्योंकि तुम मुद्दत तक तो तारा के भेष में रहीं, और आज लक्ष्मीदेवी बनकर इनका राज्य छीनना चाहती हो। बीबी चाहे जो हो, मैं तो महाराज के सामने इन्हीं की सिफारिश करूँगी, तुम चाहे भला मानो, चाहे बुरा।

कामिनी : तुम भले ही सिफारिश कर लो, मगर राजा गोपालसिंह के दिल को कौन समझावेगा?

कमला : उन्हें भी मैं समझा लूँगी कि एक आदमी से भूल-चूक हुआ ही करती है, ऐसे छोटे-छोटे कसूरों पर ध्यान देना भले आदमियों का काम नहीं है, देखो बेचारी ने कैसी नेकनामी के साथ उनका राज्य इतने दिनों तक चलाया।

किशोरी : गोपालसिंह तो बेचारे भोले-भाले आदमी ठहरे, उन्हें जो कुछ समझा दोगी समझ जाँयगे, मगर ये तारारानी मानें तब तो! ये जो हक-नाहक लक्ष्मीदेवी बनकर बीच में कूद पड़ती हैं और इस बेचारी भोली औरत पर जरा रहम नहीं खातीं!!

लक्ष्मीदेवी : अच्छा रानी लो मैं वादा करती हूँ कि कुछ न बोलूँगी, बल्कि धनपति को छुड़वा देने का उद्योग करूँगी, क्योंकि मुझे भी इस बेचारी पर दया आती है।

कमला : हाँ, देखो तो सही राजा गोपालसिंह की जुदाई में कैसा बिलख-बिलखकर रो रही है, कमबख्त मक्खियाँ भी ऐसे समय में इसके साथ दुश्मनी कर रही हैं। किसी से कहो नारियल का चँवर लाकर इसकी मक्खियाँ तो झले।

किशोरी : इस काम के लिए तो भूतनाथ को बुलाना चाहिए।

कमला : इस बारे में तो मैं खुद शर्माती हूँ।

इतना सुनते ही सब-की-सब मुस्कुरा पड़ीं और कमलिनी तथा लक्ष्मीदेवी ने मुहब्बत की निगाह से कमला को देखा।

लक्ष्मीदेवी : मेरी दिल गवाही देता है कि भूतनाथ का मुकदमा एकदम से पलट जायगा।

कमलिनी : ईश्वर करे ऐसा ही हो, बल्कि मैं तो चाहती हूँ कि मायारानी का मुकदमा भी एकदम से औंधा हो जाय और तारा बहिन तारा की तारा ही बनी रह जाँय।

ये सब बड़ी देर तक बैठी हुई मायारानी के जख्मों पर नमक छिड़कती रहीं और न मालूम कितनी देर तक बैठी रहतीं, अगर इनके कामों में यह खुशखबरी न पहुँचती कि राजा बीरेन्द्रसिंह की सवारी इस किले में दाखिल हुआ ही चाहती है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book