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चन्द्रकान्ता सन्तति - 3

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8401
आईएसबीएन :978-1-61301-028-0

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चन्द्रकान्ता सन्तति 3 पुस्तक का ई-संस्करण...

दसवाँ बयान


आज रोहतासगढ़ किले के अन्दर राजा बीरेन्द्रसिंह की सवारी आयी है, जिससे यहाँ की रिआया बहुत ही प्रसन्न है। छोटे-छोटे बच्चे भी उनके आने की खुशी में मग्न हो रहे हैं। इसका सबब यही है कि राजा बीरेन्द्रसिंह जब जहाँ रहते हैं, खैरात का दरवाज़ा खुला रहता है। यों तो जहाँ इनकी अमलदारी रहती है, बराबर खैरात हुआ ही करती है, मगर जहाँ ये स्वयं मौजूद रहते हैं, खैरात ज्यादे हुआ करती है। खैरात का मकान और बन्दोबस्त अलग है। कोई आदमी वापस नहीं जाने पाता, और जिसको जिस चीज़ की जरूरत होती है, दी जाती है। तीन वर्ष के ऊपर और बारह वर्ष से कम उम्रवाले लड़कों को मिठाई बाँटने का हुक्म है, और तीन वर्ष से कम उम्रवाले बच्चों को चीनी के खिलौने बाँटे जाते हैं। चीनी के खिलौने, मिठाइयाँ और साथ ही इसके कपड़ों का बाँटना अभी तक जारी रहता है, जब तक राजा बीरेन्द्रसिंह स्वयं मौजूद रहते हैं, और अन्न तो हमेशा बँटा करता है। यही सबब है कि आज रोहतासगढ़ के छोटे-छोटे बच्चों को भी हद से ज्यादे खुशी चढ़ी हुई है, और वे झुण्ड-के-झुण्ड इधर-उधर घूमते दिखायी दे रहे हैं।

आज यह खबर बहुत अच्छी तरह मशहूर हो रही कि मायारानी नामी एक औरत और ‘दारोगा बाबा’ नामी एक मर्द इस किले में गिरफ्तार हुए हैं, जो बीरेन्द्रसिंह के दुश्मन हैं और भूतनाथ नामी को ऐयार गिरफ्तार किया गया है, जिसका मुकदमा फैसला करने के लिए राजा साहब स्वयं आये हैं। ये खबरें किसी एक ढंग पर मशहूर नहीं हैं, बल्कि तरह-तरह का पलेथन लगाकर लोग इनकी चर्चा कर रहे हैं, और राजा बीरेन्द्रसिंह के दुश्मनों को जी-जान से गालियाँ दे रहे हैं।

राजा बीरेन्द्रसिंह के आने के साथ ही उनके ऐयारों ने एक-एक करके वे कुल बातें बयान कर दीं। जो आज के पहिले हो चुकी थीं, और जिन्हें राजा बीरेन्द्रसिंह नहीं जानते थे। भूतनाथ का हाल सुनकर उन्हें बड़ा ही रंज हुआ, क्योंकि कमला को वे अपनी लड़की की तरह प्यार करते थे। खैर, सब बातों को सुन-सुनाकर राजा बीरेन्द्रसिंह महल में गये और कमलिनी, लाडिली और कमला इत्यादि से इस तरह मिले, जैसे बड़े लोग अपनी लड़कियों और भतीजियों से मिला करते हैं, और उन सभों ने भी वैसी ही मुहब्बत और इज्जत का बरताव किया, जैसा नेकचलन लड़कियाँ, अपने बाप और चाचा के साथ करती हैं।

सभों को प्यार और दिलासा कर राजा बीरेन्द्रसिंह बाहर आये, और आज का दिन तेजसिंह से सलाह-विचार करने में बिताया। दूसरे दिन दोपहर के दिन शेरअलीखाँ से मुलाकात की और घण्टे-भर रात तक जाने बाद भूतनाथ का मुकदमा सुनने का विचार प्रकट करके कहा कि मायारानी तथा दारोगा का मुकदमा भूतनाथ के मुकदमे के बाद सुना जायगा।

राजा बीरेन्द्रसिंह ने यह भी कह दिया कि भूतनाथ का मुकदमा महल के अन्दर सुना जायगा, और उस समय हमारे ऐयारों के सिवाय यहाँ किसी गैर के रहने की कोई जरूरत नहीं है। औरतों में भी सिवाय लड़कियों के जो चिक के अन्दर बैठायी जाँयगी, कोई लौंडी इतना नजदीक न रहने पावे कि हम लोगों की बातें सुने, और बलभद्रसिंह की गद्दी हमारे पास ही बिछायी जाय।

हमारे पाठक सवाल कर सकते हैं कि जब मुकदमा सुनने के समय सिवाय किसी गैर आदमी के मौजूद रहने की मनाही कर दी गयी तो किशोरी, कमलिनी और लक्ष्मीदेवी इत्यादि पर्दे के अन्दर बैठने की क्या जरूरत थी? इसका यह हो सकता है कि ताज्जुब नहीं कि राजा बीरेन्द्रसिंह ने सोचा हो कि जिस समय भूतनाथ का मुकदमा सुना जायगा, और उसके ऐबों की पोटलियाँ खोलने के साथ-साथ सबूत की चीठियाँ, वह जन्मपत्री पढ़ी जायगी, जो बलभद्रसिंह ने दी है, तो बेशक लड़कियों के दिल पर चोट बैठेगी, और उनके चेहरे तथा अंगों से उनकी अवस्था अवश्य प्रकट होगी, कौन ठिकाना कोई चीख उठे, कोई बदहवास हो के गिर पड़े, या किसी से किसी तरह की बेअदबी हो जाय तो यह अच्छी बात न होगी। बड़ों के सामने अनुचित काम बेबसी की अवस्था में हो जाने से दिल को रंज पहुँचेगा, और यदि ऐसा न भी हुआ तो भी दिल की अवस्था छिपाने के लिए उन्हें बहुत उद्योग करना पड़ेगा, तथा उनके नाजिक कलेजे को तकलीफ पहुँचेगी, जिससे लज्जित होंगी। इससे इन लोगों का पर्दे के अन्दर ही बैठना उचित होगा। बेशक, यही बात है और बड़ों को ऐसा खयाल होना ही चाहिए।

रात-पहर-भर से ज्यादे जा चुकी है। महल के एक छोटे से मगर दोहरे दालान में रोशनी अच्छी तरह हो रही है। दालान के पहिले हिस्से में बारीक चिक का परदा गिरा हुआ है, और भीतर पूरा अन्धकार है। किशोरी, कामिनी, लक्ष्मीदेवी, कमलिनी, लाडिली और कमला उसी के अन्दर बैठी हुई हैं। बाहरी हिस्से में, जिसमें रोशनी बखूबी हो रही है, राजा बीरेन्द्रसिंह की गद्दी लगी हुई है, उनके बगल में बलभद्रसिंह बैठे हुए हैं, दूसरे बगल में कागजों की गठरी लिये हुए तेजसिंह विराजमान हैं और बाकी के ऐयार लोग (भैरोसिंह को छोड़के) दोनों तरफ दिखायी दे रहे हैं, तथा सभी की निगाहें सामने के मैदान में पड़ रही हैं, जिधर से हथकड़ी-बेड़ी से मजबूर भूतनाथ को लिए हुए देवीसिंह चले आ रहे हैं।

भूतनाथ ने आने के साथ झुककर बीरेन्द्रसिंह को सलाम किया और कहा—

भूतनाथ : व्यर्थ ही बात का बतंगड़ बनाकर मुँझे साँसत में डाल रक्खा है, मगर भूतनाथ ने भी जिसने आप लोगों को खुश रखने के लिए कोईज् बात उठा नहीं रक्खी, इस बात का प्रण कर लिया था कि जब तक राजा बीरेन्द्रसिंह का सामना न होगा, अपने मुकदमें की उलझन को खुलने न दूँगा।

बीरेन्द्र : बेशक, इस बात का मुझे बहुत रंज है कि उस भूतनाथ के ऊपर एक भारी जुर्माना ठहराया गया है, जिसकी कार्रवाइयों को सुन-सुनकर हम खुश होते थे, और जिसे मुहब्बत की निगाह से देखने की अभिलाषा रखते थे।

भूतनाथ : अगर महाराज को इस बात का रंज है, तो महाराज निश्चय रक्खें कि भूतनाथ महाराज की नजरों से दूर किये जाने लायक साबित न होगा। (इधर-उधर और पीछे की तरफ देखके) मगर अफसोस, हमारा मददगार अभी तक नहीं पहुँचा, न मालूम कहाँ अटक रहा!

इतने में सामने की तरफ से वही जिन्न आता हुआ दिखायी पड़ी, जिसे तेजसिंह पहिले देख चुके थे और जिसका हाल राजा बीरेन्द्रसिंह से भी कह चुके थे। इस जिन्न की चाल आजाद, बेफिक्र और निडर लोगों की-सी-थी, जो धीरे-धीरे चलकर उसी दालान में आ पहुचा, और चुपचाप एक किनारे खड़ा हो गया।

उसके रंग-ढंग और उसकी पोशाक का हाल हम एक जगह बयान कर आये हैं, इसलिए पुनः लिखने की कोई आवश्यकता नहीं। यद्यपि जिन्न आश्चर्यजनक रीति से यकायक यहाँ आ पहुँचा था, और इसको इस बात का गुमान थी कि हमारा आना लोगों को बड़ा ही आश्चर्यजनक मालूम होगा, मगर ऐसा न था क्योंकि तेजसिंह को इस बात की खबर पहिले ही दिन हो चुकी थी, जब वे जिन्न और भूतनाथ के पीछे-पीछे जाकर उनकी बातें सुन आये थे, और तेजसिंह ने यह हाल राजा बीरेन्द्रसिंह, अपने साथियों और कमलिनी, लक्ष्मीदेवी वगैरह से भी कह दिया था, अतएव जिन्न के आने का सब कोई इन्तजार ही कर रहे थे, और जब वह आ गया, तो उसकी सूरत गौर से देखने लगे। बीरेन्द्रसिंह का इशारा पाकर देवीसिंह ने उस जिन्न से पूछा—

देवी : महाराज की इच्छा है कि तुम अपना नाम और यहाँ आने का सबब बताओ।

जिन्न : मेरा नाम कृष्णाजिन्न है और मैं भूतनाथ का विचित्र मुकदमा सुनने तथा अपने एक पुराने मित्र से मिलने आया हूँ।

देवी : (आश्चर्य से) क्या भूतनाथ के अतिरिक्त कोई दूसरा आदमी भी तुम्हारा मित्र है?

जिन्न : हाँ।

देवी : और वह है कहाँ?

जिन्न : इसी जगह, आप लोगों के बीच ही में।

देवी : अगर ऐसा है तो तुम उसे अपने पास बुलाओ और बातचीत करो।

जिन्न : इससे आपको कोई मतलब नहीं, जब मौका आवेगा, ऐसा किया जायगा।

देवी : ताज्जुब है कि तुम किसी का कुछ खयाल न करके बेअदबी के साथ बातचीत करते हो! क्या हम लोगों के साथ किसी तरह की दुश्मनी या रंज है? या दुश्मनी पैदा किया चाहते हो?

जिन्न : दुश्मनी बिना डाह, डर और रंज के पैदा नहीं होती और हमारे में ये तीनों बातें छू नहीं गयी हैं। न तो हमें किसी का डर है, न किसी को डराने की इच्छा है, न किसी को कुछ देते हैं, और न किसी से कुछ चाहते हैं, न कोई हमारा कुछ बिगाड़ सकता है, न हम किसी का कुछ बिगाड़ते हैं, न हमें किसी बात की कमी है, न लालसा है, फिर ऐसी अवस्था में किसी से दुश्मनी या रंज की नौबत हो भी क्योंकर सकती है? अस्तु, आप लोगों को यही चाहिए कि हमारा खयाल छोड़कर अपना काम करें और हमारा होना-न-होना एक बराबर समझें।

जिन्न की बातों से सभों को बड़ा ही आश्चर्य और रंज हुआ, बल्कि हमारे कई ऐयारों को क्रोध भी चढ़ आया, मगर राजा बीरेन्द्रसिंह का इशारा पाकर सभों को चुप और शान्त होना ही पड़ा। बीरेन्द्रसिंह ने तेजसिंह की तरफ देखकर भूतनाथ का मुकदमा शुरू करने के लिए कहा और तेजसिंह ने ऐसा ही किया।

तेजसिंह ने भूमिका के तौर पर थोड़ा-सा पिछला हाल कहकर वह गठरी खोली, जिसमें पीतल की एक सन्दूकड़ी और कागज का एक मुट्ठा था, जिसमें की चीठियाँ कमलिनी वगैरह का पढ़ी जा चुकी थीं। तेजसिंह उन चीठियों को पढ़ गये, जिनका हाल हमारे पाठकों को मालूम हो चुका है, और इसके बाद अगली चीठी पढ़ने का इरादा किया, मगर जिन्न ने उसी समय टोक दिया, और कहा, "यदि महाराज साहब उचित समझें तो दारोगा और मुन्दर को भी जिसने अपने को मायारानी के नाम से मशहूर कर रक्खा है, और जो इस समय सरकार के कब्जे में है, इसी जगह बुलवा लें और चीठियों को उनके सामने पुनः पढ़ने की आज्ञा दें। यद्यपि यहाँ पर शेरअलीखाँ के आने की भी आवश्यकता है, परन्तु मौके-मौके पर कई बातें ऐसी प्रकट होंगी, जिनका हाल शेरअलीखाँ को मालूम होने देना हम उचित नहीं समझते।"

यद्यपि जिन्न ने बेमौके टोंक दिया था और राजा बीरेन्द्रसिंह तथा हमारे ऐयारों को इस बात का रंज होना चाहिए था, मगर ऐसा न हुआ, बल्कि सभों ने जिन्न की बात पसन्द की और महाराज ने मायारानी को हाजिर करने का हुक्म दिया। तारासिंह गये और थोड़ी ही देर में मायारानी और दारोगा को इस तरह लिए हुए वहाँ आ पहुँचे, जिस तरह अपनी जान से हाथ धोये और जिद्दी कैदियों को घसीटते हुए लाना पड़ता है। जिस समय मुन्दर वहाँ आयी, उसने घबराहट के साथ चारों तरफ देखा। सबसे ज्यादे देर तक उसकी निगाह, जिस पर अड़ी रही, वह बलभद्रसिंह था, और बलभद्रसिंह ने भी मायारानी को बड़े गौर से देखा। जिन्न ने इस समय पुनः टोका और राजा बीरेन्द्रसिंह से कहा, "आशा है कि हमारे होशियार और नीतिकुशल महाराज मुन्दर और बलभद्रसिंह की आँखों को बड़े ध्यान और गूढ विचार से देख रहे होंगे।"

जिन्न की इस बात ने होशियारों और बुद्धिमानों के दिल में एक नया ही रंग पैदा कर दिया, और तेजसिंह तथा बीरेन्द्रसिंह ने मुस्कुराते हुए जिन्न की तरफ देखा। इसी समय भैरोसिंह भी आ पहुँचे, जिन्हें तेजसिंह कुछ समझा-बुझाकर आज दो दिन हुए बाग के उस हिस्से में छोड़ आये थे, जिसमें मायारानी गिरफ़्तार की गयी थी। भैरोसिंह के हाथ में एक छोटा-सापुर्जा था, जिसे तेजसिंह के हाथ में रख दिया, और तब मुस्कुराते हुए जिन्न की तरफ देखा। भैरोसिंह को देख जिन्न के दाँत भी हँसी से दिखायी दे गये, मगर उसने अपने को रोका और भैरोसिंह की तरफ से मुँह फेर लिया। तेजसिंह ने इस पुर्जे को पढ़ा और हँसकर राजा बीरेन्द्रसिंह की के हाथ में दे दिया। राजा बीरेन्द्रसिंह भी पढ़कर हँस पड़े और जिन्न तथा भैरोसिंह की तरफ देखने लगे।

इस समय सभों की इच्छा यह जानने की हो रही थी कि भैरोसिंह ने जो पुर्जा तेजसिंह को दिया, उसमें क्या लिखा हुआ था, और राजा बीरेन्द्रसिंह उसे पढ़कर और जिन्न की तरफ देखकर क्यों हँसे? मगर इसका असल भेद किसी को मालूम न हुआ और न कोई कुछ पूछ ही सका।

जिस समय जिन्न ने मायारानी और बलभद्रसिंह की देखादेखी के बारे में आवाज़ कसी, उस समय मायारानी ने बलभद्रसिंह की तरफ से आँखें फेर लीं, मगर बलभद्रसिंह केवल आँख बचाकर चुप न रह गया, बल्कि उसने क्रोध मे आकर जिन्न से कहा—

बलभद्रसिंह : एक तो तुम बिना बुलाये यहाँ पर चले आये, जहाँ आपुस की गुप्त बातों का मामला पेश है, दूसरे तुमसे जो कुछ पूछा गया, उसका जवाब तुमने बेअदबी और ढिठाई के साथ दिया, तीसरे अब तुम बात-बात पर टोका-टाकी करने और आवाज़ कसने लगे! आखिर कोई कहाँ तक बर्दाश्त करेगा? तुम हम लोगों की बातों में बोलने वाले कौन हो?

जिन्न : (क्रोध और जोश मे आकर) हमें भूतनाथ ने अपना मुख्तसर बनाया है, इसलिए हम इस मामले में बोलने का अधिकार रखते हैं। हाँ, यदि राजा साहब हमें चुप रहने की आज्ञा दें तो हम अपनी जुबान बन्द कर सकते हैं। (कुछ रुककर) मगर मैं अफसोस के साथ कहता हूँ कि क्रोध और खुदगर्जी ने तुम्हारा बुद्धि के आईने को गँदला कर दिया है और निर्लज्जता की सहायता से तुम बोलने में तेज हो गये हो, इतना भी नहीं सोचते कि रोहतासगढ़ किले के अन्दर, बल्कि महल के बीच में जो बेखौफ घुस आया है, वह किसी तरह की ताकत भी रखता होगा या नहीं! (राजा बीरेन्द्रसिंह और ऐयारों की तरफ इशारा करके) जो ऐसे-ऐसे बहादुरों और बुद्धिमानों के सामने बिना बुलाये आने पर भी ढिठाई के साथ वादाविवाद कर रहा हे, वह किसी तरह की कुदरत भी रखता होगा, या नहीं! मैं खूब जानता हूँ कि नेक, ईमानदार, निर्लोभ और लापरवाह आदमी को राजा बीरेन्द्रसिंह ऐसे बहादुर और तेजसिंह ऐसे चालाक आदमी भी कुछ नहीं कह सकते, तुम्हारे ऐसों की हकीकत ही क्या, जिसने बेईमानी, लालच, दगाबाजी और बेशर्मी के साथ-ही-साथ पाप की भारी गठरी अपने सिर पर उठा रक्खी है, और उसके बोझ में घुटने तक जमीन में गड़ा हुआ है। मैं इस बात को भी खूब समझता हूँ कि मेरी इस समय की बातचीत लक्ष्मीदेवी, कमलिनी और लाडिली को जो इस पर्दे के अन्दर बैठी हुई सब कुछ देख सुन रही हैं, बहुत बुरा मालूम होती होगी, मगर उन्हें धीरज के साथ देखना चाहिए कि हम क्या करते हैं। हाँ, मुझे अभी बहुत कुछ कहना है, और मैं चुप नहीं रह सकता क्योंकि तुमने लज्जा से सिर झुका लेने के बदले में बेशर्मी अख्तियार कर ली है, और जिस तरह अबकी दफे टोका है, उसी तरह आगे भी बात-बात में मुझे टोकने का इरादा कर लिया है, मगर खूब समझ रक्खो कि राजा बीरेन्द्रसिंह और उनके ऐयारों की बातें मैं इसलिए सह लूँगा कि ये लोग किसी के साथ सिवाय भलाई के बुराई करने वाले नहीं हैं, जब तक कोई कमबख्त इन लोगों को व्यर्थ न सतावे, और ये नेक तथा बद को पहिचानने की भी बुद्धि रखते हैं, मगर तुम्हारे ऐसे बेईमान और पापी की बातें मैं सह नहीं सकता। भूतनाथ पर एक भारी इल्जाम लगाया है, और भूतनाथ का मैं मुख्तसर हूँ, इससे मेरी इज्जत में कमी नहीं आ सकती। तुम लक्ष्मीदेवी, कमलिनी और लाडिली के बाप बनकर अपने को बराबरी का दर्जा दिया चाहते हो, मगर ऐसा नहीं हो सकता, अगर भूतनाथ दोषी है, तो तुम भी मुँह दिखाने लायक नहीं हो, समझ रक्खो और खूब समझ रक्खो कि चाहे आज हो या दो दिन बाद हो भूतनाथ की इज्जत तुमसे बढ़ी ही रहेगी! (भूतनाथ की तरफ देखकर) क्यों जी भूतनाथ, तुम क्यों इससे दबे जाते हो? तुम्हें किस बात का डर है।

भूतनाथ : (पीतल की सन्दूकड़ी की तरफ इशारा करके) बस केवल इसी का डर है, और इस कागज के मुट्ठे को तो मैं कुछ भी नहीं समझता, इसकी इज्जत तो मेरे सामने इतनी ही हो सकती है, जितनी आज के दिन मायारानी की उस चीठी की होती, जो वह अपने हाथ से लिखकर राजा गोपालसिंह के सामने इस नीयत से रखती कि उसका कसूर माफ किया जाय, और लक्ष्मीदेवी का खयाल कुछ न करके, वह पुनः राजा गोपालसिंह की रानी बनायी जाय।

जिन्न : निःसन्देह ऐसा ही है, और इसी सन्दूकड़ी के सबब से बलभद्रसिंह तुम्हारे सामने ढिठाई कर रहा है। अच्छा इस सन्दूकड़ी का जादू दूर करने के लिए इसी के पास मैं एक कलमदान रखे देता हूँ, जिसमें बलभद्रसिंह पुनः तुम्हारे सामने बोलने का साहस न सके, और तुम्हारा मुकदमा बिना किसी रोक-टोक के सुना जाकर शीघ्र समाप्त हो जाय।

इतना कहकर जिन्न ने अपने कपड़े के अन्दर से एक सोने का कलमदान निकालकर उस सन्दूकड़ी के बगल में रख दिया, जो राजा बीरेन्द्रसिंह के सामने रक्खी हुई थी, और भूतनाथ के कागजात की गठरी में से निकाली गयी थी, अथवा जिसका हाल हमारे पाठक पहिले के किसी बयान में पढ़ चुके हैं।

यह कलमदान, जिसका ताला बन्द था, बहुत ही अनूठा और सुन्दर बना हुआ था। इसके ऊपर की तरफ मीनाकारी के काम की तीन तस्वीरें बनी हुई थीं, और उनकी चमक इतनी तेज और साफ़ थी कि कोई देखनेवाला, उन्हें पुरानी नहीं कह सकता था।

इस कलमदान को देखते ही भूतनाथ खुशी के मारे उछल पड़ा, और जिन्न की तरफ देखके तथा हाथ जोड़ के, "माफ करना, मैंने आपकी कुदरत के बारे में शक किया था। मैं नहीं जानता था कि आपके पास एक ऐसी अनूठी चीज़ है। यद्यपि मैंने अभी तक आपको पहिचाना नहीं, तथापि कह सकता हूँ कि आप साधारण मनुष्य नहीं हैं। आप यह न समझें कि यह कलमदान मुझसे दूर है, और मैं इसे अच्छी तरह से देख नहीं सकता। नहीं नहीं, ऐसा नहीं है, इसकी एक झलक ने ही मेरे दिल के अन्दर इसकी पूरी-पूरी तस्वीर खैंच दी है! (आसमान की तरफ हाथ उठाके) ईश्वर, तू धन्य है।"

भूतनाथ के विपरीत बलभद्रसिंह पर उस कलमदान का उलटा ही असर पड़ा। वह उसे देखते ही चिल्ला उठा और उठकर मैदान की तरफ भागा, मगर जिन्न ने फुर्ती के साथ लपककर उसे पकड़ लिया और बीरेन्द्रसिंह के सामने लाकर कहा, "भलमनसी के साथ यहाँ चुपचाप बैठो, तुम भागकर अपनी जान किसी तरह नहीं बचा सकते!"

केवल भूतनाथ और बलभद्रसिंह ही नहीं, बल्कि तिलिस्मी दारोगा पर भी उस कलमदान का बहुत बुरा असर पड़ा, और डर के मारे वह इस तरह काँपने लगा, जैसे जड़ैया बुखार चढ़ा आया हो। बीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह और बाकी के ऐयारों को भी बड़ा ही आश्चर्य हुआ, और वे लोग ताज्जुब-भरी निगाहों से इस कलमदान की तरफ देखने लगे। इतने में चिक के अन्दर में से आवाज़ आयी, "इस कलमदान को जरा मैं भी देखा चाहती हूँ!" यह आवाज़ कमलिनी की थी, जिसे सुनकर राजा बीरेन्द्रसिंह ने जिन्न की तरफ देखा और जिन्न ने जोश के साथ कहा, "हाँ हाँ, आप बेशक इस कलमदान को पर्दे के अन्दर भेजवा दें, क्योंकि लक्ष्मीदेवी और कमलिनी को इस कलमदान का देखना आवश्यक है। (तेजसिंह से) आप स्वयं इसे लेकर चिक के अन्दर जाइए।"

तेजसिंह कलमदान लेकर उठ खड़े हुए, और चिक के अन्दर जाकर कलमदान कमलिनी के हाथ में रख दिया। वहाँ किसी तरह की रोशनी नहीं थी, और पूरा अन्धकार था, इसलिए उन सभों को कलमदान अच्छी तरह देखने के लिए दूसरे कमरे में जाना पड़ा, जहाँ दीवारगीरों की रोशनी से दिन की तरह उजाला हो रहा था।

सिवाय लक्ष्मीदेवी के और किसी औरत ने कलमदान को नहीं पहिचाना और न किसी पर उसका असर ही पड़ा, मगर लक्ष्मीदेवी ने जिस समय उसे उजाले में देखा, उसकी अजब हालत हो गयी। वह सिर पकड़कर जमीन पर बैठने के साथ ही बेहोश होकर, जमीन पर गिर पड़ी।

लक्ष्मीदेवी के बेहोश होने से एक हलचल-सी पड़ गयी और कमलिनी तथा कमला इत्यादि उसे होश में लाने का उद्योग करने लगीं। तेजसिंह, कलमदान उठाकर और यह कहकर कि ‘लक्ष्मीदेवी की तबीयत ठीक हो जाने के साथ बाहर खबर कर देना’ बीरेन्द्रसिंह के पास चले आये और कलमदान सामने रखकर लक्ष्मीदेवी का हाल कहा।

इस मामले से सभों का ताज्जुब और बढ़ गया और बीरेन्द्रसिंह ने तेजसिंह से कहा—

बीरेन्द्र : इन भेदों को खोलकर आज अवश्य फैसला कर ही देना चाहिए।

तेज : मैं भी यही चाहता हूँ। (जिन्न की तरफ देखके) मगर यह बात आपकी मदद के किसी तरह नहीं हो सकती!

जिन्न : जब तक राजा बीरेन्द्रसिंह आज्ञा न देंगे, मैं यहाँ से न जाऊँगा क्योंकि मैं भी इस मामले को आज खतम कर देना आवश्यक समझता हूँ, मगर तब तक सब्र कीजिए, जब तक लक्ष्मीदेवी की तबीयत ठिकाने न हो जाय और वे सब पर्दे के पास आकर बैठ न जाँय। हाँ, बलभद्रसिंह को कहिए कि वह उठकर अपने ठिकाने जाय और भाग जाने का ध्यान भूलकर चुपचाप बैठे।

बलभद्रसिंह की ताकत बिल्कुल निकल गयी थी, और वह सुस्त जहाँ-का-तहाँ बैठा रह गया था। तेजसिंह ने उसे उठाकर अपने बगल में बिठा लिया और थोड़ी देर तक सन्नाटा रहा।

आधी घड़ी के बाद खबर आयी कि लक्ष्मीदेवी की तबीयत ठीक हो गयी और वे सब पर्दे के पास आकर बैठ गयी हैं।   

 ।। समाप्त ।।

 

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