लोगों की राय

मूल्य रहित पुस्तकें >> चन्द्रकान्ता सन्तति - 4

चन्द्रकान्ता सन्तति - 4

देवकीनन्दन खत्री

Download Book
प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8402
आईएसबीएन :978-1-61301-029-7

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

354 पाठक हैं

चन्द्रकान्ता सन्तति - 4 का ई-पुस्तक संस्करण...

।। पन्द्रहवाँ भाग ।।

 

पहिला बयान

इन्दिरा बोली–कुँअर साहब ने एक लम्बी साँस लेकर फिर अपना हाल कहना शुरू किया और कहा–

कुँअर साहब : जब मुँह पर से कपड़ा, हटा दिया गया, तब मैंने अपने को एक सजे हुए कमरे में देखा। वे ही आदमी जो मुझे यहाँ तक लाये थे, अब भी मुझको चारों तरफ से घेरे हुए थे। छत के साथ बहुत-सी कन्दीलें लटक रही थीं, और उनमें मोमबत्तियाँ जल रही थीं, दीवारगीरों में रोशनी हो रही थी, जमीन पर फर्श बिछा हुआ था, और उस पर पचीस-तीस आदमी अमीराना ढंग की पोशाक पहिरे और सामने नंगी तलवारें रक्खे बैठे हुए थे, मगर सभों का चेहरा नकाब से ढँका हुआ था। तमाम रास्ते में और उस समय मेरे दिल की क्या हालत थी, सो मैं ही जानता हूँ। एक आदमी ने जो सबसे ऊँची गद्दी पर बैठा हुआ था, और शायद उन सभों का सभापति था, मेरी तरफ मुँह करके कहा, ‘‘कुँअर गोपालसिंह तुम समझते होगे कि मैं जमानिया के राजा का लड़का हूँ, जो चाहूँ सो कर सकता हूँ, मगर अब तुम्हें मालूम हुआ होगा कि हमारी सभा इतनी जबर्दस्त है कि तुम्हारे ऐसे के साथ भी जो चाहे सो कर सकती हैं। इस समय तुम लोग हम सब के कब्जे में हो, मगर नहीं हमारी सभा ईमानदार है। हम लोग ईमानदारी के साथ दुनिया का इन्तजाम करते हैं। तुम्हारा बाप बड़ा ही बेवकूफ है, और राजा होने लायक नहीं है। जिस दिन से वह अपने को महात्मा और साधू बनाये हुए है, दयावान कहलाने के लिए मरा जाता है दुष्टों को उतना दण्ड नहीं देता जितना देना चाहिए। इसी से तुम्हारे शहर में अब खूनखराबा ज्यादे होने लग गया है, मगर खूनी के गिरफ्तार हो जाने पर भी, वह किसी खूनी को दया के वश में पड़कर प्राणदण्ड नहीं देता। इसी से अब हम लोगों को तुम्हारे यहाँ के बदमाशों का इन्साफ अपने हाथ में लेना पड़ा। तुम्हें खूब मालूम है कि जिस खूनी को तुम्हारे बाप ने केवल देश-निकाले का दण्ड देकर छोड़ दिया था, उसकी लाश तुम्हारे ही शहर में किसी चौंमुहाने पर पायी गयी थी। आज तुम्हें यह भी मालूम हो गया कि वह कार्रवाई हमीं लोगों की थी। तुम्हारे शहर का रहनेवाला दामोदरसिंह भी हमारी सभा का सभासद (मेम्बर) था। एक दिन इस सभा से लाचार होकर यह हुक्म जारी किया कि जमानिया के राजा को अर्थात् तुम्हारे बाप को इस दुनिया से उठा दिया जाय, क्योंकि वह ग्द्दी चलाने लायक नहीं है, और तुमको जमानिया की गद्दी पर बैठाया जाय। यद्यपि दामोदरसिंह को भी नियामानुसार हमारा साथ देना उचित था, मगर वह तुम्हारे बाप का पक्ष करके बेईमान हो गया, अतएव लाचार होकर हमारी सभा ने उसे प्राणदण्ड दिया। अब तुम लोग दामोदरसिंह के खूनी का पता लगाना चाहते हो, इसलिए इसका नतीजा अच्छा नहीं निकल सकता। आज इस सभा ने इसलिए तुम्हें बुलाया है कि तुम्हें हर बात से होशियार कर दिया जाय। इस सभा का हुक्म टल नहीं सकता, तुम्हारा बाप बहुत जल्द ही इस दुनिया से उठा दिया जायगा, और तुमको जमानिया की गद्दी पर बैठने का मौका मिलेगा। तुम्हें उचित है कि हमलोगों का पीछा न करो अर्थात् यह जानने का उद्योग न करो कि हमलोग कौन हैं या कहाँ रहते हैं और अपने दोस्त इन्द्रदेव को भी ऐसा करने के लिए ताकीद कर दो, नहीं तो तुम्हारे और इन्द्रदेव के लिए भी प्राणदण्ड का हुक्म दिया जायगा। बस केवल इतना ही समझाने के लिए इस सभा में बुलाये गये थे, और अब बिदा किये जाते हो।’’

इतना कहकर उस नकाबपोश ने ताली बजायी और उन्हीं दुष्टों ने जो मुझे वहाँ ले गये थे, मेरे मुँह पर कपड़ा डालकर फिर उसी तरह कस दिया खम्भे और उसी तरह दोनों पैर कसकर बाँध दिये। लाचार होकर मुझे फिर उसी तरह का सफर करना पड़ा और किस्मत ने फिर उसी तरह मुझे तीन पहर घोड़े पर बैठाया। इसके बाद एक जंगल में पहुँचकर घोड़े पर से नीचे उतार दिया, पैर खोल दिये, मुँह से कपड़ा हटा लिया और जिस घोड़े पर मैं सवार कराया गया था, उसे साथ लेकर वे वहाँ से रवाना हो गये। उस तकलीफ ने मुझे ऐसा बेदम कर दिया था कि दस कदम चलने की भी ताकत न थी और भूख-प्यास के मारे बुरी हालत हो गयी थी, दिन पहर-भर से ज्यादे चढ़ चुका था, पानी का बहता हुआ चश्मा मेरी आँखों के सामने था, मगर मुझमें उठकर वहाँ तक जाने की ताकत न थी। घण्टे भर तक तो यों ही पड़ा रहा, इसके बाद धीरे-धीरे चश्में के पास गया, खूब पानी पिया, तब जी ठिकाने हुआ। मैं नहीं कह सकता कि किन कठिनाइयों से दो दिन में यहाँ तक पहुँचा हूँ। अभी तक घर नहीं गया, पहिले तुम्हारे पास आया हूँ। हाँ, धिक्कार है मेरी जिन्दगी और राजकुमार कहलाने पर! जब मेरी रिआया का इन्साफ बदमाशों के आधीन है तो मैं यहाँ का हाकिम क्योंकर कहलाने लगा? जब मैं अपनी हिफाजत आप नहीं कर सकता तो प्रजा की रक्षा कैसे कर सकूँगा? बड़े खेद की बात है कि अपने दर्जे के बदमाश लोग हम पर मुकदमा करें और हम उनका कुछ भी न कर सकें, हमारे हितैषी दामोदरसिंह मार डाले गये और अब मेरे प्यारे पिता के मारने की फिक्र की जा रही है।

गोपलसिंह : निःसन्देह उस समय मुझे बड़ा ही रंज हुआ था आज जब मैं उन बातों को याद करता हूँ तो मालूम होता है कि उन लोगों को यदि मुन्दर की शादी मेरे साथ करना मंजूर न होता तो निःसन्देह मुझे भी मार डालते और या फिर गिरफ्तार ही न करते।

इन्द्रजीत : ठीक है, (इन्दिरा से) अच्छा तब!

इन्दिरा : मेरे पिता ने जब यह सुना कि दामोदरसिंह के नौकर रामप्यारे ने कुँअर साहब को धोखा दिया तो उन्हें निश्चय हो गया कि रामप्यारे भी जरूर उस कमेटी का मददगार है। वे कुँअर साहब की आज्ञानुसार तुरन्त उठ खड़े हुए, और रामप्यारे की खोज में फाटक पर आये मगर खोज करने पर मालूम हुआ कि रामप्यारे का पता नहीं लगता। लौटकर कुँअर साहब के पास गये और बोले, ‘‘जो सोचा था, वही हुआ। रामप्यारे भाग गया, आप का खिदमतगार भी जरूर भाग गया होगा।’’

इसके बाद कुँअर साहब और मेरे पिता देर तक बातचीत करते रहे। पिता ने कुँअर को कुछ खिला-पिलाकर और समझा बुझाकर शान्त किया और वादा किया कि मैं उस सभा तथा उसके सभासदों का पता जरूर लगाऊँगा। पहर-भर रात बाकी होगी, जब कुँअर साहब अपने घर की तरफ रवाना हुए। कई आदमियों को संग लिये हुए मेरे पिता भी उनके साथ गये। राजमहल के अन्दर पैर रखते ही कुँअर साहब को पहिले अपने पिता अर्थात् बड़े राजा से मिलने की इच्छा हुई और वे मेरे पिता को साथ लिये हुए सीधे बड़े महाराज के कमरे में चले गये, मगर अफसोस, उस समय बड़े महाराज का देहान्त हो चुका था और यह बात सबसे पहिले कुँअर साहब ही को मालूम हुई थी। उस समय बड़े महाराज पलँग के ऊपर इस तरह पड़े हुए थे जैसे कोई घोर निद्रा में हो, मगर जब कुँअर साहब ने उन्हें जगाने के लिए हिलाया, तब मालूम हुआ कि वे महानिद्रा के अधीन हो चुके हैं।

इन्दिरा के मुँह से इतना हाल सुनते-सुनते राजा गोपालसिंह की आँखों में आँसू भर आये और दोनों कुमारों के नेत्र भी सूखे न रहे राजा साहब ने एक लम्बी साँस लेकर कहा, ‘‘मेरी माँ का देहान्त पहिले ही हो चुका था, उस समय पिता के भी परलोक सिधारने से मुझे बड़ा ही कष्ट हुआ। (इन्दिरा से) अच्छा आगे कहो।’’

इन्दिरा : बड़े महाराज के देहान्त की खबर जब चारों तरफ फैली तो महल और शहर में बड़ा ही कोलाहल मचा, मगर इस बात का खयाल कुँअर साहब और मेरे माता-पिता के अतिरिक्त और किसी को भी न था कि बड़े महाराज की जान भी उसी गुप्त कमेटी ने ली है, और न इन दोनों ने अपने दिल का हाल किसी से कहा ही। इसके दो महीने बाद कुँअर साहब जमानिया की गद्दी पर बैठे और राजा कहलाने लगे। इस बीच में मेरे पिता ने उस कमेटी का पता लगाने के लिए बहुत उद्योग किया मगर कुछ पता न लगा। उन दिनों कई रजवाड़ों से मातमपुर्सी के खत आ रहे थे। रणधीरसिंहजी (किशोरी के नाना) के यहाँ से मातमपुर्सी का खत लेकर उनके ऐयार गदाधरसिंह* आये थे। गदाधरसिंह से और पिता से कुछ नातेदारी भी है ठीक-ठीक नहीं जानती और इस समय मातमपुर्सी की रसम पूरी करने के बाद, मेरे पिता की इच्छानुसार उन्होंने भी मेरे ननिहाल ही में डेरा डाला जहाँ मेरे पिता रहते थे और इस बहाने से कई दिनों तक दिन-रात दोनों आदमियों का साथ रहा। मेरे पिता ने यहाँ का हाल तथा उस गुप्त कमेटी में कुँअर साहब के पहुँचाये जाने का भेद कहके गदाधरसिंह से मदद माँगी, जिसके जवाब में गदाधरसिंह ने कहा कि मैं मदद देने के लिए जी जान से तैयार हूँ, परन्तु अपने मालिक की आज्ञा बिना ज्यादे दिन तक यहाँ ठहर नहीं सकता और यह काम दो-चार दिन का नहीं। तुम राजा गोपालसिंह से कहो कि वे मुझे मेरे मालिक से थोड़े दिनों के लिए माँग लें, तब मुझे कुछ उद्योग करने का मौका मिलेगा। आखिर ऐसा ही हुआ अर्थात् आपने (गोपलसिंह की तरफ बताकर) अपना एक सवार पत्र देकर रणधीरसिंह के पास भेजा और उन्होंने गदाधरसिंह के नाम राजा साहब का काम कर देने के लिए आज्ञापत्र भेज दिया। (* इसी गदाधरसिंह ने जब नानक की माँ से संयोग किया तो रघुबरसिंह के नाम से अपना परिचय दिया था, और इसके बाद भूतनाथ के नाम से अपने को मशहूर किया।)

गदाधरसिंह जब जमानिया में आये थे तो अकेले न थे, बल्कि अपने तीन-चार चेलों को भी साथ लाये थे। अस्तु, अपने उन्हीं चेलों को साथ लेकर वे उस गुप्त कमेटी का पता लगाने के लिए तैयार हो गये। उन्होंने मेरे पिता से कहा कि इस शहर में रघुबीरसिंह नामी एक आदमी रहता है, जो बड़ा ही शैतान रिश्वती और बेईमान है, मैं उसे फँसाकर अपना काम निकालना चाहता हूँ, मगर अफसोस यह है कि वह तुम्हारे गुरुभाई अर्थात् तिलिस्मी दारोगा का दोस्त है, और तिलिस्मी दारोगा को तुम्हारे राजा साहब बहुत मानते हैं, खैर, मुझे तो उन लोगों का कुछ खयाल नहीं है, मगर तुम्हें इस बात की इत्तिला पहिले से ही दिये देता हूँ। इसके जवाब में मेरे पिता ने कहा कि उस शैतान को मैं भी जानता हूँ, यदि उसे फाँसने से कोई काम निकल सकता है तो निकालो और इस बात का कुछ खयाल न करो कि वह मेरे गुरुभाई का दोस्त है। इसके बाद मेरे पिता और गदाधरसिंह बहुत देर तक आपुस में सलाह करते रहे और दूसरे दिन गदाधरसिंह ने लोगों के देखने में महाराज से बिदा होकर अपने घर का रास्ता लिया। गदाधरसिंह के जाने बाद, मेरे पिता भी उन्हीं लोगों का पता लगाने के लिए घूमने-फिरने और उद्योग करने लगे। एक दिन, रात के समय मेरे पिता भेष बदलकर शहर में घूम रहे थे, अकस्मात घूमते-फिरते गंगा किनारे, उसी ठिकाने जा पहुँचे जहाँ (गोपालसिंह की तरफ इशारा कर) इन्हें दुश्मनों ने गिरफ्तार कर लिया था। मेरे पिता ने भी एक डोंगी किनारे पर बँधी हुई देखी। उस समय उन्हें कुँअर साहब की बात याद आ गयी और वे धीरे-धीरे चलकर उसी डोंगी के पास जा खड़े हुए। उसी समय कई आदमियों ने यकायक पहुँचकर उन्हें गिरफ्तार कर लिया। वे लोग हाथ में तलवार लिये और अपने चेहरों को नकाब से ढाँके हुए थे। यद्यपि मेरे पिता के पास भी तलवार थी, और उन्होंने अपने आपको बचाने के लिए बहुत कुछ उद्योग किया, बल्कि दो एक आदमियों को जख्मी भी किया, मगर नतीजा कुछ भी न निकला, क्योंकि दुश्मनों ने एक छोटा मोटा कपड़ा बड़ी फुर्ती से उनके सर और मुँह पर डालकर, उन्हें हर तरह से बेकार कर दिया। मुख्तसर यह कि दुश्मनों ने उन्हें गिरफ्तार करने के बाद हाथ-पैर बाँध के डोंगी में डाल दिया, डोंगी खोली गयी और एक तरफ तेजी के साथ रवाना हुई। पिता के मुँह पर कपड़ा कसा हुआ था, इसलिए वे देख नहीं सकते थे कि डोंगी किस तरफ जा रही है, और दुश्मन गिनती में कितने है। दो घण्टे तक उसी तरह चले जाने के बाद वे किश्ती के नीचे उतारे गये और जबर्दस्ती एक घोड़े पर चढ़ाये गये, दोनों पैर नीचे से कसके बाँध दिये गये और उसी तरह उस गुप्त कमेटी में पहुँचाये गये, जिस तरह कुँअर साहब अर्थात् राजा गोपालसिंह जी वहाँ पहुँचाये गये थे। उसी तरह मेरे पिता भी एक खम्भे के साथ कसके बाँध दिये गये और उनके मुँह पर से वह आफत का पर्दा हटाया गया। उस समय एक भयानक दृश्य उन्हें दिखायी दिया। जैसा कि कुँअर साहब ने उनसे बयान किया था। ठीक उसी तरह का राजा सजा-सजाया कमरा और वैसे ही बहुत से नकाबपोश बड़े ठाठ के साथ बैठे हुए थे। पिता ने मेरी माँ को एक खम्भे की साथ बँधी हुई और उस कलमदान को जो मेरे नाना साहब ने दिया था, सभापति के सामने एक छोटी-सी चौकी के ऊपर रक्खे देखा। पिता को बड़ा ही आश्चर्य हुआ और अपनी स्त्री को भी अपनी तरह मजबूर देखकर मारे क्रोध के काँपने लगे, मगर कर ही क्या सकते थे, साथ ही इसके उन्हें इस बात का भी निश्चय हो गया हो कि वह कलमदान भी कुछ इसी सभा से सम्बन्ध रखता है। सभापति ने मेरे पिता की तरफ देख के कहा, ‘‘ क्यों जी इन्द्रदेव, तुम तो अपने को बहुत होशियार और चालाक समझते हो! हमने राजा गोपालसिंह की जुबानी क्या कहला भेजा था? क्या तुम्हें नहीं कहा गया था कि तुम हम लोगों का पीछा न करो? फिर तुमने ऐसा क्यों किया? क्या हम लोगों से कोई बात छिपी रह सकती है! खैर, अब बताओ तुम्हारी क्या सजा की जाय? देखो तुम्हारी स्त्री और यह कलमदान भी इस समय हम लोगों के आधीन है, बेईमान दामोदरसिंह ने तो इस कलमदान को गढ़े में डालकर हम लोगों को फँसाना चाहा था, मगर उसका अन्तिम वार खाली गया।’’ इसके जवाब में मेरे पिता ने गम्भीर भाव से कहा, ‘‘निःसन्देह मैं आप लोगों का पता लगा रहा था, मगर बदनियती के साथ नहीं, बल्कि इस नीयत से कि मैं भी आप लोगों की इस सभा में शरीक हो जाऊँ।’’

सभापति ने हँसकर कहा, ‘‘बहुत खासे! अगर ऐसा ही हम लोग घोखे में आनेवाले होते तो हम लोगों की सभा अब तक रसातल को पहुँच गयी होती। क्या हम लोग नहीं जानते कि तुम हमारी सभा के जानी दुश्मन हो? बेईमान दामोदरसिंह ने हम लोगों को चौपट करने में कुछ बाकी नहीं रक्खा था, मगर बड़ी खुशी की बात है कि यह कलमदान हम लोगों को मिल गया और हमारी सभा का भेद छिपा रह गया!’’

सभापति की इस बात से मेरे पिता को मालूम हो गया कि उस कलमदान में निःसन्देह इसी सभा का भेद बन्द हैं अस्तु, उन्होंने मुस्कुराहट के साथ सभापति की बातों का यों जवाब दिया, ‘‘मुझे दुश्मन समझना आप लोगों की भूल हैं, अगर मैं सभा का दुश्मन होता तो अब तक आप लोगों को जहन्नुम में पहुँचा दिए होता। मैं इस कलमदान को खोलकर इस सभा के भेदों से अच्छी तरह जानकार हो चुका हूँ और इन भेदों को एक दूसरे कागज पर लिखकर अपने एक मित्र को भी दे चुका हूँ। मैं...’’

पिता ने केवल इतना ही कहा था कि सभापति ने जिसकी आवाज से जाना जाता है कि घबड़ा गया है, पूछा, ‘‘क्या तुम इस कलमदान को खोल चुके हो?’’

पिता : हाँ।

सभापति : और इस सभा का भेद लिखकर तुमने किसके सुपुर्द किया है?

पिता : सो नहीं बता सकता क्योंकि उसका नाम बताना, उसे तुम लोगों के कब्जे में दे देना है।

सभापति : आखिर हम लोगों को कैसे विश्वास हो कि जो कुछ तुमने कहा वह सब सच हैं?

पिता : अगर मेरे कहने का विश्वास हो तो मुझे अपनी सभा का सभासद बना लो, फिर जो कुछ कहोगे खुशी से करूँगा, अगर विश्वास न हो तो मुझे मारकर बखेड़ा तै करो, फिर देखो कि मेरे पीछे तुम लोगों की क्या दुर्दशा होती है?

इन्दिरा ने दोनों कुमारों से कहा, ‘‘मेरे पिता से और उस सभा के सभापति से बड़ी देर तक बातें होती रहीं और पिता ने उसे अपनी बातों में ऐसा लपेटा कि उसकी अक्ल चकरा गयी तथा उसे विश्वास हो गया कि इन्द्रदेव ने जोकुछ कहा है, वह सच है। आखिर सभापति ने उठकर अपने हाथों से मेरे पिता की मुश्कें खोली, मेरी माँ को भी छुट्टी दिलायी और मेरे पिता को अपने पास बैठाकर कुछ कहा ही चाहता था कि मकान के बाहर दरवाजे पर किसी के चिल्लाने की आवाज आयी, मगर वह आवाज एक बार से ज्यादे सुनायी न दी, और जबतक सभापति किसी को बाहर जाकर दरियाफ्त करने की आज्ञा दें, तब तक हाथों में नंगी तलवारे लिये हुए पाँच आदमी धड़धड़ाते हुए उस सभा के बीच आ पहुँचे। उन पाँचों की सूरतें बड़ी ही भयानक थीं और उनकी पोशाकें ऐसी थीं कि इन पर तलवार कोई काम नहीं करती थी, अर्थात् फौलादी कवच पहिरकर उन लोगों ने अपने को बहुत मजबूत बनाया था। चेहरे सभों के सिन्दूर से रँगे हुए थे और कपड़ों पर खून के छींटे भी पड़े हुए थे, जिससे मालूम होता था कि दरवाजे पर पहरा देने वालों को मारकर, वे लोग यहाँ तक आये हैं। उन पाँचों में एक आदमी जो सबके आगे था बड़ा ही फुर्तीला और हिम्मतवर मालूम होता था। उसने तेजी के साथ आगे बढ़कर उस कलमदान को उठा लिया, जो मेरे नाना साहब ने मेरी माँ को दिया था। इतने ही में इस सभा के जितने सभासद थे, सब तलवारें खैंचकर उठ खड़े हुए और घमासान लड़ाई होने लगी। उस समय मौका देखकर मेरे पिता ने मेरी माँ को उठा लिया और हर तरह से बचाते हुए मकान के बाहर निकल गये। उधर उन पाँचों भयानक आदमियों ने उस सभा की अच्छी तरह मट्टी पलीद की और चार सभासदों की जान और कलमदान लेकर राजी-खुशी के साथ चले गये। उस समय यदि मेरे पिता चाहते तो उन पाँचों बहादुरों से मुलाकात कर सकते थे, क्योंकि वे लोग उनके देखते-देखते पास ही से भागकर निकल गये थे, मगर मेरे पिता ने जानबूझकर अपने को इसलिए छिपा लिया था कि कहीं वे लोग हमें भी तकलीफ न दें। जब वे लोग देखते-देखते दूर निकल गये, तब वे मेरी माँ का हाथ थामे हुए तेजी के साथ चल पड़े। उस समय उन्हें मालूम हुआ कि हम जमानिया की सरहद के बाहर नहीं हैं।

इन्द्रजीत : (ताज्जुब से) क्या कहा? जमानिया की सरहद के बाहर नहीं है!!

इन्दिरा : जी हाँ, वे लोग जमानिया शहर के बाहर थोड़ी ही दूर पर एक बहुत बड़े और पुराने मकान के अन्दर यह कमेटी किया करते थे, और जिसे गिरफ्तार करते थे, उसे धोखा देने की नीयत से व्यर्थ ही दस-बीस कोस का चक्कर दिलाते थे, जिससे मालूम हो कि यह कमेटी किसी दूसरे ही शहर में है।

गोपाल : और हमारे दरबार ही के बहुत से आदमी उस कमेटी में शरीक थे, इसी सबब से उसका पता न लगता था, क्योंकि जो तहकीकात करनेवाले थे, वे ही कमेटी करने वाले थे।

इन्द्रजीत : (इन्दिरा से) अच्छा तब?

इन्दिरा : मेरे पिता दो घण्टे के अन्दर ही राजमहल में जा पहुँचे राजा साहब ने पहरेवालों को आज्ञा दे रक्खी थी कि इन्द्रदेव जिस समय चाहें हमारे पास चले आवें, कोई रोक-टोक न करने पाये, अतएव मेरे पिता सीधे राजा साहब के पास जा पहुँचे, जो गहरी नींद में बेखबर सोये हुए थे और चार आदमी उनके पलँग के चारों तरफ घूम-घूमकर पहरा दे रहे थे। पिता ने राजा साहब को उठाया और पहरेवालों को अलग कर देने बाद अपना हाल कह सुनाया। यह जानकर राजा साहब को बड़ा ही ताज्जुब हुआ कि कमेटी इसी शहर में है। उन्होंने मेरे पिता से या मेरी माँ से खुलासा हाल पूछने में विलम्ब करना उचित न जाना और माँ को हिफाजत के साथ महल के अन्दर भेजने के बाद, कपड़े पहिनकर तैयार हो गये, खूँटी से लटकती हुई तिलिस्मी तलवार ली और मेरे पिता तथा और कई सिपाहियों को साथ ले जिसमें कमेटी हुआ करती थी। वह किसी जमाने का बहुत पुराना मकान था, जो आधे से ज्यादे गिरकर बरबाद हो चुका था, फिर भी उसके कई कमरे और दालान दुरुस्त और काम देने लायक थे। उस मकान के चारों तरफ टूटे-फूटे और भी कई मकान थे, जिनमें कभी किसी भले आदमी का जाना नहीं होता था*। जिस कमरे में कमेटी होती थी जब गये तो उसी तरह पर सजा हुआ पाया, जैसा राजा साहब और मेरे पिता देख चुके थे। कन्दीलों में रोशनी हो रही थी, फर्क इतना ही था कि फर्श पर तीन लाशें पड़ी हुई थीं, फर्श खून से तरबतर हो रहा था और दीवारों पर खून की छींटे पड़े हुए थे। जब लाशों के चेहरों पर से नकाब हटाया गया तो राजा साहब को बड़ा ही ताज्जुब हुआ। (* चन्द्रकान्ता सन्तति, आठवें भाग के छठे बयान में, इसी पुरानी आबादी और टूटे-फूटे मकानों का हाल लिखा गया है।)

इन्द्रजीत : वे लोग भी जान पहिचान के होंगे जो मारे गये थे।

गोपाल : जी हाँ, एक तो मेरा वही खिदमतगार था, जिसने मुझे धोखा दिया था, दूसरा दामोदरसिंह का नौकर रामप्यारे था, जिसने मुझे गंगा किनारे ले जाकर फँसाया था, परन्तु तीसरे लाश को देखकर मेरे आश्चर्य रंज और क्रोध का अन्त न रहा, क्योंकि वह मेरे खजानची साहब थे, जिन्हें मैं बहुत नेक, ईमानदार, सूधा और बुद्धिमान समझता था। आप लोगों को इन्दिरा का कुल हाल सुन जाने पर मालूम होगा कि कमबख्त दारोगा ही इस सभा का मुखिया था, मगर अफसोस उस समय मुझे इस बात का गुमान तक न हुआ। जब मैं वहाँ की कुल चीजों को लूटकर और उन लाशों को उठवाकर घर आया तो सवेरा हो चुका था और शहर में इस बात की खबर अच्छी तरह फैल चुकी थी, क्योंकि मुझे बहुत से आदमियों को लेकर जाते हुए सैकड़ों आदमियों ने देखा था और जब मैं लौटकर आया तो दरवाजे पर कम-से-कम पाँच सौ आदमी उन लाशों को देखने के लिए जमा हो गये थे। उस समय मैंने बेईमान और विश्वासघाती दारोगा को बुलाने के लिए आदमी भेजा, मगर उस आदमी ने वापस आकर कहा कि दारोगा साहब छत पर गिर जख्मी हो गये हैं, सर फट गया है और उठने लायक नहीं है। मैंने उस बात को सच मान लिया था, लेकिन वास्तव में दारोगा भी उस सभा में जख्मी हुआ था, जिसमें खजानची ने जान दी थी। मगर अफसोस मेरी किस्मत में तो तरह-तरह की तकलीफें बदी हुईं थी, मैं उस दुष्ट की तरफ से क्योंकर होशियार होता (इन्दिरा से) खैर, तुम आगे का हाल कहो, यह सब तुम्हारी ही जुबानी से अच्छा मालूम होता है।

इन्दिरा : हाँ, तो अब मैं संक्षेप में इस किस्से को बयान करती हूँ तीनों लाशें ठिकाने पहुँचा दी गयी और राजा साहब मेरे पिता का हाथ थामे यह कहते हुए महल के अन्दर चले कि ‘चलो सर्यू से पूछें कि वह क्योंकर उन दुष्टों के फन्दे में फँस गयी थी, और उस सभा में कौन-कौन आदमी शरीक थे, शायद उसने सभों को बिना नकाब के देखा हो’। मगर जब महल में गये तो मालूम हुआ कि सर्यू यहाँ आयी ही नहीं। यह सुनते ही राजा साहब घबड़ा गये और बोल उठे, ‘‘क्या हमारे यहाँ के सभी आदमी उस कमेटी से मिले हुए थे!’’

गोपाल : उस समय तो मैं पागल-सा हो गया था, कुछ भी अक्ल काम नहीं करती थी और यह किसी तरह मालूम नहीं होता था कि हमारे यहाँ कितने आदमी विश्वास करने योग्य हैं, और कितने उस कमेटी से मिले हुए हैं। जिन तीन विश्वासी आदमियों के साथ मैंने सर्यू को महल में भेजा था, वे तीनों आदमी भी गायब हो गये थे। मुझे विश्वास हो गया था कि मेरी और इन्द्रदेव की जान भी न बचेगी, मगर वाह रे इन्द्रदेव, उसने अपने दिल को खूब ही सम्हाला और बड़ी मुस्तैदी और बुद्धिमानी से महीने-भर के अन्दर बहुत से आदमियों का पता लगाया, जो मेरे ही नौकर होकर उस कमेटी में शरीक थे और मैंने उन सभों को तोप के आगे रखकर उड़वा दिया, और सच तो यों ही कि दिन के वह गुप्त कमेटी टूट गयी और फिर कायम नहीं हुई।

इन्दिरा : जिस समय मेरे पिता को मालूम हुआ कि मेरी माँ महल के अन्दर नहीं पहुँची, बीच ही में गायब हो गयी, उस समय उन्हें बड़ा ही रंज हुआ और वे अपने घर जाने के लिए तैयार हो गये। उन्होंने राजा साहब से कहा कि मैं पहिले घर जाकर यह मालूम किया चाहता हूँ कि वहाँ से केवल मेरी स्त्री ही को दुश्मन लोग ले गये या मेरी लड़की इन्दिरा को भी। मगर मेरे पिता घर की तरफ न जा सके, क्योंकि उसी समय घर से एक दूत आ पहुँचा और उसने इत्तिला दी कि सर्यू और इन्दिरा दोनों यकायक गायब हो गयीं। इस खबर को सुनकर मेरे पिता और भी उदास हो गये फिर भी उन्होंने बड़ी कारीगरी से दुश्मनों का पता लगाना आरम्भ किया, और बहुतों को पकड़ा भी, जैसा कि अभी राजा साहब कह चुके हैं।

इन्द्रजीत : क्या तुम दोनों को दुश्मनों ने गिरफ्तार कर लिया था?

इन्दिरा : जी हाँ।

आनन्द : अच्छा तो पहिले अपना और अपनी माँ का हाल कहो कि किस तरह दुश्मनों के फन्दे में फँस गयीं?

इन्दिरा : जो आज्ञा। यह तो मैं कह चुकी हूँ कि मेरे पिता जब जमानिया में आये तो अपने दो ऐयारों को साथ लाये थे, जो दुश्मनों का पता लगाते-ही-लगाते गायब हो गये थे।

इन्द्रजीत : हाँ, कह चुकी हो, अच्छा तब?

इन्दिरा : इन्हीं दोनों ऐयारों की सूरत बन दुश्मनों ने हम लोगों को धोखा दिया।

इन्द्रजीत : दुश्मन उस मकान के अन्दर गये कैसे? तुम-कह चुकी हो कि वहाँ का रास्ता बहुत टेढ़ा और गुप्त है?

इन्दिरा : ठीक है, कमबख्त दारोगा उस रास्ते का हाल बखूबी जानता था और वही उस कमेटी का मुखिया था, ताज्जुब नहीं कि उसी ने उन आदमियों को भेजा हो।

इन्द्रजीत : ठीक है, निःसन्देह ऐसा ही होगा, अच्छा तब क्या हुआ? उन्होंने क्योंकर तुम लोगों को धोखा दिया।

इन्दिरा : सन्ध्या का समय था, जब मैं अपनी माँ के साथ उस छोटे से नजरबाग में टहल रही थी, जो बंगले के बगल ही में था। यकायक मेरे पिता के वे ही दोनों ऐयार वहाँ आ पहुँचे, जिन्हें देख मेरी माँ बहुत खुश हुई, और देर तक जमानिया का हालचाल पूछती रही। उन ऐयारों ने बयान किया कि इन्द्रदेव ने तुम दोनों को जमानिया बुलाया है। हम लोग रथ लेकर आये हैं, मगर साथ ही इसके उन्होंने यह भी कहा कि यदि वे खुशी से आना चाहें तो ले आना नहीं तो लौट आना’। मेरी माँ को जमानिया पहुँचकर अपनी माँ को देखने की बहुत ही लालसा थी, वह कब देर करने लगी थी, तुरन्त ही राजी हो गयी और घण्टे-भर के अन्दर ही सब तैयारी कर ली। ऐयार लोग मातबर समझे ही जातें है। अस्तु, ज्यादे खोज करने को कोई आवश्यकता न समझी, केवल दो लौंडियों को और मुझे साथ लेकर चल पड़ीं, कलमदान भी साथ ले लिया। हमारे दूसरे ऐयारों ने भी कुछ मना न किया, क्योंकि वे भी धोखे में पड़ गये थे और उन ऐयारों को सच्चा समझ बैठे थे। आखिर हम लोग खोह के बाहर निकले और पहाड़ी के नीचे उतरने की नियत से थोड़ी ही दूर आगे बढ़े थे कि चारों तरफ से दस-पन्द्रह दुश्मनों ने घेर लिया। अब उन ऐयारों ने भी रंगत पलटी, मुझे और मेरी माँ को जबर्दस्ती बेहोशी की दवा सुँघा दी। हम दोनों तुरंत ही बेहोश हो गये, मैं नहीं कह सकती कि दोनों लौंडियों की क्या दुर्दशा हुई, मगर जब मैं होश में आयी तो अपने को एक तहखाने में कैद पाया, और अपनी माँ को अपने पास देखा, जो मेरे पहिले ही होश में आ चुकी थी, और मेरा सर गोद में लेकर रो रही थी। हम लोगों के हाथ-पैर खुले हुए थे, जिस कोठरी में हम लोग कैद थे, वह लम्बी-चौड़ी थी और सामने की तरफ दरवाजे की जगह लोहे का जंगला पड़ा हुआ था। जंगले के बाहर दालान था और उसमें एक तरफ चढ़ने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई थीं, तथा सीढ़ी के बगल में एक आले के ऊपर चिराग जल रहा था। मैं पहिले बयान कर चुकी हूँ कि उन दिनों जाड़े का मौसम था, इसलिए हम लोगों को गर्मी की तकलीफ न थी। जब मैं होश में आयी, मेरी माँ ने रोना बन्द किया और मुझे बड़ी देर तक धीरज और दिलासा देने बाद बोली, ‘‘बेटी, अगर कोई तुझसे उस कलमदान के बारे में कुछ पूछे तो कह दीजियो कि कलमदान खोला जा चुका है, मगर मैं उसके अन्दर का हाल नहीं जानती। हाँ, मेरी माँ तथा और भी कई आदमी उसका भेद जान चुकें हैं। अगर उन आदमियों का नाम पूछें तो कह दीजियो कि मैं नाम नहीं जानती मेरी माँ को मालूम होगा।’’ मैं यद्यपि लड़की थी, मगर समझ-बूझ बहुत थी, और उस बात को मेरी माँ ने कई दफे अच्छी तरह समझा दिया था। मेरी माँ ने कलमदान के विषय में ऐसा कहने के लिए मुझसे क्यों कहा, सो मैं नहीं जानती, शायद उससे और दुष्टों से पहिले कुछ बातचीत हो चुकी हो, मगर मुझे जो कुछ माँ ने कहा था, उसे मैंने अच्छी तरह निबाहा। थोड़ी देर बाद पाँच आदमी उसी सीढ़ी की राह से घड़धड़ाते हुए नीचे उतर आये और मेरी माँ को जबर्दस्ती ऊपर ले गये। मैं जोर-जोर से रोती और चिल्लाती रह गयी, मगर उन लोगों ने मेरा कुछ भी खयाल न किया और अपना काम करके चले गये।

मैं उन लोगों की सूरत-शक्ल के बारे में कुछ नहीं कह सकती, क्योंकि वे लोग नकाब से अपने चेहरे छिपाये हुए थे। थोड़ी देर बाद फिर एक नकाबपोश मेरे पास आया, जिसके कपड़े और कद का खयाल करके मैं कह सकती हूँ कि वह उन लोगों में से नहीं था, जो मेरी माँ को ले गये थे, बल्कि कोई दूसरा ही आदमी था। वह नकोबपोश मेरे पास बैठ गया और मुझे धीरज और दिलासा देता हुआ कहने लगा कि मैं तुझे इस कैद से छुड़ाऊँगा’। मुझे उसकी बातों पर विश्वास हो गया और इसके बाद वह मुझसे बातचीत करने लगा।

नकाबपोश : क्या तुझे वह कलमदान के अन्दर का हाल पूरा-पूरा मालूम है?

मैं : नहीं।

नकाबपोश : क्या तेरे सामने कलमदान खोला नहीं गया था?

मैं : खोला गया था, मगर उसका हाल मुझे नहीं मालूम। हाँ, मेरी माँ तथा और कई आदमियों को मालूम है, जिन्हें मेरे पिता ने दिखाया था।

नकाबपोश : उन आदमियों के नाम तू जानती है?

मैं : नहीं?

उसने कई दफे कई तरह से उलट-फेरकर पूछा, मगर मैंने अपनी बातों में फर्क न डाला, और तब मैंने उससे अपनी माँ का हाल पूछा, लेकिन उसने कुछ भी न बताया और मेरे पास से उठकर चला गया। मुझे खूब याद है। कि उसके दो पहर बाद मैं जब प्यास के मारे बहुत दुःखी हो रही थी, तब फिर एक आदमी मेरे पास आया। वह भी अपने चेहरे को नकाब से छिपाये हुए था। मैं डरी और समझी फिर उन्हीं कमबख्तों में से कोई मुझे सताने के लिए आया है, मगर वह वास्तव में गदाधरसिंह थे, और मुझे उस कैद से छुड़ाने के लिए आये थे। यद्यपि मुझे उस समय यह खयाल हुआ कि कहीं यह भी उन ऐयारों की तरह मुझे धोखा नहीं देते हों, जिनकी बदौलत मैं घर से निकलकर कैदखाने में पहुँची थी, मगर नहीं, वे वास्तव में गदाधरसिंह ही थे और उन्हें मैं अच्छी तरह पहिचानती थी। उन्होंने मुझे गोद में उठा लिया और तहखाने के ऊपर निकल कई पेंचीले रास्तों में घूमते-फिरते मैदान में पहुँचे। वहाँ उनके दो आदमी एक घोड़ा लिये तैयार थे। गदाधरसिंह मुझे लेकर घोड़े पर सवार हो गये, अपने आदमियों को ऐयारी भाषा में कुछ कहकर बिदा किया, और खुद एक तरफ रवाना हो गये। उस समय रात बहुत कम बाकी थी, और सवेरा हुआ चाहता था। रास्ते में मैंने उनसे अपनी माँ का हाल पूछा, उन्होंने उसका कुछ हाल अर्थात् मेरी माँ का उस सभा में पहुँचना, मेरा पिता का भी कैद होकर वहाँ जाना, कलमदान की लूट तथा मेरे पिता का अपनी स्त्री को लेकर निकल जाना बयान किया, और यह भी कहा कि कलमदान को लूटकर ले भागनेवाले का पता नहीं लगा। लगभग चार-पाँच कोस चले जाने के बाद, वे एक छोटी सी नदी के किनारे पहुँचे, जिसमें घुटने के बराबर से ज्यादे जल न था। उस जगह गदाधरसिंह घोड़े के नीचे उतरे और मुझे भी उतारा खुर्जी से कुछ मेवा निकालकर मुझे खाने को दिया। मैं उस समय बहुत भूखी थी। अस्तु, मेवा खाकर पानी पिया, उसके बाद वह फिर मुझे लेकर घोड़े पर सवार हुए और नदी पार होकर एक तरफ को चल निकले। दो घण्टे तक घोड़े को धीरे-धीरे चलाया और फिर तेज किया। दो पहर दिन के समय हम लोग एक पहाड़ी के पास पहुँचे, जहाँ बहुत ही गुंजान जंगल था और गदाधरसिंह के चार-पाँच आदमी भी वहाँ मौजूद थे। हम लोगों के पहुँचते ही गदाधरसिंह के आदमियों ने जमीन पर कम्बल बिछा दिया, कोई पानी लेने के लिए चला गया, कोई घोड़े को ठण्डा करने लगा और कोई रसोई बनाने की धुन में लगा, क्योंकि चावल-दाल इत्यादि उन आदमियों के पास मौजूद था। गदाधरसिंह भी मेरे पास बैठ गये और अपने बटुए में से कागज, कलम, दावात निकालकर कुछ लिखने लगे। मेरे देखते-ही-देखते तीन-चार घण्टे तक गदाधरसिंह ने बटुए में से कोई कई कागजों को निकालकर पढ़ा और उनकी नकल की, तब तक रसोई भी तैयार हो गयी। हम लोगों ने भोजन किया और जब बिछावन पर आकर बैठे तो गदाधरसिंह ने फिर कागजों को देखना और नकल करना शुरू किया। मैं रात-भर की जगी हुई थी, इसलिए मुझे नींद आ गयी जब मेरी आँखें खुली तो घण्टे भर रात जा चुकी थी, उस समय गदाधरसिंह फिर मुझे लेकर घोड़े पर सवार हुए और अपने आदमियों को कुछ समझा-बुझाकर रवाना हो गये। दो-तीन घण्टे रात बाकी थी, जब हम लोग लक्ष्मीदेवी के बाप बलभद्रसिंह के मकान पर जा पहुँचे। बलभद्रसिंह और मेरे पिता में बहुत मित्रता थी, इसलिए गदाधरसिंह ने मुझे वहीं पहुँचा देना उत्तम समझा। दरवाजे पर पहुँचने के साथ ही बलभद्रसिंह को इत्तिला करवायी गयी। यद्यपि वे उस समय गहरी नींद में सोये हुए थे, मगर सुनने के साथ ही निकल आये और बड़ी खातिरदारी के साथ मुझे और गदाधरसिंह को घर के अन्दर अपने कमरे में ले गये, जहाँ सिवाय उनके और कोई भी न था। बलभद्रसिंह ने मेरे सर पर हाथ फेरा और बड़े प्यार से अपनी गोद में बैठाकर, गदाधरसिंह से हाल पूछा। गदाधरसिंह ने सब हाल जो मैं बयान कर चुकी हूँ, उनसे कहा और इसके बाद नसीयत की कि इन्दिरा को बड़ी हिफाजत से अपने पास रखिए, जब तक दुश्मनों का अन्त न हो जाय, तब तक इसका प्रकट होना उचित नहीं है, मैं फिर जमानिया जाता हूँ और देखता हूँ कि वहाँ क्या हाल है। इन्द्रदेव से मुलाकात होने पर मैं इन्दिरा को यहाँ पहुँचा देना बयान कर दूँगा। बलभद्रसिंह ने बहुत ही प्रसन्न होकर गदाधरसिंह को धन्यवाद दिया और वे थोड़ी देर तक बातचीत करने बाद सवेरा होने के पहिले वहाँ से रवाना हो  गये। गदाधरसिंह के चले जाने के बाद बलभद्रसिंह जी मुझसे बातचीत करते रहे और सवेरा हो जाने पर मुझे घर के अन्दर ले गये उसकी स्त्री ने मुझे बड़े प्यारे से गोद में ले लिया और लक्ष्मीदेवी ने तो मेरी ऐसी कदर की, जैसी कोई अपनी जान की कदर करता है। मुझे वहाँ बहुत दिनों तक रहना पड़ा था, इसलिए मुझसे और लक्ष्मीदेवी से हद से ज्यादे मुहब्बत हो गयी थी। मैं बड़े आराम से उनके यहाँ रहने लगी। मालूम होता है कि गदाधरसिंह ने जमानिया में जाकर मेरे पिता से मेरा सब हाल कहा, क्योंकि थोड़े ही दिन बाद मेरे पिता मुझे देखने के लिए बलभद्रसिंह के यहाँ आये और उस समय उनकी जुबानी मालूम हुआ कि मेरी माँ पुनः मुसीबत में गिरफ्तार हो गयी, अर्थात महल में पहुँचने के साथ ही गायब हो गयी। मैं अपनी माँ के लिए बहुत रोयी, मगर मेरे पिता ने मुझे दिलासा दिया। केवल एक दिन रहके मेरे पिता, जमानिया की तरफ चले गये और मुझे वहाँ ही छोड़ गये।

मैं कह चुकी हूँ कि मुझसे और लक्ष्मीदेवी से बड़ी मुहब्बत हो गयी थी इसलिए मैंने अपना नाना साहब और उस कलमदान का कुल हाल उससे कह दिया था और यह भी कह दिया था कि उस कलमदान पर तीन तस्वीरें बनी हुई हैं दो को तो मैं नहीं जानती, मगर बिचली तस्वीर मेरी है और उसके नीचे मेरा नाम लिखा हुआ है।

 जमानिया जाकर मेरे पिता ने क्या-क्या काम किया सो मैं नहीं कह सकती, परन्तु यह अवश्य सुनने में आया था कि उन्होंने बड़ी चालाकी और ऐयारी से उन कमेटीवालों का पता लगाया और राजा साहब ने उस सभों को प्राणदण्ड दिया।

गोपाल : निःसन्देह उन दुष्टों का पता लगाना इन्द्रदेव ही का काम था। जैसी-जैसी ऐयारियाँ इन्द्रदेव ने कीं वैसी कम ऐयारों को सूझेंगी। अफसोस उस समय वह कलमदान हाथ न आया नहीं तो सहज ही में सब दुष्टों का पता लग जाता, और यही सबब था कि दुष्टों की सूची में दारोगा, हेलासिंह या जैपालसिंह का नाम न चढ़ा और वास्तव में ये ही तीनों इस कमेटी के मुखिया थे, जो मेरे हाथ से बच गये और फिर उन्हीं की बदौलत मैं गारत हुआ।

इन्द्रजीत : ताज्जुब नहीं कि दारोगा के बारे में इन्द्रदेव ने सुस्ती कर दी हो और गुरुभाई का मुलाहिजा कर गये हों।

गोपाल : हो सकता है।

आनन्द : (इन्दिरा से) क्या उस कलमदान के अन्दर का हाल तुम्हें भी मालूम न था?

इन्दिरा : जी नहीं, अगर मुझे मालूम होता तो ये तीनों दुष्टों क्या बचने पाते? हाँ मेरी माँ उस कलमदान को खोल चुकी थी और उसे उसके अन्दर का हाल मालूम था, मगर वह तो गिरफ्तार ही कर ली गयी थी, फिर उन भेदों को खोलता कौन?

आनन्द : आखिर उस कलमदान के अन्दर का हाल तुम्हें कब मालूम हुआ?

इन्दिरा : अभी थोड़े ही दिन हुए, जब मैं कैदखाने में अपनी माँ के पास पहुँची तो उसने उस कलमदान का भेद बताया था।

आनन्द : मगर फिर उस कलमदान का पता न लगा?

इन्दिरा : जी नहीं, उसके बाद आज तक उस कलमदान का हाल मुझे मालूम न हुआ, मैं नहीं कह सकती कि उसे कौन ले गया या वह क्या हुआ। हाँ, इस समय राजा साहब की जुबानी सुनने में आया है कि वही कलमदान कृष्णाजिन्न ने राजा बीरेन्द्रसिंह के दरबार में पेश किया था।

गोपाल : उस कलमदान का हाल मैं जानता हूँ। सच तो यह है कि सारा बखेड़ा उस कलमदान ही के सबब से हुआ। यदि वह कलमदान मुझे या इन्द्रदेव को उस समय मिल जाता तो लक्ष्मीदेवी की जगह मुन्दर मेरे घर न आती और मुन्दर तथा दारोगा की बदौलत मेरी गिनती मुर्दों में न होती और न भूतनाथ ही पर आज इतने जुर्म लगाये जाते। वास्तव में उस कलमदान को गदाधरसिंह ही ने उन दुष्टों की सभा में से लूट लिया था, जो आज भूतनाथ के नाम से मशहूर है। इसमें कोई शक नहीं कि उसने इन्दिरा की जान बचायी, मगर कलमदान को छिपा गया और उसका हाल किसी से न कहा। बड़े लोगों ने सच कहा है कि ‘‘विशेष लोभ आदमी को चौपट कर देता है’। वही हाल भूतनाथ का हुआ। पहिले भूतनाथ बहुत नेक और ईमानदार था, और आजकल भी वह अच्छी राह पर चल रहा है, मगर बीच में थोड़े दिनों तक उसके ईमान में फर्क पड़ गया था, जिसके लिए आज वह अफसोस कर रहा है। आप इन्दिरा का और हाल सुन लीजिए फिर कलमदान का भेद, मैं आपसे बयान करूँगा।

इन्द्रजीत : जो आज्ञा (इन्दिरा से) अच्छा तुम अपना हाल कहो कि बलभद्रसिंह के यहाँ जाने बाद फिर तुम पर क्या बीती?

इन्दिरा : मैं बहुत दिनों तक उनके यहाँ आराम से अपने को छिपाये हुए बैठी रही मेरे पिता कभी-कभी वहाँ जाकर मुझ से मिल आया करते थे। यह मैं नहीं कह सकती कि मुझे बलभद्रसिंह के यहाँ क्यों छोड़ रक्खा था। जब बहुत दिनों के बाद लक्ष्मीदेवी की शादी का दिन आया, और बलभद्रसिंह लक्ष्मीदेवी को लेकर यहाँ आये, तो मैं भी उनके साथ आयी। (गोपालसिंह की तरफ इशारा करके) आपने जब मेरे आने की खबर सुनी तो मुझे अपने यहाँ बुलावा भेजा। अस्तु, मैं लक्ष्मीदेवी को जो दूसरी जगह टिकी हुई थी छोड़कर राजमहल में चली आयी। राजमहल में चले आना ही मेरे लिए काल हो गया, क्योंकि दारोगा ने मुझे देख लिया और अपने पिता तथा राजा साहब की तरह, मैं भी दारोगा की तरफ से बेफिक्र थी। इस शादी में मेरे पिता मौजूद न थे। मुझे इस बात का ताज्जुब हुआ, मगर जब राजा साहब से मैंने पूछा तो मालूम हुआ कि वे बीमार है, इसलिए नहीं आये, जिस दिन मैं राजमहल में आयी, उसी दिन रात को लक्ष्मीदेवी की शादी थी। शादी हो जाने पर सवेरे जब मैंने लक्ष्मीदेवी की सूरत देखी तो मेरा कलेजा धक से हो गया, क्योंकि लक्ष्मीदेवी के बदले मैंने किसी दूसरी औरत को घर में पाया। हाय, उस समय मेरे दिल की जो हालत थी, मैं बयान नहीं कर सकती। मैं घबरायी हुई बाहर की तरफ दौ़ड़ी, जिसमें राजा साहब को इस की खबर दूँ और उनसे इसका सबब पूछूँ। राजा साहब जिस कमरे में थे, उसका रास्ता जनाने महल में मिला हुआ था, अतएव मैं भीतर-ही-भीतर उस कमरे में चली गयी, मगर वहाँ राजा साहब के बदले दारोगा को बैठे हुए पाया। मेरी सूरत देखते ही एक दफे दारोगा के चेहरे का रंग उड़ गया, मगर तुरत ही उसने अपने को सम्हालकर मुझसे पूछा, ‘‘क्यों इन्दिरा क्या हाल है? तू इतने दिनो तक कहाँ  थी?’’ मुझे उस चाण्डाल की तरफ से कुछ भी शक न था उसलिए मैं उसी से पूछ बैठी की लक्ष्मीदेवी के बदले में मैं किसी दूसरी औरत को देखती हूँ, इसका क्या सबब है। यह सुनते ही दारोगा घबड़ा उठा और बोला, ‘‘नहीं नहीं, तूने वास्तव में किसी दूसरे को देखा होगा लक्ष्मीदेवी तो उस बाग वाले कमरे में है। चल, मैं तुझे उसके पास पहुँचा आऊँ! ’’ मैंने खुश होकर कहा कि चलो पहुँचा दो! दारोगा झट उठ खड़ा हुआ और मुझे साथ, लेकर भीतर-ही-भीतर बागवाले कमरे की तरफ चला। वह रास्ता बिल्कुल एकान्त था। थोड़ी ही दूर जाकर दारोगा ने एक कपड़ा मेरे मुँह पर डाल दिया। ओह, उसमें किसी प्रकार की महक आ रही थी, जिसके सबब दो तीन दफे से ज्यादे मैं साँस न ले सकी और बेहोश हो गयी। फिर मुझे कुछ भी खबर न रही कि दुनिया के परदे पर क्या हुआ या क्या हो रहा है।

गोपाल : इन्दिरा की कथा के सम्बन्ध में गदाधरसिंह (भूतनाथ) का हाल छूटा जाता है, क्योंकि इन्दिरा उस विषय में कुछ भी नहीं जानती, इसलिए बयान नहीं कर सकती, मगर बिना उसका हाल जाने किस्से का सिलसिला ठीक न होगा, इसलिए मैं स्वयं गदाधरसिंह का हाल बीच ही में बयान कर देना उचित समझता हूँ।

इन्द्रजीत : उस गुप्त सभा में यकायक पहुँचकर कलमदान को लूटनेवाला वही गदाधरसिंह था। उसने कलमदान को खोल डाला और उसके अन्दर जो कुछ कागजात थे, उन्हें अच्छी तरह पढ़ा। उसमें एक तो वसीयतनामा था, जो दामोदरसिंह ने इन्दिरा के नाम लिखा था, और उसने अपनी कुल जायदाद का मालिक इन्दिरा को ही बनाया था। इसके अतिरिक्त और सब कागज उसी गुप्त कमेटी के और सब सभासदों के नाम लिखे हुए थे, साथ ही इसके एक कागज दामोदरसिंह ने अपनी तरफ से उस कमेटी के विषय में लिखकर रख दिया था, जिसके पढ़ने से मालूम हुआ कि दामोदरसिंह उस सभा के मन्त्री थे, दामोदरसिंह के खयाल से वह सभा अच्छे कामों के लिए स्थापित हुई थी, और उन आदमियों को सजा देना उसका काम था, जिन्हें मेरे पिता दोष साबित होने पर भी प्राणदण्ड न देकर केवल अपने राज्य से निकाल दिया करते थे, और ऐसा करने से रिआया में नाराजी फैलती जाती थी। कुछ दिनों बाद उस सभा में बेईमानी शुरू हो गयी, और उसके सभासद लोग उसके जरिये से रुपया पैदा करने लगे, तभी दामोदरसिंह को भी उस सभा से घृणा हो गयी, परन्तु नियामानुसार वह उन सभासदों को छोड़ नहीं सकते थे, और छोड़ देने पर उसी सभा द्वारा प्राण जाने का भय था। एक दिन दारोगा ने सभामें प्रस्ताव किया कि बड़े महाराज को मार डालना चाहिए। इस प्रस्ताव का दामोदरसिंह ने अच्छी तरह खण्डन किया, मगर दारोगा की बात सबसे भारी समझी जाती थी, इस लिए दामोदरसिंह की किसी ने भी न सुनी और बड़े महाराज को मारना निश्चय हो गया। ऐसा करने में दारोगा और रघुवरसिंह का फायदा था, क्योंकि वे दोनों आदमी लक्ष्मीदेवी के बदले में हेलासिंह की लड़की मुन्दर के साथ मेरी शादी कराया चाहते थे, और बड़े महाराज के रहते यह बात बिल्कुल असम्भव थी। आखिर दामोदरसिंह ने अपनी जान का कुछ खयाल न किया और सभा सम्बन्धी मुख्य कागज और सभा के सभासदों (मेम्बरों) का नाम तथा अपना वसीयतनामा लिखकर कलमदान में बन्द किया और कलमदान अपनी लड़की के हवाले कर दिया, जैसाकि आप इन्दिरा की जुबानी सुन चुके हैं। जब गदाधरसिंह को सभा का कुल हाल, जितने आदमियों को सभा मार चुकी थी, उनके नाम और सभा के मेम्बरों के नाम मालूम हो गये, तब उसे लालच ने घेरा और उसने सभा के सभासदों से रुपये वसूल करने का इरादा किया। कलमदान में जितने कागज थे, उसने सभों की नकल ले ली और असल कागज तथा कलमदान कहीं छिपाकर रख आया। इसके बाद गदाधरसिंह दारोगा के पास गया और उससे एकान्त में मुलाकात करके बोला कि तुम्हारी गुप्त सभा का हाल अब खुला चाहता है और तुम लोग जहन्नुम में पहुँचा चाहते हो, वह दामोदरसिंह वाला कलमदान तुम्हारी सभा से लूट ले जानेवाला मैं ही हूँ, और मैंने उस कलमदान के अन्दर का बिल्कुल हाल जान लिया। अब वह कलमदान मैं तुम्हारे राजा साहब के हाथ में देने के लिए तैयार हूँ। अगर तुम्हें विश्वास न हो तो इन कागजों को देखो, जो मैं अपने हाथ से नकल करके, तुम्हें दिखाने के लिए ले आया हूँ।

इतना कहकर गदाधरसिंह ने वे कागज दारोगा के सामने फेंक दिये। दारोगा के तो होश उड़ गये और मौत भायनक रूप से उसकी आँखों के सामने नाचने लगी। उसने चाहा कि किसी तरह गदाधरसिंह को खपा (मार) डाले, मगर यह बात असम्भव थी, क्योंकि गदाधरसिंह बहुत ही काँइयाँ और हर तरह से होशियार तथा चौकन्ना था, अतएव सिवाय उसे राजी करने के दारोगा को और कोई बात न सूझी। आखिर बीस हजार अशर्फी चार रोज के अन्दर दे देने के वादे पर दारोगा ने अपनी जान बचायी और कलमदान भूतनाथ से माँगा, भूतनाथ ने बीस हजार अशर्फी लेकर दारोगा की जान छोड़ देने का वायदा किया और कलमदान देना भी स्वीकार किया। अस्तु, दारोगा ने उतने ही को गनीमत समझा और चार दिन के बाद बीस हजार अशर्फी गदाधरसिंह को अदा करके आप पूरा कंगाल बन बैठा। इसके बाद गदाधरसिंह ने और मेम्बरों से भी कुछ वसूल किया और कलमदान दारोगा को दे दिया। मगर दारोगा से इस बात का इकरारनामा लिखा लिया कि वह किसी ऐसे काम में शरीक न होगा और न खुद ऐसा काम करेगा, जिसमें इन्द्रदेव, सर्यू, इन्दिरा और मुझ (गोपालसिंह) को किसी तरह का नुकसान पहुँचे। इन सब कामों से छुट्टी पाकर गदाधरसिंह दारोगा से अपने घर के लिए बिदा हुआ, मगर वास्तव में वह फिर भी घर न गया और भेष बदलकर इसलिए जमानिया में घूमने लगा कि रघुबरसिंह के भेदों का पता लगाये जो बलभद्रसिंह के साथ विश्वासधात करनेवाला था। वह फकीर सूरत में रोज रघुबरसिंह के यहाँ आकर नौकर और सिपाहियों में बैठने और हेल-मेल बढ़ाने लगा। थोड़े ही दिनों में उसे मालूम हो गया कि रघुबरसिंह अभी तक हेलासिंह से पत्रव्यवहार करता है, और पत्र ले जाने और ले आने का काम केवल बेनीसिंह करता है, जो रघुबीरसिंह का मातबर सिपाही है। जब एक दफे बेनीसिंह, हेलासिंह के यहाँ गया तो गदाधरसिंह ने उसका पीछा किया और मौका पाकर उसे गिरफ्तार करना चाहा, लेकिन बेनीसिंह इस बात को समझ गया और दोनों में लड़ाई हो गयी। गदाधरसिंह के हाथ से बेनीसिंह मारा गया और गदाधरसिंह बेनीसिंह बनकर रघुबरसिंह के यहाँ रहने तथा हेलासिंह के यहाँ पत्र लेकर जाने और जवाब ले आने लगा। इस हीले से ही कागजों की चोरी करने से थोड़े ही दिनों में रघुबरसिंह का सब भेद उसे मालूम हो गया और तब उसने अपने को रघुबरसिंह पर प्रकट किया, लाचार हो रघुबरसिंह ने भी उसे बहुत सा रुपया देकर अपनी जान बचायी। यह किस्सा बहुत बड़ा है, और इसका पूरा-पूरा हाल मुझे भी मालूम नहीं है, जब भूतनाथ अपना किस्सा आप बयान करेगा, तब पूरा हाल मालूम होगा, फिर भी मतलब यह कि उस कलमदान की बदौलत भूतनाथ ने रुपया भी बहुत पैदा किया और साथ ही नेक काम करने पर भी उसकी जान को अभी तक छुट्टी नहीं मिलती। केवल इतना ही नहीं, जब भूतनाथ असली बलभद्रसिंह का पता लगावेगा, तब और भी कई विचित्र बातों का पता लगे, मैंने तो सिर्फ इन्दिरा के किस्से का सिलसिला बैठाने के लिए बीच ही में इतना बयान कर दिया।

इन्द्रजीत : यह सब हाल आपको कब और कैसे मालूम हुआ?

गोपाल : जब आपने मुझे कैद से छुड़ाया, उसके बाद हाल ही में ये सब बातें मुझे मालूम हुईं हैं, और जिस तरह मालूम हुईं सो अभी कहने का मौका नहीं अब आप इन्दिरा का किस्सा सुनिए, फिर जोकुछ शंका रहेगी उसके मिटाने का उद्योग किया जायगा।

इन्दिरा : जो आज्ञा! दारोगा ने मुझे बेहोश कर दिया और जब मैं होश में आयी तो अपने को एक लम्बे-चौड़े कमरे में पाया। मेरे हाथ-पैर खुले हुए थे और वह कमरा भी बहुत साफ और हवादार था। उसके दो तरफ की दीवार लकड़ी की थी और एक तरफ की ईंट और चूने से बनी हुईं थी। एक दरफ की दीवार में दो दरवाजे थे, और दूसरी तरफ की पक्की दीवार में छोटी-छोटी तीन खिड़कियाँ बनी हुई थीं, जिनमें से हवा बखूबी आ रही थी, मगर वे खिड़कियाँ इतनी ऊँची थीं कि उन तक मेरा हाथ नहीं जा सकता था। बाकी दो तरफ की दीवारों में जो लकड़ी की थीं, तरह तरह की सुन्दर और बड़ी तस्वीरें बनी हुई थीं, और छत में दो रोशनदान थे, जिनमें से सूर्य की चमक आ रही थी, तथा उस कमरे में अच्छी तरह उजाला हो रहा था। एक तरफ की पक्की दीवार में दो दरवाजे थे, उनमें से एक दरवाजा खुला हुआ और दूसरा बन्द था। मैं जब होश में आयी तो अपना सर किसी की गोद में पाया मैं घबड़ाकर उठ बैठी और उस औरत की तरफ देखने लगी, जिसकी गोद में मेरा सर था। वह मेरे ननिहाल की वही दाई थी, जिसने मुझे गोद में खिलाया था और जो मुझे बहुत प्यार करती थी। यद्यपि मैं कैद में थी और माँ-बाप की जुदाई में अधमुई हो रही थी, फिर भी अपनी दाई को देखते ही थोड़ी देर के लिए सब दुःख भूल गयी और ताज्जुब के साथ मैंने उस दाई से पूछा, ‘‘अन्ना तू यहाँ कैसे आयी?’’ क्योंकि मैं उस दाई को अन्ना कहके पुकारा करती थी।

अन्ना : बेटी, मैं यह तो नहीं जानती कि तू यहाँ कब से है, मगर मुझे आये अभी दो घण्टे से ज्यादे नहीं हुए। मुझे कमबख्त दारोगा ने धोखा देकर गिरफ्तार कर लिया और बेहोश करके यहाँ पहुँचा दिया, मगर इस तरह तुझे देखकर, मैं अपना दुःख बिल्कुल भूल गयी, तू अपना हाल तो बता कि यहाँ कैसे आयी?

मैं : मुझे भी कमबख्त दोरागा ही ने बेहोश करके यहाँ पहुँचाया है। राजा गोपालसिंह की शादी हो गयी, मगर जब मैंने अपनी प्यारी लक्ष्मीदेवी के बदले में किसी दूसरी औरत को वहाँ देखा तो घबड़ाकर इसका सबब पूछने के लिए राजा साहब के पास गयी, मगर उनके कमरे में केवल दारोगा बैठा हुआ था, मैं उसी से पूछ बैठी। बस यह सुनते ही वह मेरा दुश्मन हो गया, धोखा देकर मकान की तरफ ले चला और रास्ते में एक कपड़ा मेरे मुँह पर डालकर बेहोश कर दिया। उसके बाद की मुझे कुछ भी खबर नहीं है। दारोगा ने तुझे क्या कहके कैद किया?

अन्ना : मैं एक काम के लिए बाजार में गयी थी। रास्ते में दारोगा का नौकर मिला। उसने कहा कि इन्दिरा दारोगा साहब के घर में आयी है, उसने मुझे बुलाने के लिए भेजा है, और बहुत ताकीद की है कि खड़े-खड़े सुनती जाओ। मैं उसकी बात सच समझ, उसी वक्त दारोगा के घर चली गयी, मगर उस हरामजादे ने मेरे साथ भी बेईमानी की, बेहोशी की दवा मुझे जबर्दस्ती सुँघायी। मैं नहीं कह सकती कि एक घण्टे तक बेहोश रही या एक दिन तक, पर जब मैं यहाँ पहुँची तब मैं होश में आयी, उस समय केवल दारोगा नंगी तलवार लिये सामने खड़ा था। उसने मुझसे कहा, देख तू वास्तव में इन्दिरा के पास पहुँच गयी है। यह लड़की अकेले कैदखाने में रहने योग्य नहीं है, इसलिए तू भी इसके साथ कैद की जाती है और तुझे हुक्म दिया जाता है कि हर तरह इसकी खातिर और तसल्ली करियो और जिस तरह हो इसे खिलाइयो-पिलाइयो। देख उस कोने में खाने-पीने का सब सामान रक्खा है।’’

मैं : मेरी नानी का क्या हाल है? अफसोस, मैं तो उससे मिल भी न सकी और इस आफत में फँस गयी।

अन्ना : तेरी नानी का क्या हाल बताऊँ, वह तो नाम मात्र को जीती है, अब उसका बचना कठिन है।

अन्ना की जुबानी अपनी नानी का हाल सुनके मैं बहुत रोयी, कलपी। अन्ना ने मुझे बहुत समझाया और धीरज दे कर कहा कि ईश्वर का ध्यान कर, उसकी कृपा से हम लोग जरूर इस कैद से छूट जाँयेंगे। मालूम होता है कि दारोगा तेरे जरिये से कोई काम निकालना चाहता है, अगर ऐसा न होता तो वह तुझे मार डालता और तेरी हिफाजत के लिए मुझे यहाँ न लाता। अस्तु, जहाँ तक हो उसका काम पूरा न होने देना चाहिए। खैर, जब वह यहाँ आकर तुझसे कुछ कहे-सुन तो तू मुझ पर टाल दिया कीजियो। फिर जोकुछ होगा मैं समझ लूँगी। अब तू कुछ खा-पी ले, फिर जो कुछ होगा देखा जायगा। अन्ना के समझाने से मैं खाना खाने के लिए तैयार हो गयी। खाने-पीने का सामान सब उस घर में मौजूद था, मैंने भी खाया-पीया, इसके बाद अन्ना के पूछने पर मैंने अपना सब हाल शुरू से आखीर तक उसे कह सुनाया, इतने में शाम हो गयी। मैं कह चुकी हूँ कि उस कमरे की छत में रोशनदान बना हुआ था, जिसमें से रोशनी बखूबी आ रही थी, इसी रोशनदान के सबब से हमलोगों को मालूम हुआ कि सन्ध्या हो गयी। थोड़ी ही देर बाद दरवाजा खोलकर दो आदमी उस कमरे में आये, एक ने चिराग जला दिया और दूसरे ने खाने-पीने का ताजा सामान रख दिया और बासी बचा हुआ उठाकर ले गया। उसने जाने बाद फिर मुझसे और अन्ना से बात-चीत होती रही दो घण्टे के बाद मुझे नींद आ गयी।

इन्द्रजीत : (गोपालसिंह से) इस जगह मुझे एक बात का सन्देह हो रहा है।

गोपाल : वह क्या?

इन्द्रजीत : इन्दिरा लक्ष्मीदेवी को पहिचानती थी, इसलिए दारोगा ने तो उसे गिरफ्तार कर लिया, मगर इन्द्रदेव का उसने क्या बन्दोवस्त किया, क्योंकि लक्ष्मीदेवी को तो इन्द्रदेव भी पहिचानते थे?

गोपाल : इसका सबब शायद यह है कि ब्याह के समय इन्द्रदेव वहाँ मौजूद न थे और उसके बाद भी लक्ष्मीदेवी को देखने का उन्हें मौका न मिला। मालूम होता है कि दारोगा ने इन्द्रदेव से मिलने के बारे में नकली लक्ष्मीदेवी को कुछ समझा दिया था, जिसे वर्षों तक मुन्दर ने इन्द्रदेव के सामने से अपने को बचाया और इन्द्रदेव ने भी इसस बात की कुछ परवाह न की। अपनी स्त्री और लड़की के गम में इन्द्रदेव ऐसा डूबे कि वर्षों बीत जाने  पर भी वह घर से नहीं निकलते थे, इच्छा होने पर कभी-कभी मैं स्वयं उनसे मिलने के लिए जाया करता था। कई वर्ष बीत जाने पर जब मैं कैद हो गया और सभों ने मुझे मरा हुआ जाना तब इन्द्रदेव के खोज करने पर लक्ष्मीदेवी का पता लगा और उसने लक्ष्मीदेवी को कैद से छुड़ाकर अपने पास रक्खा। इन्द्रदेव को भी मेरा मरना निश्चय हो गया था, इसलिए मुन्दर के विषय में उन्होंने ज्यादे बखेड़ा उठाना व्यर्थ समझा और दुश्मनों से बदला लेने के लिए लक्ष्मीदेवी को तैयार किया। कैद से छूटने के बाद मैं खुद इन्द्रदेव से मिलने के लिए गुप्त रीति से गया था, तब उन्होंने लक्ष्मीदेवी का हाल मुझसे कहा था।

इन्द्रजीत : इन्द्रदेव ने लक्ष्मीदेवी को कैद से क्योंकर छुड़ाया था, और उस विषय में क्या किया सो मालूम न हुआ।

राजा गोपालसिंह ने लक्ष्मीदेवी का हाल जो हम ऊपर लिख आये हैं बयान किया और बाद इसके फिर इन्दिरा ने अपना किस्सा कहना शुरू किया।

इन्दिरा : उसी दिन, आधी रात के समय जब मैं सोयी हुई थी और अन्ना भी मेरे बगल में लेटी हुई थी, यकायक इस तरह की आवाज आयी, जैसे किसी ने अपने सर से कोई गठरी उतारकर फेंकी हो। उस आवाज ने मुझे तो न जगाया, मगर अन्ना झट उठ बैठी और इधर-उधर देखने लगी। मैं बयान कर चुकी हूँ कि इस कमरे में दो दरवाजे थे। उनमें से एक दरवाजा तो लोगों को आने-जाने के लिए था और वह बाहर से बन्द रहता था, मगर दूसरा खुला हुआ था, जिसके अन्दर मैं तो नहीं गयीं थी, मगर अन्ना हो आयी थी और कहती थी कि उसके अन्दर तीन कोठरियाँ हैं, एक पायखाना है, और दो कोठरियाँ खाली पड़ी है। अन्ना को शक हुआ कि उसी कोठरी के अन्दर से आवाज आयी है। उसने सोचा कि शायद दारोगा का कोई आदमी यहाँ आकर उस कोठरी में गया हो। थोड़ी देर तक तो वह उसके अन्दर से किसी के निकलने की राह देखती रही, मगर इसके बाद उठ खड़ी हुई। अन्ना थी तो औरत मगर उसका दिल बड़ा मजबूत था वह मौत से भी जल्दी डरनेवाली न थी। उसने हाथ में चिराग उठा लिया और उस कोठरी के अन्दर गयी। पैर रखने के साथ ही उसकी निगाह एक गठरी पर पड़ी, मगर इधर-उधर देखा तो कोई आदमी नजर न आया। दूसरी कोठरी के अन्दर गयी, और तीसरी कोठरी में भी झाँकके देखा, मगर कोई आदमी नजर न आया, तब उसने चिराग को एक को एक किनारे रख दिया और उस गठरी को खोला। इतने ही में मेरी आँख खुल गयी और घर में अँधेरा देखकर मुझे डर मालूम हुआ। मैंने हाथ फैलाकर अन्ना को उठाना चाहा, मगर वह तो वहाँ थी ही नहीं। मैं घबराकर उठ बैठी। यकायक उस कोठरी की तरफ मेरी निगाह गयी और उसके भीतर चिराग की रोशनी दिखायी दी। मैं घबराकर जोर-जोर से ‘अन्ना अन्ना’ पुकारने लगी। मेरी आवाज सुनते ही वह चिराग और गठरी लिये बाहर निकल आयी और बोली, ‘‘ले बेटी मैं तुझे एक खुशखबरी सुनाती  हूँ।’’

मैं खुश होकर बोली, ‘‘क्या है अन्ना!’’

अन्ना ने यह कहकर गठरी मेरे आगे रख दी कि ‘देख इसमें क्या है’। मैंने बड़े शौक से वह गठरी खोली, मगर उसमें अपनी प्यारी माँ के कपड़े देखकर मुझे रुलाई आ गयी। ये वे ही कपड़े थे, जो मेरी माँ पहिनकर घर से निकली थी, जब उन दोनों ऐयारों ने उसे गिरफ्तार कर लिया था, और उसे मुझसे जुदा किया था। उन कपड़ों पर खून के छीटे पड़े हुए थे, ‘‘तू रोती क्यों है, मैं कह जो चुकी कि तेरे लिये खुशखबरी लायी हूँ, इन कपड़ों को मत देख बल्कि इसमें एक चीठी तेरी माँ के हाथ से लिखी हुई है, उसे देख! ’’मैंने उन कपड़ों को अच्छी तरह खोला और उसके अन्दर से वह चीठी निकली।

मालूम होता है जब मैं ‘अन्ना अन्ना’ कहके चिल्लायी तब वह जल्दी में उन सभों को लपेटकर बाहर निकल आयी थी, खैर जो हो मगर वह चीठी अन्ना पढ़ चुकी थी, क्योंकि वह पढ़ी लिखी थी। मैं बहुत कम पढ़-लिख सकती थी, केवल नाम लिखना-भर जानती थी, मगर अपनी माँ के अक्षर अच्छी तरह पहिचानती थी, क्योंकि वही मुझे पढ़ना-लिखना सिखाती थी। अस्तु, चीठी खोलकर मैंने अन्ना को पढ़ने के लिए कहा और अन्ना ने पढ़कर मुझे सुनाया। उसमें यह लिखा हुआ था–

‘‘मेरी प्यारी बेटी इन्दिरा,

जितना मैं तुझे प्यार करती थी, निःसन्देह तू भी मुझे उतना ही चाहती थी, मगर अफसोस विधाता ने हम दोनों को जुदा कर दिया और मुझे तेरी भोली सूरत देखने के लिए तरसना पड़ा। परन्तु कोई चिन्ता नहीं, यद्यपि मेरी तरह तू भी दुःख भोग रही है, मगर तू चाहेगी तो मैं कैद से छूट जाऊँगी और साथ ही इसके तू कैदखाने से बाहर होकर मुझसे मिलेगी। अब मेरा और तेरा दोनों का कैद से छूटना तेरे ही हाथ है, और छूटने की तरकीब केवल यही है कि दारोगा साहब जोकुछ तुझे कहें, उसे बेखटके कर दे।

अगर ऐसा करने से इनकार करेगी तो मेरी और तेरी दोनों की जान मुफ्त में जायगी।

तेरी प्यारी माँ–
सर्यू

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book