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चन्द्रकान्ता सन्तति - 4

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8402
आईएसबीएन :978-1-61301-029-7

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चन्द्रकान्ता सन्तति - 4 का ई-पुस्तक संस्करण...

दूसरा बयान


अब हम रोहतासगढ़ किले के तहखाने में दुश्मनों से घिरे हुए राजा बीरेन्द्रसिंह वगैरह का कुछ हाल लिखते हैं।

जिस समय राजा बीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह इत्यादि ने तहखाने के ऊपरी हिस्से से आयी हुई यह आवाज सुनी कि ‘होशियार होशियार’ देखो यह चाण्डाल बेचारी किशोरी को पकड़े लिये जाता है’ इत्यादि-तो सभों की तबीयत बहुत ही बेचैन हो गयी। राजा बीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह, इन्द्रदेव और देवीसिंह वगैरह घबड़ाकर चारों तरफ देखने और सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए।

कमलिनी हाथ में तिलिस्मी खंजर लिये हुए कैदखानेवाले दरवाजे के बीच ही में खड़ी थी। उसने इन्द्रदेव से कहा–‘‘मुझे भी उसी कोठरी के अन्दर पहुँचाइए, जिसमें किशोरी को रक्खा था, फिर मैं उसे छुड़ा लूँगी।’’

इन्द्रदेव : बेशक, उस कोठरी के अन्दर तुम्हारे जाने से किशोरी को मदद पहुँचेगी, मगर किसी ऐयार को भी अपने साथ लेती जाओ।

देवीसिंह : मुझे साथ जाने के लिए कहिए।

इन्द्रदेव : (बीरेन्द्रसिंह से) आप देवीसिंह को साथ जाने की आज्ञा दीजिए।

बीरेन्द्र : (देवीसिंह से) जाइए।

तेज : नहीं कलमिनी के साथ मैं खुद जाऊँगा, क्योंकि मेरे पास भी राजा गोपालसिंह का दिया हुआ तिलिस्मी खंजर है।

इन्द्रदेव : राजा गोपालसिंह ने आपको तिलिस्मी खंजर कब दिया?

तेज : जब कमलिनी की सहायता से मैंने उन्हें मायारानी की कैद से छुड़ाया था, तब उन्होंने मुझे दिया था, जिसे मैं हिफाजत से रखता हूँ। कमलिनी के साथ देवीसिंह के जाने से कोई फायदा न होगा, क्योंकि जब कमलिनी तिलिस्मी खंजर से काम लेगी तो उसकी चमक से और लोगों की तरह देवीसिंह की भी आँखें बन्द हो जायँगी...

इन्द्रदेव : (बात काटकर) ठीक है ठीक है, मैं समझ गया, अच्छा तो आप ही जाइए देर न कीजिए।

इतना कहकर इन्द्रदेव बड़ी फुर्ती से कैदखाने के अन्दर चला गया और उस कोठरी का दरवाजा, जिसमें किशोरी, कामिनी, लक्ष्मीदेवी, लाडिली और कमला को रख दिया था, पुनः उसी ढंग से खोला, जैसे पहिले खोला था। दरवाजा खुलने के साथ ही तेजसिंह को साथ लिये हुए कमलिनी उस कोठरी के अन्दर घुस गयी और वहाँ कामिनी, लक्ष्मीदेवी, लाडिली और कमला को मौजूद पाया, मगर किशोरी का पता न था। कमलिनी ने उन औरतों को तुरत कोठरी के बाहर निकालकर राजा बीरेन्द्रसिंह के पास चले जाने के लिये कहा और आप दूसरे काम का उद्योग करने लगी। बाकी औरतों के बाहर होते ही इन्द्रदेव ने जंजीर छोड़ दी और कोठरी का दरवाजा बन्द हो गया। बगलवाली दीवार में एक छोटा सा दरवाजा खुला हुआ दिखायी दिया, जिसमें ऊपर के हिस्से में जाने के लिए सीढ़ियाँ थीं। दोनों उस दरवाजे के अन्दर चले गये और सीढ़ियाँ चढ़कर छत के ऊपर जा पहुँचे, अब तेजसिंह को मालूम हुआ कि इसी जगह से उस गुप्त मनुष्य के बोलने की आवाज आ रही थी।

इस ऊपर वाले हिस्से की छत बहुत लम्बी-चौड़ी थी, और वहाँ कई बड़े-बड़े दालान और उन दालानों में कई तरफ निकल जाने का रास्ते थे। तेजसिंह और कमलिनी ने देखा कि वहाँ पर बहुत-सी लाशें पड़ी हुई हैं, जिनमें शायद दो-ही-चार में दम हो और जमीन भी वहाँ की खून से तर-बतर हो रही थी। अपने पैर को खून और लाशों से बचाकर किसी तरफ निकल जाना कठिन ही नहीं, बल्कि असम्भव था। कमलनी ने इस बात का कुछ भी खयाल न किया और लाशों पर पैर रखती हुई बराबर चली गयी। आखिर एक दालान में पहुँची, जिसमें से दूसरी तरफ निकल जाने के लिए एक खुला हुआ दरवाजा था। दरवाजे के उस पार पैर रखते ही दोनों की निगाह कृष्णाजिन्न पर पड़ी जिन्हें दुश्मन चारों तरफ से घेरे हुए थे, और वह तिलिस्मी तलवार से सभी को काटकर गिरा रहा था। यद्यपि वह तिलिस्मी फौलादी जाल की पोशाक पहिरे हुए था और इस सबब से उसके ऊपर दुश्मनों की तलवारें कुछ काम नहीं करती थीं, तथापि ध्यान देने से मालूम होता था कि तलवार चलाते-चलाते उसका हाथ थक गया है और थोड़ी देर में चलाने या लड़ने लायक न रहेगा। इतना होने पर भी दुश्मनों को उस पर फतह पाने की आशा न थी और मुकाबिला करने से डरते थे। जिस समय कमलिनी और तेजसिंह तिलिस्मी खंजर चमकाते हुए, उसके पास जा पहुँचे उस समय दुश्मनों का जी बिल्कुल ही टूट गया और वे तलवारें जमीन पर फेंक-फेंक ‘शरण’... ‘शरणागत’... इत्यादि पुकारने लगे।

अगर दुश्मनों को यहाँ से निकल जाने का रास्ता मालूम होता और वे लोग भागकर अपनी जान बचा सकते तो कृष्णाजिन्न का मुकाबिला कदापि न करते, लेकिन जब उन्होंने देखा कि हम लोग रास्ता न जानने के कारण भागकर जा ही नहीं सकते, तब लाचार होकर मरने-मारने के लिए तैयार हो गये थे, मगर कृष्णाजिन्न ने भी उन लोगों को अच्छी तरह यमलोक का रास्ता दिखाया, क्योंकि उसके हाथ में तिलिस्मी तलवार थी। जब तेजसिंह और कमलिनी भी तिलिस्मी खंजर चमकाते हुए वहाँ पहुँच गये तब तो दुश्मनों ने एकदम ही तलवार हाथ से फेंक दी और ‘त्राहि-त्राहि’, ‘शरण शरण’ पुकारने लगे। उस समय कृष्णाजिन्न ने भी हाथ रोक लिया और तेजसिंह तथा कमलिनी की तरफ देखकर कहा–‘‘बहुत अच्छा हुआ जो आप लोग आ गये।’’

तेज : मालूम होता है कि आपही ने दुश्मनों के आने से हम लोगों को सचेत किया।

कृष्णाजिन्न : हाँ, वह आवाज मेरी ही थी और मुझीसे आप लोग बातचीत कर रहे थे।

तेज : तो क्या आपही ने यह कहा था कि कोई शैतान बेचारी किशोरी को पकड़े लिये जाता है?’

कृष्णाजिन्न : हाँ, यह मैंने ही कहा था, किशोरी को ले जानेवाला स्वयं उसका बाप शिवदत्त था और मेरे हाथ से मारा गया।

कृष्णाजिन्न और भी कुछ कहा चाहता था कि कोई आवाज उसके तथा कमलिनी और तेजसिंह के कानों में पड़ी। आवाज यही थी–‘‘हरी, हरी, तुम लोग भागो और हमारे पीछे-पीछे चले आओ, धन्नूसिंह की मदद से हम लोग निकल जायेंगे।’’ इस आवाज को सुनकर वे लोग भी पीछे की तरफ भाग गये, जिन्होंने कृष्णाजिन्न और तेजसिंह के आगे तलवारें फेंक दी थीं, मगर कृष्णाजिन्न और तेजसिंह ने उन लोगों को रोकना या मारना उचित न जाना और चुपचाप खड़े रहकर भागनेवालों का तमाशा देखते रहे। थोड़ी देर में उनके सामने की जमीन दुश्मनों से खाली हो गयी और सामने से आती हुई मनोरमा दिखायी पड़ी। मनोरमा को देखते ही कमलिनी तिलिस्मी खंजर उठाकर उसकी तरफ झपटी और उस पर वार किया ही चाहती थी कि मनोरमा ने कुछ पीछे हटकर कहा, ‘‘है हैं श्यामा, जरा देख-समझके!’’

मनोरमा की बात और श्यामा* का शब्द सुनकर कमलिनी रुक गयी और बड़े गौर से मनोरमा का मुँह देखने बाद बोली, ‘‘तू कौन है?’’ * ‘श्यामा’ कमलिनी का असली नाम था मगर लोगों में वह कमलिनी के नाम से ही प्रसिद्ध हो गयी और हमारा बनावटी नाम भी एक प्रकार ठीक निकला।

मनोरमा : बीरूसिंह!

कमलिनी : निशान?

मनोरमा : चन्द्रकला।

कमलिनी : तुम अकेले हो या और भी कोई है?

बीरू : शिवदत्त के सिपाही धन्नूसिंह की सूरत बने हुए मेरे गुरु सर्यूसिंह भी आये हैं। उन्होंने दुश्मनों को बाहर निकलने का रास्ता बताया है। इस तहखाने में जितने दरवाजे कल्याणसिंह ने बन्द किये थे, वे सब भी गुरुजी ने खोल दिये, क्योंकि उनके सामने ही कल्याणसिंह ने सब दरवाजे बन्द किये थे उन्होंने उसकी तरकीब देख ली थी।

कृष्णाजिन्न : शाबाश! (कमलिनी से) अच्छा इन लोगों का किस्सा दूसरे समय सुनना, इस समय तुम किशोरी को लेकर राजा बीरेन्द्रसिंह के पास चली जाओ, जिसे हमने शिवदत्त के पंजे से छुड़ाया है और जो (हाथ का इशारा करके) उस तरफ जमीन पर बदहवास पड़ी है, बस अब इस काम में देर मत करो। मैं यहाँ से पुकारकर कह देता हूँ, जिस राह से तुम आयी हो उसी कोठरी का दरवाजा इन्द्रदेव खोल देंगे, तेजसिंह और बीरूसिंह को मैं थोड़ी देर के लिए अपने साथ लिये जाता हूँ, ये लोग किले में तुम लोगों के पास आ जायेंगे।

कमलिनी : क्या आप बीरेन्द्रसिंह के पास न चलेंगे?

कृष्णाजिन्न : नहीं।

कमलिनी : क्यों?

कृष्णाजिन्न : हमारी खुशी। राजा बीरेन्द्रसिंह से कह दीजियो कि सभों को लिये इसी समय तहखाने के बाहर चले जाँय।

इतना कहकर कृष्णाजिन्न उस जगह कमलिनी को ले गया, जहाँ बेचारी किशोरी बदहवास पड़ी हुई थी। दुश्मन लोग सामने से बिल्कुल भाग गये थे, सिवाय जख्मियों और मुर्दों के वहाँ पर कोई भी मुकाबला करने वाला न था और दुश्मनों के हाथों से गिरी हुई मशालें इधर-उधर पड़ी हुई कुछ बल रही थीं और कुछ ठण्डी हो गयी थी। बेचारी किशोरी बिल्कुल बदहवास पड़ी हुई थी, मगर तेजसिंह की तरकीब से वह बहुत जल्द होश में आ गयीं और कमलिनी उसे अपने साथ लेकर राजा बीरेन्द्रसिंह के पास चली गयी। कृष्णाजिन्न ने उसी सूराख में से इन्द्रदेव को दरवाजा खोलने के लिए आवाज दे दी और तेजसिंह तथा बीरूसिंह को लिये दूसरी तरफ का रास्ता लिया।

किशोरी को साथ लिये हुए थोड़ी ही देर में कमलिनी राजा बीरेन्द्रसिंह के पास जा पहुँची और जो कुछ उसने देखा-सुना था, सब कहा। वहाँ से भी बचे-बचाये दुश्मन लोग भाग गये थे और मुकाबला करने वाला कोई मौजूद नहीं था।

इन्द्रदेव : (राजा बीरेन्द्रसिंह से) कृष्णाजिन्न ने जोकुछ कहला भेजा है, उसे मैं पसन्द करता हूँ, सभों को लेकर इस समय तहखाने के बाहर ही हो जाना चाहिए।

बीरेन्द्र : मेरी भी यही राय है, ईश्वर को धन्यवाद देना चाहिए कि आज की ग्रहदशा सहज में कट गयी। निःसन्देह आपके दोनों ऐयारों ने दुश्मनों के साथ यहाँ आकर कोई अनूठा काम किया होगा और कृष्णाजिन्न ने मानो पूरी सहायता ही की और किशोरी की जान बचायी।

इन्द्रदेव : निःसन्देह ईश्वर ने बड़ी कृपा की, मगर इस बात का अफसोस है कि कृष्णाजिन्न यहाँ न आकर ऊपर-ही-ऊपर चले गये और मैं उन्हें देख न सका तथा इस तहखाने की सैर भी इस समय आपकी न करा सका।

बीरेन्द्र : कोई चिन्ता नहीं फिर देखा जायेगा इस समय तो यहाँ से चल ही देना चाहिए।

राजा बीरेन्द्रसिंह की इच्छानुसार कैदियों को भी साथ लिये हुए सब कोई तहखाने के बाहर हुए। कैदियों को कैदखाने भेजा, औरतें महल में भेज दी गयी और उनकी हिफाजत का विशेष प्रबन्ध किया गया, क्योंकि अब राजा बीरेन्द्रसिंह को इस बात का विश्वास रहा कि रोहतासगढ़ किले के अन्दर और महल में दुश्मनों के आने का खटका नहीं है, क्योंकि तहखाने के रास्तों का हाल दिन-दिन खुलता ही जाता था

इन्द्रदेव को राजा बीरेन्द्रसिंह ने अपने कमरे के बगल में डेरा दिया और बड़ी इज्जत के साथ रक्खा। आज की बची हुई रात सोच-विचार और तरद्दुद ही में बीती। शेरअलीखाँ भूतनाथ और कल्याणसिंह का हाल भी सभों को मालूम हुआ और यह भी मालूम हुआ कि कल्याणसिंह और उसके कई आदमी कैदखाने में बन्द हैं।

दूसरे दिन सवेरे जब राजा बीरेन्द्रसिंह के कैदखाने में से कल्याणसिंह को अपने पास बुलाया तो मालूम हुआ कि रात ही को होश में आने के बाद कल्याणसिंह ने जमीन पर सिर पटककर अपनी जान दे दी। बीरेन्द्रसिंह ने उसकी अवस्था पर शोक प्रकट किया और उसकी लाश को इज्जत के साथ जलाकर हड्डियों को गंगाजी में डलवा देने का हुक्म दिया और यही हुक्म शिवदत्त की लाश के लिए भी दिया।

पहर दिन चढ़ने के बाद जब राजा बीरेन्द्रसिंह स्नान और सन्ध्या पूजा से छुट्टी पा कुछ फल खाकर निश्चिन्त हुए तो महल में अपने आने की इत्तिला करवायी और उसके बाद इन्द्रदेव को साथ लिये हुए महल में जाकर एक सजे हुए सुन्दर कमरे में बैठे। उनकी इच्छानुसार किशोरी, कामिनी, कमला, कमलिनी, लाडिली और लक्ष्मीदेवी अदब के साथ सामने बैठ गयीं किशोरी का चेहरा उसके बाप के गम में उदास हो रहा था, राजा बीरेन्द्रसिंह ने उसे समझाया और दिलासा दिया। इसी समय तारासिंह ने राजा साहब के पास पहुँचकर तेजसिंह, भूतनाथ, सर्यूसिंह और बीरूसिंह के आने की इत्तिला की और मर्जी होने पर ये लोग राजा बीरेन्द्रसिंह के सामने हाजिर हुए तथा सलाम करने के बाद हुक्म पाकर जमीन पर बैठ गये। इन लोगों के आने का सभों को इन्तजार था शिवदत्त और कल्याणसिंह की कार्रवाई तथा उनके काम में विघ्न पड़ने का हाल सभी कोई सुना चाहते थे।

बीरेन्द्र : (भूतनाथ से) सुना था कि शेरअलीखाँ को तुम अपने साथ ले गये थे?

भूतनाथ : जी हाँ, शेरअलीखाँ को मैं अपने साथ ले गया था और साथ लेता भी आया, तेजसिंह की आज्ञा से वे अपने डेरे पर चले गये, जहाँ रहते थे।

बीरेन्द्र : (तेजसिंह से) कृष्णाजिन्न तुमको अपने साथ क्यों ले गये थे?

तेज : कुछ काम था जो मैं आपसे किसी दूसरे समय कहूँगा, आप पहिले सर्यूसिंह और भूतनाथ का हाल सुन लीजिए।

बीरेन्द्र : अच्छी बात है, आज के मामले में निःसन्देह सर्यूसिंह ने बड़ी मदद पहुँचायी और भूतनाथ की होशियारी ने भी दुश्मनों का बहुत कुछ नुकसान किया।

तेज : जिस तरह से दुश्मन लोग तहखाने से अन्दर आये थे, भूतनाथ और शेरअलीखाँ उसी मुहाने पर जाकर बैठ गये और भागकर जाते हुए दुश्मनों को खूब ही मारा, यहाँ तक कि एक भी जीता बचकर न जा सका।

इन्द्रदेव : (सर्यूसिंह से) अच्छा तुम अपना हाल कह जाओ।

इन्द्रदेव की आज्ञा पाकर सर्यूसिंह ने अपना और भूतनाथ का हाल बयान किया। मनोरमा और धन्नूसिंह का हाल सुनकर सब कोई हँसने लगे, इसके बाद भूतनाथ ने मनोरमा को अपने लड़के नानक के साथ घर भेजकर शेरअलीखाँ के पास आना, कल्याणसिंह और उसके आदमियों का मुकाबला करना, फिर शेरअलीखाँ को अपने साथ लेकर सुरंग के मुहाने पर जाकर बैठना और दुश्मनों का सत्यानाश करना इत्यादि बयान किया। इसके बाद तेजसिंह ने एक चीठी राजा बीरेन्द्रसिंह के हाथ में दी और कहा, ‘‘कृष्णाजिन्न ने यह चीठी आपके लिए दी है।

राजा बीरेन्द्रसिंह ने यह चीठी ले ली और मन में पढ़ जाने बाद इन्द्रदेव के हाथ में देकर कहा–‘‘आप इसे जोर से पढ़ जाइए जिसमें सब कोई सुन लें।’’

इन्द्रदेव ने चीठी पढ़कर सभों को सुनायी। उसका मतलब यह था–

‘‘इत्तिफाक से आज इस तहखाने में पहुँच गया और किशोरी की जान बच गयी। सर्यूसिंह और भूतनाथ ने निःसन्देह बड़ी मदद की सच, तो यों है कि आज उन्हीं के बदौलत दुश्मनों ने नीचा देखा, मगर भूतनाथ ने एक काम बड़ी बेवकूफी का किया, अर्थात मनोरमा को नानक के हाथ में दे दिया और उसे घर ले जाकर असली बलभद्रसिंह का पता लगाने के लिए कहा। यह भूतनाथ की भूल है कि वह नानक को किसी काम के लायक समझता है, यद्यपि नानक के हाथ से आज तक कोई काम ऐसा न निकला, जिसकी तारीफ की जाय, वह निरा बेवकूफ और गदहा है, कोई नाजुक काम उसके हाथ में देना भी भारी भूल है। मनोरमा को उसके हाथ में देकर भूतनाथ ने बुरा किया। नानक कमीने को मालिक के काम का तो कुछ खयाल न रहा और मनोरमा के साथ शादी की धुन सवार हो गयी, जिसका नतीजा यह निकला कि मनोरमा ने नानक को खूब जूतियाँ लगायीं और तिलिस्मी खंजर भी ले लिया, मैं बहुत खुश होता यदि मनोरमा नानक का कान नाक भी काट लेती। आपको और ऐयारों को होशियार करता हूँ और कहे देता हूँ कि औरत के गुलाम नानक बेईमान पर कभी भी कोई भी भरोसा न करे। आप जरूर अपने एक ऐयार को नानक के घर तहकीकात करने के लिए भेंजे, तब आपको नानक और नानक के घर की हालत मालूम होगी। अस्तु, अब आपका रोहतासगढ़ में रहना ठीक नहीं है, आप कैदियों और किशोरी, कामिनी, कमलिनी और लक्ष्मीदेवी इत्यादि सभों को लेकर चुनार चले जायें। मैं यह बात इस खयाल से नहीं कहता कि यहाँ आपको दुश्मनों का डर है, नहीं नहीं, औवल तो अब आपका कोई ऐसा दुश्मन ही नहीं रहा, जो रोहतासगढ़ तहखाने का रत्ती बराबर भी हाल जानता हो, दूसरे इस तहखाने के कुल दरवाजे (दीवानखानेवाले एक सदर दरवाजे को छोड़कर) जो गिनती में ग्यारह थे, मैंने अच्छी तरह बन्द कर दिये और उनका हाल तेजसिंह को बता दिया है। मैं समझता हूँ, इनसे ज्यादे रास्ते तहखाने में आने-जाने के लिए नहीं है, इतने रास्तों का हाल यहाँ का राजा दिग्विजयसिंह भी न जानता होगा। हाँ, कमलिनी जरूर जानती होगी, क्योंकि वह रिक्तगन्थ पढ़ चुकी है। यदि आप तहखाने की सैर किया चाहते हैं तो इस इरादे को अभी रोक दीजिए, कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह के आने पर यह काम कीजियेगा, क्योंकि यहाँ का सबसे ज्यादे हाल उन्हीं दोनों भाइयों को मालूम होगा। हाँ, बलभद्रसिंह का पता लगाने का उद्योग करना चाहिए और यहाँ के तहखाने की भी अच्छी तरह सफाई हो जानी चाहिए, जिसमें एक भी मुर्दा इसके अन्दर रह न जाय। यदि इन्द्रदेव चाहें तो नकली बलभद्रसिंह को आप इन्द्रदेव के हवाले कर दीजियेगा और असली बलभद्रसिंह तथा इन्दिरा का पता लगाने का बोझ इन्द्रदेव ही के ऊपर डालियेगा। भूतनाथ को भी चाहिए कि इन्द्रदेव के साथ रहकर अपनी खैरख्वाही दिखाये और पुरानी कालिख अपने चेहरे से अच्छी तरह धो डाले नहीं तो उसके हल में अच्छा न होगा, और आप अपने एक ऐयार को हरामखोर नानक की तरफ रवाना कीजिए। मैं आपका ध्यान पुनः मनोरमा की तरफ दिलाता हूँ और कहता हूँ कि तिलिस्मी खंजर का उसके हाथ लग जाना बहुत ही बुरा हुआ। मनोरमा साधारण औरत नहीं है, उसकी तारीफ आप सुन ही चुके होंगे, तिलिस्मी खंजर पाकर अब वह जो न कर डाले, वही आश्चर्य है। उसके कब्जे में से खंजर निकालने का शीघ्र उद्योग कीजिए और इस काम को सबसे ज्यादे जरूरी समझिए। इसके अतिरिक्त तेजसिंह की जुबानी जो कुछ मैंने कहला भेजा है, उस पर भी ध्यान दीजिए।’’

इस चीठी को सुनकर सभी को ताज्जुब हुआ। राजा बीरेन्द्रसिंह तो चुप ही रहे, सिर्फ इन्द्रदेव के हाथ से चीठी लेकर तेजसिंह को दे दी और बोले कि सब काम इसी के मुताबिक होना चाहिए’। इसके बाद एक-एक के चेहरे को गौर से देखने लगे। भूतनाथ का चेहरा मारे क्रोध के लाल हो रहा था, नानक की अवस्था और नालायकी पर उसे बड़ा ही रंज हुआ था। लक्ष्मीदेवी के चेहरे पर भी हद्द से ज्यादे उदासी छायी हुई थी, बाप की फिक्र के साथ-ही-साथ उसे इस बात का बड़ा ही रंज और ताज्जुब था कि राजा गोपालसिंह ने सब हाल सुनकर भी उसकी कुछ खबर न ली न तो मिलने के लिए आये और न कोई चीठी ही भेजी। वह हजार सोचती और गौर करती थी, मगर इसका सबब कुछ भी उसके ध्यान में न आता था और उसका दिल इसी बात को कबूल करता था कि राजा गोपालसिंह उसे इसी अवस्था में छोड़ देंगे। ज्यादे ताज्जुब तो इसे इस बात का था कि राजा गोपालसिंह ने मायारानी के बारे में भी कोई हुक्म नहीं लगाया, जिसकी बदौलत वह हद्द से ज्यादे तकलीफ उठा चुके थे। अब इस खयाल ने उसे और सताना शुरू किया कि हम लोगो को चुनार जाना होगा, जहाँ गोपालसिंह का पहुँचना और भी कठिन है, इत्यादि तरह-तरह की बात वह सोच रही थी और न रुकनेवाले आँसुओं को रोकने में जीजान से उद्योग कर रही थी। कमलिनी का चेहरा भी उदास था, राजा गोपालसिंह के विषय में वह भी तरह-तरह की बातें सोच रही थी और उनसे तथा नानक से स्वयं मिला चाहती थी, मगर राजा बीरेन्द्रसिंह की मर्जी के खिलाफ कुछ करना भी उचित नहीं समझती थी।

राजा बीरेन्द्रसिंह ने इन्द्रदेव की तरफ देखकर कहा, ‘‘आप क्या सोच रहे हैं? कृष्णाजिन्न पर मुझे बहुत बड़ा विश्वास है और उसने जोकुछ लिखा मैं उसे करने के लिए तैयार हूँ।’’

इन्द्रदेव : आप मालिक है आपको हर तरह का अख्तियार है, जो चाहें करें और मुझे भी जो आज्ञा दें करने के लिए तैयार हूँ। कृष्णाजिन्न की तो मैंने सूरत भी नहीं देखी है, इसलिए उनके विषय में कुछ भी नहीं कह सकता, मगर मुझे अफसोस इस बात का है कि मैं यहाँ आकर कुछ भी न कर सका, न तो बलभद्रसिंह का पता लगा और न इन्दिरा के विषय में ही कुछ मालूम हुआ।

बीरेन्द्र : नकली बलभद्रसिंह जब तुम्हारे कब्जे में हो जायगा तो मैं उम्मीद करता हूँ की तुम इन दोनों ही का पता लगा सकोगे और कृष्णाजिन्न के लिखे मुताबिक मैं नकली बलभद्रसिंह को तुम्हारे हवाले करने के लिए तैयार हूँ। मैं तुम पर भी बहुत विश्वास रखता हूँ, और तुम्हें अपना समझता हूँ। अगर कृष्णाजिन्न ने न भी लिखा होता और तुम नकली बलभद्रसिंह को माँगते तो भी मैं तुम्हें दे देता, अब अगर तुम मायारानी या दारोगा को लिया चाहो तो मैं देने को तैयार हूँ, केवल इतना ही नहीं इसके अतिरिक्त तुम अगर और भी कोई बात कहो तो करने के लिए तैयार हूँ।

राजा बीरेन्द्रसिंह की बात सुनकर इन्द्रदेव उठ खड़ा हुआ और झुककर सलाम करने के बाद हाथ जोड़कर बोला, ‘‘यह जानकर बहुत ही प्रसन्न हुआ कि महाराज मुझ पर विश्वास रखते हैं और नकली बलभद्रसिंह को मेरे हवाले करने के लिए तैयार हैं, तथा और भी जिसे मैं चाहता हूँ ले जाने की प्रार्थना कर सकता हूँ। यदि महाराज की मुझ पर इतनी ही कृपा है तो मैं कह सकता हूँ कि सिवाय नकली बलभद्रसिंह के और किसी कैदी को ले जाना नहीं चाहता, मगर लक्ष्मीदेवी, कमलिनी और लाडिली को अपने साथ ले जाने की प्रार्थना करता हूँ अपनी धर्म की प्यारी लड़की लक्ष्मीदेवी पर बहुत स्नेह रखता हूँ और अभी बहुत कुछ उसके हाथ से...(रुककर) हाँ तो यदि महाराज मुझ पर विश्वास कर सकते हैं तो इन लोगों को और उस कलमदान को मुझे दे दें, जिस पर इन्दिरा लिखा हुआ है। भूतनाथ के कागजात अपने साथ लेते जायँ, मैं असली बलभद्रसिंह का पता लगाकर सेवा में उपस्थित होऊँगा, और उस समय अपने सामने भूतनाथ का मुकद्दमा फैसल कराऊँगा। आप भूतनाथ को आज्ञा दें कि कृष्णाजिन्न ने उसके विषय में जोकुछ लिखा है, उसे नेकनीयती के साथ पूरा करे।’’

इन्द्रदेव की बात, सुनकर राजा बीरेन्द्रसिंह गौर में पड़ गये। वे लक्ष्मीदेवी, कमलिनी और लाडिली को अपने साथ चुनार ले जाया चाहते थे और कृष्णाजिन्न ने भी ऐसा करने को लिखा था मगर इन्द्रदेव की अर्जी भी नामंजूर नहीं कर सकते थे, क्योंकि इन्द्रदेव का लक्ष्मीदेवी पर हक था, और उसी ने लक्ष्मीदेवी की रक्षा की थी। कमलिनी और लाडिली पर राजा बीरेन्द्रसिंह को कोई अधिकार न था क्योंकि वे बिल्कुल स्वतन्त्र थीं। बीरेन्द्रसिंह ने कुछ देर तक गौर करने के बाद इन्द्रदेव से कहा, ‘‘मुझे उज्र नहीं है, लक्ष्मीदेवी, कमलिनी और लाडिली यदि आपके साथ रहने में प्रसन्न हैं तो आप उन्हें ले जायँ और वह कलमदान भी आपको मिल जायगा।’’

इन्द्रदेव और राजा बीरेन्द्रसिंह की बातें सुनकर लक्ष्मीदेवी कमलिनी और लाडिली बहुत प्रसन्न हुईं और हाथ जोड़कर राजा बीरेन्द्रसिंह से बोलीं, ‘‘हम लोग अपने धर्म के पिता इन्द्रदेव के घर जाने में बहुत प्रसन्न हैं, वहाँ हमें अपने बाप का पता लगने का हाल बहुत जल्द मिलेगा।’’

बीरेन्द्र : बहुत अच्छा, (तेजसिंह से) वह कलमदान इन्द्रदेव को दे दो और इन लोगों के तथा नकली बलभद्रसिंह के जाने का बन्दोबस्त करो। हम भी आज चुनारगढ़ की तरफ कूच करेंगे। भैरोसिंह को मनोरमा की गिरफ्तारी के लिए रवाना करो और तारासिंह को नानक के घर भेजो। (देवीसिंह की तरफ देखके) एक बहुत ही नाजुक काम तुम्हारे सुपुर्द करने की इच्छा है, जो तुम्हारे कान में कहेंगे।

देवीसिंह राजा बीरेन्द्रसिंह के पास चले गये और उनकी तरफ सिर झुका दिया। बीरेन्द्रसिंह ने देवीसिंह के कान में कहा, ‘‘लक्ष्मीदेवी, कमलिनी और लाडिली की निगहबानी तुम्हारे जिम्मे मगर गुप्त!’’

देवीसिंह सलाम करके पीछे हट गये और दरबार बरखास्त हो गया।

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