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चन्द्रकान्ता सन्तति - 4

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8402
आईएसबीएन :978-1-61301-029-7

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चन्द्रकान्ता सन्तति - 4 का ई-पुस्तक संस्करण...

पाँचवाँ बयान


किशोरी, कामिनी, कमला इत्यादि तथा और बहुत से आदमियों को लिये हुए राजा बीरेन्द्रसिंह चुनार की तरफ रवाना हुए। किशोरी और कामिनी की खिदमत के लिये साथ में एक सौ पन्द्रह लौंडियाँ थीं, जिनमें से बीस लौडियाँ तो उनमें से थीं, जो राजा दिग्विजयसिंह की रानी के साथ रोहतासगढ़ में रहा करती थीं, और रोहतासगढ़ के फतह हो जाने के बाद राजा बीरेन्द्रसिंह की ताबेदारी स्वीकार कर चुकी थीं, बाकी लौंडियाँ नयी रक्खी गयी थीं। इसके अतिरिक्त रोहतासगढ़ से बहुत-सी चीजें भी राजा बीरेन्द्रसिंह ने साथ ले ली थीं, जिन्हें उन्होंने बेशकीमती या नायाब समझा था। रवाना होने के समय राजा साहब ने उन ऐयारों को भी अपने चुनारगढ़ जाने की इत्तिला दिलवा दी थी, जो राजगृह तथा गयाजी का इन्तजाम करने के लिए मुकर्रर किये गये थे।

जिस समय राजा बीरेन्द्रसिंह चुनारगढ़ की तरफ रवाना हुए, रात घण्टे-भर से कुछ ज्यादे बाकी थी, और पाँच हजार फौज के अतिरिक्त चार हजार दूसरे काम-काज के आदमी भी साथ में थे। इसी भीड़ में मिली-जुली साधारण लौंडी का भेष धारण किये मनोरमा भी जाने लगी। उसे अपना काम पूरा होने की पक्की उम्मीद थी और वह इस धुन में लगी हुई थी कि किशोरी और कामिनी की लौंडियों में से कोई लौंडी किसी तरह पीछे रह जाये तो काम चले।

पहर दिन चढ़े तक राजा बीरेन्द्रसिंह का लश्कर बराबर चला गया।

जब धूप हुई तो एक हरे-भरे जंगल में पड़ाव डाला गया, जहाँ डेरे-खेमे का इन्तजाम पहिले ही से हो चुका था। पड़ाव पड़ जाने के थोड़ी देर बाद डेरों, खेमों से लदे हुए सैकड़ों ऊँट आगे की तरफ रवाना हुए, जिनसे दूसरे दिन के पड़ाव का इन्तजाम होनेवाला था। बाकी का दिन और तीन पहर रात तक वह जंगल गुलजार रहा और पहर रात रहते, फिर वहाँ से लश्कर कूच हुआ।

इसी तरह कूच-दर-कूच करते बीरेन्द्रसिंह का लश्कर चुनारगढ़ की तरफ रवाना हुआ। तीन दिन तक तो मनोरमा का काम कुछ भी न हुआ पर चौथे दिन उसे अपना काम निकालने का मौका मिला, जब किशोरी की एक लौंड़ी, जिसका नाम दया था, हाथ में लोटा लिये मैदान जाने की नीयत से पड़ाव के बाहर निकली। उस समय घड़ी-भर रात हो चुकी थी, और चारों तरफ अन्धकार छाया हुआ था। दया रोहतासगढ़ के राजा दिग्विजयसिंह की लौंड़ियों में से एक थी और किशोरी उसे मानती थी, क्योंकि उस जमाने में जब किशोरी कैदियों की तरह रोहतासगढ़ में रहती थी, दया ने उसकी खिदमत बड़ी हमदर्दी के साथ की थी।

दया को मैदान की तरफ जाते देख मनोरमा ने उसका पीछा किया। दबे पाँव उसके साथ बराबर चली गयी और जब जाना कि अब वह आगे न बढ़ेगी तो एक पेड़ की आड़ देकर खड़ी हो गयी। थोड़ी देर बाद जब दया काम से छुट्टी पाकर लौटी तो मनोरमा बेधड़क उसके पास चली गयी और फुर्ती के साथ तिलिस्मी खंजर उसके मोढ़े पर रख दिया। उसी दम दया काँपी और थरथराकर जमीन पर गिर पड़ी। मनोरमा ने उसे घसीट कर एक झाड़ी के अन्दर डाल दिया, और निश्चय कर लिया कि जब राजा बीरेन्द्रसिंह का लश्कर यहाँ से कूच कर जायेगा, और दिन निकल आवेगा, तब सुबीते से दया की सूरत बनकर इसको जान से मार डालूँगी और फिर तेजी के साथ चलकर लश्कर में जा मिलूँगी, आखिर ऐसा ही हुआ।

थोड़ी रात रहे राजा बीरेन्द्रसिंह का लश्कर वहाँ से कूच कर गया और जब पहर दिनचढ़े अगले पड़ाव पर पहुँचा, तो किशोरी ने दया की खोज की, मगर दया का पता क्योंकर लग सकता था। बहुत सी लौंडियाँ चारों तरफ फैल गयी और दया को ढूँढ़ने लगीं। दोपहर होते तक दया भी लश्कर में आ पहुँची, जो वास्तव में मनोरमा थी। किशोरी ने पूछा, ‘‘दया कहाँ रह गयी थी? तेरी खोज में सब लौंड़ियाँ अभी तक परेशान हो रही हैं।’’

नकली दया ने जवाब दिया, ‘‘जिस समय लश्कर कूच हुआ तो मेरे पेट में कुछ गढ़बड़ाहट ज्यादे हुई और रास्ते में एक कूआँ भी नजर आया तो लोटा-डोरी लेकर वहाँ ठहर गयी। दो दफे तो टट्टी गयी और तीन कै हुई, कै में बहुत-सा खट्टा पानी निकला। मैंने समझा कि बस अब किसी तरह लश्कर के साथ नहीं मिल सकती और यहाँ पड़ी बहुत दुःख भोगूँगी, मगर ईश्वर ने कुशल की, थोड़ी देर तक मैं उसी कूएँ पर लेटी रही, आखिर मेरी तबीयत ठहरी तो मैं धीरे-धीरे रवाना हुई और मुश्किल से यहाँ तक पहुँची। कै करने में मुझे बहुत तकलीफ हुई और मेरा गला भी बैठ गया।’’

किशोरी ने दया की अवस्था पर दुःख प्रकट किया और उसे दया की बातों पर विश्वास हो गया। अब दया को किशोरी के साथ मेल-जोल पैदा करने में किसी तरह का खुटका न रहा और दो ही चार दिन में उसने किशोरी को अपने ऊपर बहुत ज्यादे मेहरबान बना लिया।

रोहतासगढ़ से चुनारगढ़ जाने के लिए यद्यपि भली-चंगी सड़क बनी हुई थी, मगर राजा बीरेन्द्रसिंह का लश्कर सीधी सड़क छोड़ जंगल और मैदान ही में पड़ाव डालता चला जा रहा था, क्योंकि हजारों आदमियों को आराम जंगल और मैदान ही में मिलता था, सड़क के किनारे उतनी ज्यादे जगह नहीं मिल सकती थी।

एक दिन जब राजा बीरेन्द्रसिंह का लश्कर एक बहुत रमणीक और हरे-भरे जंगल में पड़ाव डाले हुए था, सन्ध्या के समय राजा बीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह टहलते हुए अपने खेमे से कुछ दूर निकल गये और एक छोटे से टीले पर चढ़कर अस्त होते हुए सूर्य की शोभा देखने लगे। यकायक उनकी निगाह एक सवार पर पड़ी, जो बड़ी तेजी के साथ घोड़ा दौड़ाता हुआ बीरेन्द्रसिंह के लश्कर की तरफ आ रहा था। दोनों की निगाहें उसी की तरफ उठ गयीं और उसे बड़े गौर से देखने लगे। थोड़ी ही देर में वह सवार टीले के पास पहुँच गया, और उस समय उस सवार की भी निगाह राजा बीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह पर पड़ी। सवार ने तुरत घोड़े का मुँह फेर दिया और बात की बात में राजा बीरेन्द्रसिंह के पास पहुँचकर घोड़े के नीचे उतर पड़ा। जिस टीले पर वह दोनों खड़े थे, वह बहुत ऊँचा न था, अतएव उस सवार ने नेजा गाड़कर घोड़े की लगाम उसमें अटका दी और बेखौफ टीले के ऊपर चढ़ गया। इस सवार के हाथ में एक चीठी थी, जो उसने सलाम करने के बाद राजा बीरेन्द्रसिंह को दे दी। राजा साहब ने चीठी खोलकर बड़े गौर से पढ़ी और तेजसिंह के हाथ में दे दी। तेजसिंह ने भी उसे पढ़ा और राजा साहब की तरफ देखकर कहा, ‘‘निःसन्देह ऐसा ही है।’’

बीरेन्द्र : तुमने तो इस विषय में मुझसे कुछ भी नहीं कहा था।

तेज : कुछ कहने की आवश्यकता न थी और अभी मैं इन बातों का निश्चय ही कर रहा था।

बीरेन्द्र : इस राय को तो मैं पसन्द करता हूँ।

तेज : राय पसन्द करने योग्य है और इसका जवाब भी लिख देना चाहिए।

बीरेन्द्र : हाँ, इसका जवाब लिख दो।

‘‘बहुत अच्छा’’ कहकर तेजसिंह ने अपने जेब से जस्ते की एक कलम निकाली और उस चीठी की पीठ पर जवाब लिखकर बीरेन्द्रसिंह को दिखाया राजा साहब ने उसे पसन्द किया और चीठी उसी सवार के हाथ में दे दी गयी। सवार सलाम करके टीले से नीचे उतर आया और घोड़े पर सवार होकर उसी तरफ चला गया, जिधर से आया था। सवार के चले जाने के बाद राजा बीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह भी टीले से नीचे उतरे और गुप्त विषय पर बातें करते हुए लश्कर की तरफ रवाना होकर थोड़ी ही देर में अपने खेमे के अन्दर जा पहुँचे।

इस सफर में राजा बीरेन्द्रसिंह का कायदा था कि दिन-रात में एक दफे किसी समय किशोरी और कमलिनी के डेरे में जरूर जाते, थोड़ी देर बैठते और हर तरह की ऊँच-नीच समझा-बुझाकर तथा दिलासा देकर अपने डेरे में लौट आते। इसी तरह उन दोनों के पास दो दफे तेजसिंह के जाने का भी मालूम था। जिस समय किशोरी और कामिनी के पास राजा साहब या तेजसिंह जाते, उस समय प्रायः सब लौंड़ियाँ अलग कर दी जातीं, केवल कमला उन दोनों के पास रह जाती थी। आज भी टीले पर से लौटने के बाद थोड़ी देर दम लेकर राजा बीरेन्द्रसिंह किशोरी और कामिनी के खेमे में गये और दो घड़ी तक वहाँ बैठे रहे, कुल लौंडियाँ हटा दी गयीं थी, केवल कमला मौजूद थी, जो उन दोनों के दुःख-सुख की साथी बन चुकी थी, और थी।

दो घड़ी तक वहाँ ठहरने बाद राजा साहब अपने खेमे में लौट आये, और तेजसिंह के साथ बैठकर तरह-तरह की बातें करने लगे, जब रात ज्यादे चली गयी तो राजा साहब ने चारपाई की शरण ली। तेजसिंह भी अपने खेमे में चले गये और खा-पीकर सो रहे।

तेजसिंह को चारपाई पर गये आधा घण्टा भी न बीता था कि चोबदार ने किशोरी की लौंडियों के आने की इत्तिला की। तेजसिंह तुरत उठ बैठे और उन लौडियों को अपने पास हाजिर करने की आज्ञा दी। थोड़ी ही देर में दो लौंड़ियाँ तेजसिंह से सामने आयीं, जिनमें से एक वही दया थी, जिसे वास्तव में मनोरमा कहना चाहिए।

तेज : (लौंडियों से) इस समय तुम लोगों के आने से आश्चर्य मालूम होता है।

दया : निःसन्देह आश्चर्य होता होगा, परन्तु क्या किया जाय, किशोरी जी की आज्ञा से हम लोगों को आना पड़ा।

तेज : क्या समाचार है?

दया : किशोरी जी ने हम लोगों को आपके पास भेजा है और कहा है कि यहाँ से थोड़ी दूर पर कोई ऐसी इमारत है जिसके अन्दर तिलिस्म होने का शक है। जब मैं कैदियों की तरह रोहतासगढ़ में रहती थी, तो यह बात राजा दिग्विजयसिंह की जुबानी सुनने में आयी थी। यदि यह बात ठीक है, तो आपकी कृपा से मैं इस इमारत को देखा चाहती हूँ।’

तेज : किशोरी का कहना तो ठीक है, निःसन्देह यहाँ से थोड़ी ही दूर पर एक इमारत है, जिसमें तरह-तरह की अद्भुत बातें देखने में आयी है, और मैं उस इमारत को देख चुका हूँ, मगर एक साथ कई आदमियों का उस इमारत के अन्दर जाना बहुत कठिन है। (कुछ सोचकर) अच्छा तुम लोग चलो, मैं महाराज से वहाँ जाने की आज्ञा लेकर बहुत जल्द किशोरी के पास आता हूँ।

दया : जो आज्ञा।

दोनों लौड़ियाँ सलाम करके किशोरी के पास चलीं गयीं, और जो कुछ तेजसिंह ने उनसे कहा था, वह किशोरी के सामने अर्ज किया। इस समय वहाँ किशोरी, कामिनी और कमला एक साथ बैठी हुई थी, और कई लौंड़ियाँ भी मौजूद थीं।

थोड़ी देर बाद तेजसिंह के आने की इत्तिला मिली और कमला उनको लेने के लिए खेमे के बाहर गयी। जब तेजसिंह खेमे के अन्दर आये तो उन्हें देख किशोरी और कामिनी उठ खड़ी हुईं और जब तेजसिंह बैठ गये तो अदब के साथ, उनके सामने बैठ गयी।

तेज : (किशोरी से) उस इमारत की याद यकायक कैसे आ गयी?

किशोरी : अकस्मात् उस इमारत की याद आ गयी। कामिनी बहिन को भी उसके देखने का बहुत शौक है। मैंने सोचा कि ऐसा मौका फिर काहे को मिलेगा। वह इमारत रास्ते में ही पड़ती है, यदि आपकी कृपाहोगी तो हम लोग उसे देख लेगीं।

तेज : बात तो ठीक है, और वह इमारत भी देखने योग्य है, मैं तुम्हें वहाँ ले जा सकता हूँ और महाराज से आज्ञा भी ले आया हूँ, मगर तुम अपने साथ किसी लौंड़ी को वहाँ न ले जा सकोगी।

किशोरी : कामिनी बहिन और कमला का चलना तो आवयश्यक है और ये दोनों न जाँयगी तो मुझे उसके देखने का आनन्द ही क्या मिलेगा?

तेज : इन दोनों के लिए मैं मना नहीं करता, मैं रथ जोतने के लिए हुक्म दे आया हूँ, अभी आता होगा। तुम तीनों उस रथ पर सवार हो जाओ, घोड़े की रास मैं लूँगा और तुम लोगों को वहाँ ले चलूँगा, सिवाय हम चार आदमियों के और कोई भी न जायगा।

किशोरी : जब आप स्वयं हम लोगों के साथ हैं तो हमें और किसी की जरूरत क्या है?

तेज : यदि इस समय हम लोग रथ पर सवार होकर रवाना होंगे तो घण्टे-भर के अन्दर ही वहाँ जा पहुँचेंगे, छः-सात घण्टे में उस इमारत को अच्छी तरह से देख लेंगे इसके बाद यहाँ लौटने की कोई जरूरत नहीं है अगले पड़ाव की तरफ चले जायेंगे, जब तक हमारा लश्कर यहाँ से कूच करके अगले पड़ाव पर पहुँचेगा, तब तक हम लोग भी वहाँ पहुँच जायँगे।

किशोरी : जैसी मर्जी।

थोड़ी ही देर बाद इत्तिला मिली कि दो घोड़ों का रथ हाजिर है। तेजसिंह उठ खड़े हुए, पर्दे का इन्तजाम किया गया किशोरी कामिनी और कमला उस सवार करायी गयी, तेजसिंह ने घोड़ों की रास सम्हाली और रथ तेजी के साथ वहाँ रवाना हुआ।

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