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चन्द्रकान्ता सन्तति - 4

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8402
आईएसबीएन :978-1-61301-029-7

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चन्द्रकान्ता सन्तति - 4 का ई-पुस्तक संस्करण...

छठवाँ बयान


रात बीत गयी, पहर-भर-दिन चढ़ने बाद राजा बीरेन्द्रसिंह का लश्कर अगले पड़ाव पर जा पहुँचा और उसके घण्टे-भर बाद तेजसिंह भी रथ लिये हुए आ पहुँचे। रथ जनाने डेरे के आगे लगाया गया, पर्दा करके जनानी सवारी (किशोरी, कामिनी और कमला) उतारी गयीं और रथ नौकरों के हवाले करके तेजसिंह राजा साहब के पास चले गये।

आज के पड़ाव पर हमारे बहुत दिनों के बिछुड़े हुए ऐयार लोग अर्थात् पन्नालाल, रामनारायण, चुन्नीलाल और पण्डित बद्रीनाथ भी आ मिले, क्योंकि इन लोगों को राजा साहब के चुनारगढ़ जाने की इत्तिला पहिले ही से दे दी गयी थी। ये लोग उसी समय उस खेमे में चले गये, जहाँकि राजा बीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह एकान्त में बैठे बातें कर रहे थे। इन चारों ऐयारों को आशा थी कि राजा बीरेन्द्रसिंह के साथ-ही-साथ चुनारगढ़ जायँगे, मगर ऐसा न हुआ, इसी समय कई काम उन लागों के सुपुर्द हुए और राजा साहब की आज्ञानुसार वे चारों ऐयार वहाँ से रवाना होकर पूरब की तरफ चले गये।

राजा बीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह को इस बात की आहट लग गयी थी कि मनोरमा भेष बदले हुए हमारे लश्कर के साथ चल रही है और धीरे-धीरे उसके मददगार लोग भी रूप बदल कर लश्कर में चले आ रहे हैं, मगर तेजसिंह को उसके गिरफ्तार करने का मौका नहीं मिलता था। उन्हें इस बात का पूरा-पूरा विश्वास था कि मनोरमा निःसन्देह किसी लौंडी की सूरत में होगी, मगर बहुत-सी लौंडियों में से मनोरमा को जो बड़ी धूर्त और ऐयार थी छाँटकर निकाल लेना कठिन काम था। मनोरमा के न पकड़े जाने का एक सबब और भी था, तेजसिंह इस बात को तो सुन ही चुके थे कि मनोरमा ने बेवकूफ नानक से तिलिस्मी खंजर ले लिया था। अस्तु, तेजसिंह का खयाल यही था कि मनोरमा तिलिस्मी खंजर अपने पास अवश्य रखती होगी। यद्यपि राजा साहब की बहुत सी लौड़ियाँ खंजर रखती थी, मगर तिलिस्मी खंजर रखने वालो को पहिचान लेना तेजसिंह मामूली काम समझते थे, और उनकी निगाह इसलिए बार-बार तमाम लौंडियों की उँगलियों पर पड़ती थी कि तिलिस्मी खंजर के जोड़ की अँगूठी किसी-न-किसी की उँगली में जरूर दिखायी दे जायगी और जिसकी उँगली में वैसी अँगूठी दिखायी देगी उसे ही मनोरमा समझ के तुरत गिरफ्तार कर लेंगे।

यह सबकुछ था, मगर मनोरमा भी कुछ कम चाँगली न थी और उसकी होशियारी और चालाकी ने तेजसिंह को पूरा धोखा दिया। इस बात को मनोरमा के पहिले ही से विचार चुकी थी कि मेरे हाथ में तिलिस्मी खंजर के जोड़ की अँगूठी अगर तेजसिंह देखेंगे तो मेरा भेद खुल जायगा, अतएव उसने बड़ी मुस्तैदी और हिम्मत का काम किया, अर्थात् इस लश्कर में आ मिलने के पहिले ही उसने इस बात को आजमाया कि तिलिस्मी खंजर के जोड़ की अँगूठी केवल उँगली ही में पहिरने से काम देती है, या बदन में किसी भी हिस्से के साथ लगे रहने से उसका फायदा पहुँचता है। परीक्षा करने पर जब उसे मालूम हुआ कि वह तिलिस्मी अँगूठी केवल उँगली ही में पहिरने के लिए नहीं है, बल्कि बदन के किसी भी हिस्से के साथ लगे रहने से ही अपना काम कर सकती है तब उसने अपनी जंघा चीर के तिलिस्मी खंजर के जोड़े की अँगूठी उसमें भर दी और ऊपर से सीकर तथा मरहम पट्टी लगाकर आराम कर लिया। इसी सबब से आज तिलिस्मी खंजर रहने पर भी तेजसिंह उसे पहिचान नहीं सके, मगर तेजसिंह का दिल इस बात को भी कबूल नहीं कर सकता था कि मनोरमा इस लश्कर में नहीं है, बल्कि मनोरमा के मौजूद होने का विश्वास उन्हें उतना ही था, जितना पढ़े-लिखे आदमी को एक और एक दो होने का विश्वास होता है।

आज तेजसिंह ने यह हुक्म जारी किया कि किशोरी, कामिनी और कमला के खेमें में उस समय कोई लौडी न रहे, और न जाने पावे, जब वे तीनों निद्रा की अवस्था में हों, अर्थात् जब वे तीनों जागती रहें, तब तक लौंडियाँ उनके पास रहें और आ-जा सकें, परन्तु जब वे तीनों सोने की इच्छा करें, तब एक भी लौंडी खेमे में न रहने पावे और जब तक कमला घण्टी बजाकर किसी लौंडी को बुलाने का इशारा न करे, तब तक कोई लौंडी खेमे के अन्दर न जाय, और उस खेमे के चारों तरफ बड़ी मुस्तैदी के साथ पहरा देने का इन्तजाम रहे।

इस आज्ञा को सुनकर मनोरमा बहुत ही चिटकी और मन में कहने लगी कि तेजसिंह भी बड़ा बेवकूफ आदमी है, भला ये सब बातें मनोरमा के हौसले को कभी कम कर सकती हैं? बल्कि मनोरमा अपने काम में अब और शीघ्रता करेगी! क्या मनोरामा केवल इसी काम के लिए इस लश्कर में आयी है कि किशोरी को मारकर चली जाय? नहीं नहीं, वह इससे भी बढ़ कर काम करने के लिए आयी है। अच्छा अच्छा तेजसिंह को इस चालाकी का मजा आज ही न चखाया तो कोई बात नहीं! किशोरी, कामिनी और कमला को या इन तीनों में से किसी एक को आज ही न मार खपाया तो मनेरमा नाम नहीं। रह तो नालायक। देखें, तेरी होशियारी कहाँ तक काम करती है’। ऐसी-ऐसी बहुत-सी बातें मनोरमा ने सोचीं और अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने का उद्योग करने लगी।

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