| मूल्य रहित पुस्तकें >> चन्द्रकान्ता सन्तति - 4 चन्द्रकान्ता सन्तति - 4देवकीनन्दन खत्री
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चन्द्रकान्ता सन्तति - 4 का ई-पुस्तक संस्करण...
आठवाँ बयान
 अब हम थोड़ा सा हाल इन्द्रदेव का बयान करते हैं, जो लक्ष्मीदेवी, कमलिनी, लाडिली और नकली बलभद्रसिंह को साथ लेकर अपने घर की तरफ रवाना हुए थे और जिसके साथ कुछ दूर तक भूतनाथ भी गया था।
नकली बलभद्रसिंह हथकड़ी-बेड़ी से जकड़ा हुआ एक डोली पर सवार कराया गया था, और कुछ फौजी सिपाही उसे चारों तरफ से घेरे हुए जा रहे थे। लक्ष्मीदेवी, कमलिनी तथा लाडिली पालकियों पर सवार करायी गयी थीं, और तीनों पालकियों के आगे-पीछे बहुत से सिपाही जा रहे थे। इन्द्रदेव एक उम्दा घोड़े पर सवार थे और भूतनाथ पैदल उनके साथ-साथ जा रहा था। दोपहर दिन चढ़े बाद जब इन लोगों का डेरा एक सुहावने जंगल में पड़ा तो भूतनाथ ने इन्द्रदेव से विदा माँगी। इन्द्रदेव ने कहा, ‘‘मुझे तो कोई उज्र नहीं है, मगर लक्ष्मीदेवी और कमलिनी से पूछा लेना जरूरी है। तुम मेरे साथ उनके पास चलो, मैं उन लोगों से छुट्टी दिला देता हूँ।’’
लक्ष्मीदेवी, कमलिनी और लाडिली की पालकी एक घने पेड़ के नीचे आमने-सामने रक्खी हुई थी, और उनके चारों तरफ कनात घिरी हुई थी। बीच में उम्दा फर्श बिछा हुआ था, और तीनों बहिनें उस पर बैठी बातें कर रही थीं। इन्द्रदेव अपने साथ भूतनाथ को लिये उन तीनों के पास गये और कमलिनी की तरफ देखकर बोले, ‘‘भूतनाथ बिदा होने की आज्ञा माँगता है।’’
इन्द्रदेव को देखकर तीनों बहिनें उठ खड़ी हुई और कमलिनी ने भूतनाथ को भी अपने सामने फर्श पर बैठने का इशारा किया। भूतनाथ बैठ गया तो बातें होने लगीं–
कमलिनी : (भूतनाथ से) भूतनाथ तुम्हारे मामले ने तो हम लोगों को बहुत परेशान कर रक्खा है। पहिले तो यही विश्वास हो गया था। कि तुम ही मेरे पिता के घातक हो और यह जैपालसिंह वास्तव में हमारा पिता है, वह खयाल तो अब जाता रहा, मगर तुम अभी तक बेकसूर साबित न हुए।
भूतनाथ : कसूरवार तो मैं जरूर हूँ, पहिले ही तुमसे कह चुका हूँ कि मेरे हाथ से कई बुरे काम हो चुके हैं, जिनके लिए मैं पछता रहा हूँ और अब नेक काम करके दुनिया में नेक नाम हुआ चाहता हूँ, और तुमने मेरी सहायता करने की प्रतिज्ञा की थी। तबसे तुम स्वयं देख रही हो कि मैं कैसे-कैसे काम कर रहा हूँ। यह सब कुछ है, मगर मैंने तुम्हारे पिता-माता या शायद तीनों बहिनों के साथ कभी कोई बुराई नहीं की इसे तुम निश्चय समझो, शायद यही सबब है कि ऐसे नाजुक समय में भी कृष्णाजिन्न ने मेरी सहायता की मालूम होता है कि वह मेरा हाल अच्छी तरह जानता है।
कमलिनी : खैर, यह तो जब तुम्हारा मुकद्दमा होगा, तब मालूम हो जायगा क्योंकि मैं बिलकुल नहीं जानती कि कृष्णाजिन्न कौन है और उसने तुम्हारा पक्ष क्यों लिया और राजा बीरेन्द्रसिंह ने क्यों कृष्णाजिन्न की बात मानकर तुम्हें कैद से छुट्टी दे दी।
लक्ष्मीदेवी : (भूतनाथ से) मगर मैं जहाँ तक समझती हूँ, यही जान पड़ता है कि तुम कृष्णाजिन्न को अच्छी तरह पहिचानते हो।
भूतनाथ : नहीं नहीं, कदापि नहीं। (खंजर हाथ में लेकर) मैं कसम खाकर कहता हूँ कि कृष्णाजिन्न को बिल्कुल नहीं पहिचानता, मगर उसकी कुदरत देखकर जरूर आश्चर्य करता हूँ और उससे डरता हूँ। यद्यपि उसने मुझे छुड़ा दिया, मगर तुम देखती हो कि भागकर जान बचाने की नीयत मेरी नहीं है। कई दफे स्वतन्त्र हो जाने पर भी मैंने तुम्हारे काम से मुँह नहीं फेरा और समय पड़ने पर जान तक देने को तैयार हो गया।
कमलिनी : ठीक है ठीक है, और अबकी दफे रोहतासगढ़ में पहुँचकर भी तुमने बड़ा काम किया, मगर इस बारे में मुझे एक बात का आश्चर्य मालूम होता है।
भूतनाथ : वह क्या?
कमलिनी : तुमने अपना हाल बयान करती समय कहा था कि मैंने तिलिस्मी खंजर से शेरअलीखाँ की सहायता की थी’।
भूतनाथ : हाँ, बेशक कहा था।
कमलिनी : तुम्हें जो तिलिस्मी खंजर मैंने दिया था वह तो मायारानी ने उस समय अपने कब्जे में कर लिया था, जब जमानिया तिलिस्म के अन्दर जानेवाली सुरंग में उसने तुम लोगों को बेहोश किया था। उसने राजा गोपालसिंह का भी तिलिस्मी खंजर लेकर नागर को दे दिया था। नागरवाला तिलिस्मी खंजर तो भैरोसिंह ने (इन्द्रदेव की तरफ इशारा कर) आपसे ले लिया था, जो मेरी इच्छानुसार अब तक भैरोसिंह के पास है, परन्तु तुम्हारे पास तिलिस्मी खंजर कहाँ से आ गया, जिससे तुमने काम लिया और जो अब तक तुम्हारे पास है।
भूतनाथ : आपको मालूम हुआ होगा कि मेरा खंजर जो मायारानी ने ले लिया था, उसे कृष्णाजिन्न ने रोहतासगढ़ किले के अन्दर उस समय मायारानी से छीन लिया था, जब वह शेरअलीखाँ को लेकर वहाँ गयी थी।
कमलिनी : हाँ, ठीक है, तो क्या वही खंजर कृष्णाजिन्न ने फिर तुम्हें दे दिया?
भूतनाथ : जी हाँ, (तिलिस्मी खंजर और उसके जोड़ की अँगूठी कमलिनी के आगे रखकर) अब यदि मर्जी हो तो ले लीजिए, यह हाजिर है।
कमलिनी : (कुछ सोचकर) नहीं, अब यह खंजर तुम अपने ही पास रक्खो, जब कृष्णाजिन्न ने, जिन्हें राजा बीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह मानते हैं तुम्हें दे दिया तो अब बिना उनकी इच्छा के छीन लेना मैं उचित नहीं समझती, (ऊँची साँस लेकर) क्या कहा जाय, तुम्हारे मामले में अक्ल कुछ भी काम नहीं करती।
इन्द्रदेव : भूतनाथ तुम देखते हो कि नकली बलभद्रसिंह को मैं अपने साथ लिये जाता हूँ, अगर तुम भी मेरे साथ चलके बातचीत करते तो...
भूतनाथ : नहीं नहीं, आप मुझे अपने साथ लेकर ले चलकर मुकाबला न कराइए, उसका सामना होने से ही मेरी जान सूख जाती है! यह तो मैं जानता ही हूँ कि एक-न-एक दिन मेरा और उसका सामना धूमधाम के साथ होगा, और जो कुछ कसूर मैंने किया है या उसका बिगाड़ा है, खुले बिना न रहेगा, परन्तु अभी आप क्षमा करें, थोड़े दिनों में मैं अपने बचाव का समान इकठ्ठा कर लूँगा और तब तक बलभद्रसिंह का पता भी लग जायगा, उनसे भी सहायता मिलने की मुझे आशा है, हाँ, यदि आप मेरी प्रर्थना स्वीकार न करें तो लाचार मैं साथ चलने के लिए हाजिर हूँ।
इन्द्रदेव : (कुछ सोचकर) खैर, कोई चिन्ता नहीं, तुम जाओ बलभद्रसिंह को खोज निकालने का उद्योग करो और इन्दिरा का भी पता लगाओ। अब मुझसे कब मिलोगे?
भूतनाथ : आठ-दस दिन बाद आपसे मिलूँगा, फिर जैसा मौका हो।
कमलिनी : अच्छा जाओ, मगर जो कुछ करना है, उसे दिल लगाके करो।
भूतनाथ : मैं कसम खाकर कहता हूँ कि बलभद्रसिंह को खोज निकालने की फिक्र सबसे ज्यादे दुनिया में जिस आदमी को है, वह मैं हूँ।
इतना कहकर भूतनाथ उठ खड़ा हुआ और अपने अड्डे की तरफ रवाना हो गया। तीसरे दिन अपने अड्डे पर पहुँचा जो बराबर की पहाड़ी पर था। वहाँ उसने अपने आदमी दाऊ बाबा की जुबानी नानक का हाल सुना और क्रोध से भरा हुआ केवल दो घण्टे वहाँ रहने के बाद पहाड़ी के नीचे उतरकर, उस जंगल की तरफ रवाना हो गया, जहाँ पहिले-पहल श्यामसुन्दरसिंह और भगवनिया के सामने नकली बलभद्रसिंह से उसकी मुलाकात हुई थी।
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