लोगों की राय

मूल्य रहित पुस्तकें >> चन्द्रकान्ता सन्तति - 4

चन्द्रकान्ता सन्तति - 4

देवकीनन्दन खत्री

Download Book
प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8402
आईएसबीएन :978-1-61301-029-7

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

354 पाठक हैं

चन्द्रकान्ता सन्तति - 4 का ई-पुस्तक संस्करण...

आठवाँ बयान


आनन्दसिंह की आवाज सुनने पर इन्द्रजीतसिंह का शक जाता रहा और वे आनन्दसिंह के आने का इन्तजार करते हुए नीचे उतर आये, जहाँ थोड़ी ही देर बाद उन्होंने अपने छोटे भाई को उसी राह से आते देखा, जिस राह से वे स्वयं इस मकान में आये थे।

इन्द्रजीतसिंह अपने भाई के लिए बहुत ही दुःखी थे। उन्हें विश्वास हो गया था कि आनन्दसिंह किसी आफत में फँस गये और बिना तरद्दुद के उनका छूटना कठिन है, मगर थोड़ी ही देर में बिना झंझट के उनके आ मिलने से उन्हें कम ताज्जुब न हुआ। उन्होंने आनन्दसिंह को गले से लगा लिया और कहा–

इन्द्रजीत : मैं तो समझता था कि तुम किसी आफत में फँस गये और तुम्हारे छुड़ाने के लिए बहुत ज्यादा तरद्दुद करना पड़ेगा।

आनन्द : जी नहीं, वह मामला तो बिल्कुल खेल ही निकला। सच तो यह है कि इस तिलिस्म में दिल्लगी और मसखरेपन का भाग भी मिला हुआ है।

इन्द्रजीत : तो तुम्हें किसी तरह की तकलीफ नहीं हुई?

आनन्द : कुछ भी नहीं, हवा के खिंचाव के कारण जब मैं शीशे के अन्दर चला गया तो वह शीशे का टुकड़ा, जिसे दरवाजा कहना चाहिए बन्द हो गया और मैंने अपने को पूरे अन्धकार में पाया। तिलिस्मी खंजर का कब्जा दबाकर रोशनी की तो सामने एक छोटा-सा दरवाजा एक पल्ले का दिखायी पड़ा, जिसमें खैंचने के लिए लोहे की दो कड़ियाँ लगी हुई थीं। मैंने बायें हाथ से एक कड़ी पकड़कर दरवाजा खैंचना चाहा, मगर वह थोड़ा-सा खिंचकर रह गया, सोचा कि इसमें दो कड़ियाँ लगी हुई थीं। मैंने बायें हाथ से एक कड़ी पकड़कर दरवाजा खैंचना चाहा, मगर वह थोड़ा सा खिंचकर रह गया, सोचा कि इसमें दो कड़ियाँ इसीलिए लगी हैं कि दोनों हाथों से पकड़कर दरवाजा खींचा जाय। अस्तु, तिलिस्मी खंजर म्यान में रख लिया, जिससे पुनः अन्धकार हो गया और इसके बाद दोनों हाथ से कड़ियों को पकड़कर अपनी तरफ खींचना चाहा, मगर मेरे दोनों हाथ उन कड़ियों में चिपक गये और दरवाजा भी न खुला। उस समय मैं बहुत ही घबड़ा गया और हाथ छुड़ाने के लिए जोर करने लगा। दस-बारह पल के बाद वह कड़ी पीछे की तरफ हटी और मुझे खींचती हुई दूर तक ले गयी। मैं यह नहीं कह सकता कि कड़ियों के साथ ही दरवाजे का कितना बड़ा भाग पीछे की तरफ हटा था, मगर इतना मालूम हुआ कि मैं ढालुवीं जमीन की तरफ जा रहा हूँ। आखिर जब उन कड़ियों का पीछे हटना बन्द हो गया तो मेरे दोनों हाथ भी छूट गये, इसके बाद थोड़ी देर तक घड़घड़ाहट की आवाज आती रही, और तब तक मैं चुपचाप खड़ा रहा।

जब घबड़ाहट की आवाज बन्द हो गयी तो मैंने तिलिस्मी खंजर निकालकर रोशनी की और अपने चारों तरफ गौर करके देखा। जिधर से ढालुवीं जमीन उतरती हुई वहाँ तक पहुँची थी, उस तरफ अर्थात् पीछे की तरफ बिना चौखट का एक बन्द दरवाजा पाया, जिससे मालूम हुआ कि अब मैं पीछे की तरफ नहीं हट सकता, मगर दाहिनी तरफ एक और दरवाजा देखकर मैं उसके अन्दर चला गया, और दो कदम के बाद घूमकर फिर मुझे ऊँची जमीन चढ़ाव पड़ा, जिससे साफ मालूम हो गया कि मैं जिधर से उतरता हुआ आया था, अब उसी तरफ पुनः जा रहा हूँ। कई कदम जाने के बाद पुनः एक बन्द दरवाजा मिला, मगर वह आपसे आप खुल गया। जब मैं उसके अन्दर गया तो अपने को उसी शीशेवाले मकरे में पाया और घूमकर पीछे की तरफ देखा तो साफ दीवार नजर पड़ी। यह नहीं मालूम होता था कि मैं किसी दरवाजे को लाँघकर कमरे में आ पहुँचा हूँ, इसी से मैं कहता हूँ कि तिलिस्म बनानेवाले मसखरे भी थे, क्योंकि उन्हीं की चालाकियों ने मुझे घुमा-फिराकर पुनः उसी कमरे में पहुँचा दिया, जिसे एक तरह की जबरदस्ती कहना चाहिए।

मैं उस कमरे में खड़ा हुआ ताज्जुब से उसी शीशे की तरफ देख रहा था कि पहिले की तरह दो आदमियों के बातचीत की आवाज सुनयी दी। मैं आपके साथ उस कमरे में था, तब तक जो बातें सुनने में आयी थीं वे ही पुनः सुनीं, और जिन लोगों को उस आइने के अन्दर आते-जाते देखा था, उन्हीं को पुनः देखा भी। निःसन्देह मुझे बड़ा ही ताज्जुब हुआ और मैं बड़े गौर से तरह-तरह की बातों को सोच रहा था कि इतने ही में आपकी आवाज सुनायी दी और आपकी आज्ञानुसार अजहदे के मुँह में जाकर यहाँ तक आ पहुँचा। आप यहाँ किस राह से आये हैं?

इन्द्रजीत : मैं भी उसी अजहदे के मुँह में होता हुआ आया हूँ और यहाँ आने पर मुझे जो-जो बातें मालूम हुई हैं उनमें शीशेवाले कमरे का कुछ भेद मालूम हो गया।

आनन्द : सो क्या?

इन्द्रजीत : मेरे साथ आओ, मैं सब तमाशा तुम्हें दिखाता हूँ।

अपने छोटे भाई को साथ लिये कुँअर इन्द्रजीतसिंह नीचे के खण्डवाली चीजों को दिखाकर ऊपर वाले खण्ड में गये और वहाँ से बिल्कुल हाल कहा। बाजा और मूरत इत्यादि भी दिखायी और बाजे के बोलने तथा मूरत के चलने-फिरने के विषय में भी अच्छी तरह समझाया, जिससे इन्द्रजीतसिंह की तरह आनन्दसिंह का भी शक जाता रहा, इसके बाद आनन्दसिंह ने पूछा, ‘‘अब क्या करना चाहिए?’’

इन्द्रजीत : यहाँ से बाहर निकलने के लिए दरवाजा खोलना चाहिए। मैं यह निश्चय कर रहा हूँ कि इस खण्ड के ऊपर जाने के लिए कोई रास्ता नहीं है और न ऊपर जाने से कुछ काम ही चलेगा, अतएव हमें पुनः नीचेवाले खण्ड में चलकर दरवाजा ढूँढ़ना चाहिए, या तुमने अगर कोई और बात सोची हो तो कहो।

आनन्द : मैं तो यह सोचता हूँ कि हम आखिर तिलिस्म तोड़ने के लिए ही तो यहाँ आये हैं, इसलिए जहाँ तक बन पड़े यहाँ की चीजों को तोड़-फोड़ और नष्ट-भ्रष्ट करना चाहिए, इसी बीच में कहीं-न-कहीं कोई दरवाजा दिखायी दे ही जायगा।

इन्द्रजीत : (मुस्कुराकर) यह भी एक बात है, खैर तुम अपने ही खयाल के मुताबिक कार्रवाई करो, हम तमाशा देखते हैं।

आनन्द : बहुत अच्छा, तो आइए पहिले उस दरवाजे को खोलें, जिसके अन्दर पुतलियाँ जाती हैं।

इतना कहकर आनन्दसिंह उस दालान में गये, जिसमें कमलिनी लाडिली तथा और ऐयारों की मूरतें थीं। हम ऊपर लिख चुकें हैं कि ये मूरतें लोहे की नालियों पर चलकर जब शीशेवाली दीवार के पास पहुँचती थीं, तो वहाँ का दरवाजा आप-से-आप खुल जाता था आनन्दसिंह भी उसी दरवाजे के पास गये, और कुछ सोचकर उन्हीं नालियों पर पैर रक्खा, जिन पर पुतलियाँ चलती थीं।

नालियों पर पैर रखने के साथ ही दरवाजा खुल गया और दोनों भाई उस दरवाजे के अन्दर चले गये। इन्हें वहाँ दो रास्ते दिखायी पड़े, एक दरवाजा तो बन्द था और जंजीर में एक भारी ताला लगा हुआ था और दूसरा रास्ता शीशेवाली दीवार की तरफ गया हुआ था, जिसमें पुतलियों के आने-जाने के लिए नालियाँ भी बनी हुई थीं। पहिले दोनों कुमार पुतलियों के चलने का हाल मालूम करने की नीयत से उसी तरफ गये और वहाँ अच्छी तरह घूम-फिरकर देखने और जाँच करने पर जो कुछ उन्हें मालूम हुआ, उसका तत्त्व हम नीचे लिखते हैं।

वहाँ शीशे की तीन दीवारें थीं और हर एक के बीच में आदमियों के चलने-फिरने लायक रास्ता छूटा हुआ था। पहिली शीशे की दीवार जो कमरे की तरफ थी, सादी थी, अर्थात् उस शीशे के पीछे पारे की कलई की हुई न थी। हाँ उसके बाद वाली दूसरी शीशेवाली दीवार में कलई की हुई थी और वहाँ जमीन पर पुतलियों के चलने के लिए नालियाँ भी कुछ इस ढंग की बनी हुई थीं कि बाहरवालों को दिखायी न पड़े और पुतलियाँ कलई वाले शीशे के साथ सटी हुई चल सकें। यही सबब था कि कमरे की तरफ से देखनेवालों को शीशे के अन्दर आदमी चलता हुआ मालूम पड़ता था और उन नकली आदमियों की परछाईं भी जो शीशे में पड़ती थी, साथ सटे रहने के कारण देखनेवाले को दिखायी नहीं पड़ती थी। मूरतें आगे जाकर घूमती हुई दीवार के पीछे चली जाती थीं, जिसके बाद फिर शीशे की दीवार थी और उस पर नकली कलई की हुई थी। इस गली में भी नाली बनी हुई थी और उसी राह से मूरतें लौटकर अपने ठिकाने जा पहुँचती थी।

इन सब चीजों को देखकर जब कुमार लौटे तो बन्द दरवाजे के पास आये, जिसमें एक बड़ा-सा ताला लगा हुआ था। खंजर से जंजीर काटकर दोनों भाई उसके अन्दर गये, तीन-चार कदम जाने बाद नीचे उतरने के लिए सीढ़ियाँ मिलीं। इन्द्रजीतसिंह अपने साथ में तिलिस्मी खंजर लिये हुए रोशनी कर रहे थे।

दोनों भाई सीढ़ियाँ उतरकर नीचे चले गये और इसके बाद उन्हें एक बारीक सुरंग में चलना पड़ा। थोड़ी देर के बाद एक और दरवाजा मिला, उसमें भी ताला लगा हुआ था। आनन्दसिंह ने तिलिस्मी खंजर से उसकी भी जंजीर काट डाली और दरवाजा खोलकर दोनों भाई उसके भीतर चले गये।

इस समय दोनों कुमारों ने अपने को एक बाग में पाया। वह बाग छोटे-छोटे जगंली पेड़ों और लताओं से भरा हुआ था। यद्यपि यहाँ की क्यारियाँ निहायत खूबसूरत और संगमर्मर के पत्थर से बनी हुई थीं, मगर उसमें सिवाय झाड़-झंखाड़ के और कुछ न था। इसके अतिरिक्त और भी चारों तरफ एक प्रकार का जंगल हो रहा था, हाँ दो-चार पेड़ फल के वहाँ जरूर थे और एक छोटी सी नहर भी एक तरफ से आकर बाग में घूमती हुई, दूसरी तरफ निकल आयी थी। बाग के बीचोंबीच में एक छोटा-सा बंगला बना हुआ था, जिसकी जमीन दीवारें और छतें इत्यादि सब पत्थर की और मजबूत बनी हुई थीं, मगर फिर भी उसका कुछ भाग टूट-फूटकर खराब हो रहा था।

जिस समय दोनों कुमार इस बाग में पहुँचे उस समय दिन बहुत कम बाकी था, और ये दोनों भाई भी भूख-प्यास और थकावट से परेशान हो रहे थे। अस्तु  नहर के किनारे जाकर दोनों ने हाथ-मुँह धोया और जरा आराम लेकर जरूरी कामों के लिए चले गये। उससे छुट्टी पाने बाद दो-चार फल तोड़कर खाये और नहर का जल पीकर इधर-उधर घूमने फिरने लगे। उस समय उन दोनों को यह मालूम हुआ कि जिस दरवाजे की राह से वे दोनों इस बाग में आये थे, वह आप-से-आप ऐसा बन्द हो गया कि उसके खुलने की कोई उम्मीद नहीं।

दोनों भाई घूमते हुए बीचवाले बंगले में आये। देखा कि तमाम जमीन कूड़ा-कर्कट से खराब हो रही है। एक पेड़ से बड़े-बड़े पत्तेवाली छोटी डाली तोड़ जमीन साफ की और रात-भर उस जगह गुजारा किया।

सुबह को जरूरी कामों से छुट्टी पाकर दोनों भाइयों ने नहर में दुपट्टा (कमरबन्द) धोकर सूखने को डाला और जब वह सूख गया तो स्नान-पूजा से निश्चिन्त हो, दो-चार फल खाकर पानी पिया और पुनः बाग में घूमने लगे।

इन्द्रजीत : जहाँ तक मैं सोचता हूँ, यह वही बाग है, जिसका हाल तिलिस्मी बाजे से मालूम हुआ था, मगर उस पिण्डी का पता नहीं लगता।

आनन्द : निःसन्देह यह वही बाग है! यह बीचवाला बंगला हमारा शक दूर करता है और इसीलिए जल्दी करके एक बाग के बाहर हो जाने की फिक्र न करनी चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि ‘मनुबाटिका’ यही जगह हो और हम धोखे में आकर इसके बाहर हो जायँ। बाजे ने भी यही कहा था कि यदि अपना काम किये बिना ‘मनुबाटिका’ के बाहर हो जाओगे तो तुम्हारे किये कुछ भी न होगा, न तो पुनः ‘मनुबाटिका’ में जा सकोगे और न अपनी जान बचा सकोगे।

इन्द्रजीत : ‘रिक्तगन्थ’ में भी तो यही बात लिखी है, इसलिए मैं भी यहाँ से बाहर निकल चलने के लिए नहीं कह सकता, मगर अब जिस तरह हो, उस पिण्डी का पता लगाना चाहिए।

पाठक, तिलिस्मी किताब (रिक्तगन्थ) और तिलिस्मी बाजे से दोनों कुमारों को यह मालूम हुआ था कि मनुबाटिका में किसी जगह जमीन पर एक छोटी-सी पिण्डी बनी हुई मिलेगी। उसका पता लगाकर उसीको अपने मतलब का दरवाजा समझाना। यही सबब था कि दोनों कुमार उस पिण्डी को खोज निकलाने की फिक्र में लगे हुए थे, मगर उस पिण्डी का पता नहीं लगता था। लाचार उन्हें कई दिनों तक उस बाग में रहना पड़ा, आखिर एक घनी झाड़ी के अन्दर उस पिण्डी का पता लगा। वह करीब हाथ-भर के ऊँची और तीन हाथ के घेरे में होगी और यह किसी तरह भी मालूम नहीं हो रहा था कि वह पत्थर की है या लोहे-पीतल इत्यादि किसी धातु की बनी हुई है। जिस चीज से वह पिण्डी बनी हुई थी, उस चीज से बना हुआ सर्यूमुखी का एक फूल उसके ऊपर जड़ा हुआ था, और यही उस पिण्डी की पूरी पहिचान थी। आनन्दसिंह ने खुश होकर इन्द्रजीतसिंह से कहा–

आनन्द : किसी तरह ईश्वर की कृपा से इस पिण्डी का पता तो लगा। मैं समझता हूँ, इसमें आपको किसी तरह का शक न होगा?

इन्द्रजीत : मुझे किसी तरह का शक नहीं है, यह पिण्डी निःसन्देह वही है, जिसे हम लोग खोज रहे थे। अब इस जमीन को अच्छी तरह साफ करके अपने सच्चे सहायक रिक्तगन्थ से हाथ धो बैठने के लिए तैयार हो जाना चाहिए।

आनन्द : जी हाँ, ऐसा ही होना चाहिए, यदि गिक्तगन्थ में कुछ सन्देह हो तो उसे पुनः देख जाइए।

इन्द्रजीत : यद्यपि इस ग्रन्थ में मुझे किसी तरह का सन्देह नहीं है, और जो कुछ उसमें लिखा हुआ है, मुझे अच्छी तरह याद है, मगर शक मिटाने के लिए एक दफे उलट-पलटकर जरूर देख लूँगा।

आनन्द : मेरा भी यही इरादा है। यह काम घण्टे-दो-घण्टे के अन्दर हो भी जायगा। अस्तु, आप पहिले ‘रिक्तगन्थ’ देख जाइए तब तक मैं इस झाड़ी को साफ किये डालता हूँ।

इतना कहकर आनन्दसिंह ने तिलिस्मी खञ्जर से काटके पिण्डी के चारों तरफ के झाड़-झंखाड़ को साफ करना शुरू किया और इन्द्रजीतसिंह नहर के किनारे बैठकर तिलिस्मी किताब को उलट-पुलटकर देखने लगे।

थोड़ी देर बाद इन्द्रजीतसिंह, आनन्दसिंह के पास आये और बोले–‘‘लो अब तुम भी इसे देखकर अपना शक मिटा लो और तब तक तुम्हारे काम को मैं पूरा कर डालता हूँ!’’

आनन्दसिंह ने अपना काम छोड़ दिया और अपने भाई के हाथ से रिक्तगन्थ लेकर नहर के किनारे चले गये, तथा इन्द्रजीतसिंह ने तिलिस्मी खंजर से पिण्डी के चारों तरफ की सफाई करनी शुरू कर दी। थोड़ी ही देर में जो कुछ घास-फूस झाड़-झंखाड़ पिण्डी के चारों तरफ था साफ हो गया और आनन्दसिंह भी तिलिस्मी किताब देखकर अपने भाई के पास चले आये और बोले, ‘‘अब क्या आज्ञा है?’’

इसके जवाब में इन्द्रजीतसिंह ने कहा, ‘‘बस अब नहर के किनारे चलो और रिक्तगन्थ का आटा गूँधो।’’

दोनों भाई नहर के किनारे आये और एक ठिकाने सायेदार जगह देखकर बैठ गये। उन्होंने नहर के किनारेवाले एक पत्थर की चट्टान को जल से अच्छी तरह धोकर साफ किया और इसके बाद रिक्तगन्थ पानी में डूबोंकर उस पत्थर पर रख दिया। देखते-ही-देखते जो कुछ पानी रिक्तगन्थ में लगा था, सब उसी में पच गया। फिर हाथ से उस पर डाला, वह भी पच गया। इसी तरह बार-बार चुल्लू भर-भरकर उस पर पानी डालने लगे और ग्रन्थ पानी पी-पीकर मोटा होने लगा। थोड़ी देर के बाद वह मुलायम हो गया और तब आनन्दसिंह ने उसे हाथ से मलके आटे की तरह गूँथना शुरू किया। शाम होने तक उसकी सूरत ठीक गूँथे हुए आटे की तरह हो गयी, मगर रंग इसका काला था। आनन्दसिंह ने इस आटे को उठा लिया और अपने भाई के साथ उस पिण्डी के पास आकर उसकी आज्ञानुसार तमाम पिण्डी पर उसका लेप कर दिया। इसके बाद दोनों भाई यहाँ से किनारे हो गये और जरूरी कामों से छुट्टी पाने के काम में लगे।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book