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चन्द्रकान्ता सन्तति - 5

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8403
आईएसबीएन :978-1-61301-030-3

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चन्द्रकान्ता सन्तति 5 पुस्तक का ई-संस्करण...

दसवाँ बयान


रात अनुमान दो पहर की जा चुकी है। खास बाग के दूसरे दर्जे में दीवानखाने की छत पर कुबेरसिंह, भीमसेन और उसके चारों ऐयार तथा माधवी के साथ बैठी हुई मायारानी बड़ी प्रसन्नता से बातें कर रही है। चाँदनी खूब छिटकी हुई है, और बाग की हरएक चीज, जहाँ तक निगाह बिना ठोकर खाये जा सकती है, साफ दिखायी दे रही है। बातचीत का विषय अब यह था कि ‘राजागोपालसिंह से तो छुट्टी मिल गयी, अब राज्य तथा राजकर्मचारियों के लिए क्या प्रबन्ध करना चाहिए?"

जिस छत पर ये लोग बैठ हुए थे, उसके दाहिनी तरफवाली पट्टी में भी एक सुन्दर इमारत और उसके पीछे ऊँची दीवार के बाद तिलिस्मी बाग का तीसरा दरजा पड़ता था। इस समय मायारानी का मुँह ठीक उसी इमारत और दीवार की तरफ था, और उस तरफ की चाँदनी दरवाजों के अन्दर छुसकर बड़ी बहार दिखा रही थी। बात करते-करते मायारानी चौंकी और उस तरफ का इशारा करके बोलीं—"है! उस छत पर कौन जा पहुँचा है?"

माधवी : हाँ, एक आदमी हाथ में नंगी तलवार लेकर टहल तो रहा है।

भीमसेन : चेहरे पर नकाब डाले हुए है।

कुबेर : हमारे फौजी सिपाहियों में से शायद कोई ऊपर चला गया होगा, मगर उन्हें बिना हुक्म ऐसा करना नहीं चाहिए!

माया : नहीं नहीं, उस मकान में सिवा मेरे और कोई नहीं जा सकता।

माधवी : तो फिर वहाँ गया कौन?

माया : यही तो ताज्जुब है! देखिए एक और भी आ पहुँचा, यह तीसरा भी आया, मामला क्या है?

अजायब : कहीं राजा गोपालसिंह कूएँ में घुसकर वहाँ न जा पहुँचे हों! मगर वे तो केवल दो ही आदमी थे!!

माया : और ये तीन हैं! (कुछ रुककर) लीजिए अब पाँच हो गये।

मायारानी और उसके संगी-साथियों के देखते-देखते उस छत पर पचीस आदमी हो गये। उन सभों ही के हाथों में नंगी तलवारें थी। जिस छत पर वे सब थे, वहाँ पर से ऊपर मायारानी के पास तक आने में यद्यपि कई तरह की रुकावटें थीं, मगर ऐयारों के लिए यह कोई मुश्किल बात न थी। इसलिए मायारानी के पक्षवालों को भय हुआ और उन्होंने चाहा कि अपने फौजी आदमियों में से कुछ को ऊपर बुला लें और ऐसा करने के लिए अजयाबसिंह को कहा गया।

अजायबसिंह फौजी सिपाहियों को लाने के लिए चला गया, मगर मकान के नीचे न जा सका और तुरत लौट आकर बोला, "जाने का हर दरवाजा बन्द है, कोई तरकीब मायारानी करें तो शायद वहाँ तक पहुँचने की नौबत आवे?"

अजायबसिंह की इस बात ने सभों को चौंका दिया, और साथ ही इसके सभों को अपनी-अपनी जान की फिक्र पड़ गयी। मायारानी के दिलाये हुए भरोसे से जो कुछ उम्मीद की जड़ इन लोगों के दिलों में जमी थी, वह हिल गयी और अब अपने किये पर पछताने की नौबत आयी, मगर मायारानी अब भी बात बनाने से न चूकी, यह कहती हुई अपनी जगह से उठी कि कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह इस तिलिस्म को तोड़ रहे हैं, इसलिए ताज्जुब नहीं कि ये सब बातें कुछ उन्हीं से सम्बन्ध रखती हो।"

मायारानी स्वयं नीचे उतरी मगर जा न सकी और अजायबसिंह की तरह लाचार होकर बैरंग लौट आयी। उस समय उसके दिल में भी तरह तरह के खुटके पैदा हुए और वह ताज्जुब की निगाह से उन लोगों की तरफ देखने लगी, जो उसके मुकाबले में एकाएक आकर अब गिनती में पचीस हो गये थे।

थोड़ी देर बाद वे ऊपर से कूदते-फाँदते मायारानी की तरफ आते हुए दिखायी दिये। उस समय मायारानी और उसके संगी-साथी सभी उठ खड़े हुए और अपनी जान बचाने की नीयत से तलवारें खैंच-खैच मुस्तैद हो गये।

बात-की-बात में वे पचीसों आदमी उस छत पर चले आये, जिस पर मायारानी थी, मगर मायारानी या उसके साथियों से किसी ने कुछ भी नहीं कहा, बल्कि उनकी तरफ आँख उठाकर देखा भी नहीं और मस्तानी चाल से चलते हुए छत के नीचे उतर गये। इन लोगों ने भी यह सोचकर कि वे लोग गिनती में हमसे ज्यादे हैं, रोक-टोक न किया, मगर इस बात का खयाल जरूर रहा कि नीचे जाने के रास्ते तो सब बन्द हैं, खुद मायारानी भी न जा सकी और लौट आयी, इन सभों को भी निःसन्देह लौट आना पड़ेगा, मगर थोड़ी देर में गुमान जाता रहा, जब कि पचीसों नीचे उतरकर बाग के बीच में चलते हुए दिखायी दिये।

माधवी ने समझा कि हमारे फौजी सिपाही उन लोगों को जरूर टोकेंगे और वास्तव में बात ऐसी ही थी। उन पचीसों को बाग में देख फौजी सिपाहियों में खलबली मच गयी और बहुतों ने उठकर उन दोनों को रोकना चाहा, मगर वे लोग देखते-ही-देखते पेड़ों की झुरमुट में घुसकर ऐसा गायब हुए कि किसी का पता भी न लगा और सब लोग आश्चर्य से देखते रह गये। उस समय माधवी ने मायारानी से कहा, "बहिन, यहाँ तो मामला बेढब नजर आता है!"

माया : कुछ समझ में नहीं आता कि ये लोग कौन थे, यहाँ क्यों आये और हमलोगों को बिना रोके-टोके इस तरह क्यों और कहाँ गायब हो गये!

माधवी : यह तो ठीक ही है, मगर मैं पूछती हूँ कि आप तिलिस्म की रानी कहलाकर भी इस बाग का हाल क्या जानती हैं? मैं तो समझती हूँ कि कुछ भी नहीं जानतीं! खास अपने कमरे का मामूली दरवाजा भी आपसे नहीं खुलता और हम लोगों की जान मुफ्त में जाया चाहती है!!

भीमसेन : अब आपकी कोई कार्रवाई हम लोगों को भरोसा नहीं दिला सकती।

माया : इस समय मैं मजबूर हो रही हूँ इसलिए टेढ़ी-सीधी जो जी में आवे सुनाओ, लेकिन अगर इस मकान के नीचे उतरने की नौबत आयेगी तो दिखा दूँगी कि मैं क्या कर सकती हूँ।

कुबेर : नीचे जाने की नौबत ही क्यों आवेगी! गैर लोग आवें और चले जाँय, मगर यहाँ की रानी होकर तुम कुछ न कर सकी, यह बड़े शर्म की बात है।

मायारानी इसका जबाब कुछ दिया ही चाहती थी कि सीढ़ी की तरफ से आवाज आयी, "तुम लोगों के कलपने पर मुझे दया आती है, अच्छा आओ हम दरवाजा खोल देते हैं, तुम लोग नीचे उतर आओ और अपनी जान बचाओ!" इसके बाद सीढ़ीवाले दरवाजे के खुलने की आवाज आयी।

सभों को ताज्जुब हुआ और सीढ़ी की तरफ जाते डर मालूम हुआ, मगर यह सोचकर कि यहाँ पड़े रहने से भी जान बचने की आशा नहीं है, सभों ने जी कड़ा करके नीचे उतरने का इरादा किया।

वास्तव में दरवाजे जो बन्द हो गये थे खुले हुए दिखाई दिये और सब कोई जल्दी के साथ नीचे उतर गये, उस समय मायारानी ने एक लम्बी साँस लेकर कहा, "अब कोई चिन्ता नहीं।"

बाकर : मगर यह न मालूम हुआ कि दरवाजा खोलनेवाला कौन था?

यारअली : और उसने हम लोगों के साथ यह नेकी का वर्ताव क्यों किया?

इतने ही में से आवाज आयी, "दरवाजा खोलनेवाला मैं हूँ।"

इन सभों ने घबरा कर ऊपर की तरफ देखा। एक आदमी मुँह पर नकाब डाले बरामदे से झाँकता हुआ दिखायी दिया। कुबेरसिंह ने उससे पूछा, "तुम कौन हो?"

नकाबपोश : मैं इस तिलिस्म का दारोगा हूँ।

माया : इस तिलिस्मी का दारोगा तो राजा बीरेन्द्रसिंह के कब्जे में है।

नकाबपोश : वह तुम्हारा दारोगा था और मैं राजा गोपालसिंह का दारोगा हूँ, आजकल यह बाग मेरे ही कब्जे में है।

माया : जिस समय हम लोग यहाँ आये, तुम कहाँ थे?

नकाबपोश : इसी बाग में।

माया : फिर हम लोगों को रोका क्यों नहीं?

नकाबपोश : रोकने की जरुरत ही क्या थी यह तो मैं जानता ही था कि तुम लोग अपने पैर में आप कुल्हाड़ी मार रहे हो। तुम लोगों की बेवकूफी पर मुझे हँसी आती है।

माया : बेवकूफी काहे की?

नकाबपोश : एक तो यही कि तुम लोगों ने इतनी फौज को बाग के अन्दर घुसेड़ तो लिया, मगर यह न सोचा कि इतने आदमी यहाँ आकर खायेंगे क्या? अगर घास और पत्त्तों को भी खाकर गुजारा किया चाहें तो भी दो-एक दिन से ज्यादा का काम नहीं चल सकता। क्या तुम लोगों ने समझा था कि बाग में पहुँचते ही राजा गोपालसिंह को मार लेंगे?

माया : गोपालसिंह को तो हम लोगों ने मार ही लिया, इसमें शक ही क्या है? बाकी रही हमारी फौज, सो एक दिन का खाना अपने साथ रखती है, कल तो हम लोग इस बाग के बाहर हो ही जायेंगे।

नकाबपोश : दोनों बातें शेखचिल्ली की-सी हैं। न तो राजा गोपालसिंह का तुम लोग कुछ बिगाड़ सकते हो, और न इस बाग के बाहर की हवा ही खा सकते हो।

माया : तो क्या गोपालसिंह किसी दूसरी राह से निकल जायेंगे?

नकाबपोश : बेशक।

माया : और हम लोग बाहर न जा सकेंगे?

नकाबपोश : कदापि नहीं क्योंकि मैंने सब दरवाजे अच्छी तरह बन्द कर दिये हैं। तुम तो तिलिस्म की रानी का दावा व्यर्थ ही कर रही हो! तुम्हें तो यहाँ का हाल रुपये में एक पैसा भी मालूम नहीं है। अभी मैंने तुम लोगों के उतरने की राह रोक दी थी सो तुम्हारे किये कुछ भी न बन पड़ा! जब तुम लोग छत पर थे, पचीस आदमी तुम्हारे सामने से होकर नीचे चले आये, अगर तुम्हें तिलिस्म की रानी होने का दावा था तो उन्हें रोक लेती! मगर राजा साहब के हौसलें को देखो कि तुम लोगों के यहाँ आने की खबर पाकर भी अकेले सिर्फ भैरोसिंह को साथ लेकर इस बाग में चले आये?

माया : उन्हें हमारे आने की खबर कैसे मिली?

नकाबपोश : (जोर से हँसकर) इसके जवाब में तो इतना ही कहना काफी है कि तुम्हारी लीला इस बाग में आने के पहिले ही गिरफ्तार कर ली गयी।

माधवी : तो क्या हम लोग किसी तरह अब बाग के बाहर नहीं जा सकते?

नकाबपोश : जीते तो नहीं जा सकते, मगर जब तुम लोग मर जाओगे, तब सभों की लाशें जरूर फेंक दी जायेंगी!

जिस मकान में मायारानी उतरी थी, उसी बरामदे में वह नकाबपोश टहल रहा था। बरामदे के आगे किसी तरह की आड़ या रुकावट न थी। मायारानी उससे बातें करती जाती और छिपे ढंग से अपने तिलिस्मी तमंचे को भी दुरुस्त करती जाती थी, तथा रात होने को सबब यह बात उस नकाबपोश को मालूम न हुई। जब वह माधवी से बातें करने लगा उस समय मौका पाकर मायारानी ने तिसिस्मी तमंचा उस पर चलाया। गोली उसकी छोटी में लगकर फट गयी और बेहोशी को धुआँ बहुत जल्द उसके दिमाग पर चढ़ गया, साथ ही वह आदमी बेहोश होकर जमीन पर लुढ़कता हुआ मायारानी के आगे आ पड़ा। भीमसेन ने झपटकर उसकी नकाब हटा दी और चौंककर बोल उठा, "वाह वाह! यह तो राजा गोपालसिंह हैं।"

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