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चन्द्रकान्ता सन्तति - 5

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8403
आईएसबीएन :978-1-61301-030-3

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चन्द्रकान्ता सन्तति 5 पुस्तक का ई-संस्करण...

नौवाँ बयान


सवेरा हो जाने पर जब भूतनाथ और बलभद्रसिंह से मिलने के लिए पन्नालाल तिलिस्मी खँडहर के अन्दर नम्बर दो वाले कमरे में गये, तो भूतनाथ को चारपाई पर सोया पाया और बलभद्रसिंह को वहाँ न देखा। पन्नालाल ने भूतनाथ को जगाकर पूछा, "आज तुम इस समय तक खुर्राटे ले रहे हो, यह क्या मामला है।"

भूतनाथ : बलभद्रसिंह ने गप्प-शप्प में तीन पहर रात बैठे-ही-बैठे बिता दी, इसलिए सोने में बहुत कम आया और अभी तक आँख नहीं खुली, आइए बैठिए।

पन्नालाल : बलभद्रसिंह जी कहाँ हैं?

भूतनाथ : मुझे क्या खबर, इसी जगह कहीं होगें, मुझे तो अभी आपने सोते से जगाया है।

पन्नालाल : मगर मैंने तो उन्हें कहीं नहीं देखा।

भूतनाथ : किसी पहरेवाले से पूछिए, शायद हवा खाने के लिए कहीं बाहर चले गये हों।

बलभद्रसिंह को वहाँ न पाकर पन्नालाल को बड़ा ही ताज्जुब हुआ और भूतनाथ भी घबड़ाया-सा दिखायी देने लगा। पहिले तो पन्नालाल और भूतनाथ दोनों ही ने उन्हें खँडहरवाले मकान के अन्दर खोजा, मगर जब कुछ पता न लगा, तब फाटक पर आकर पहरेवालों से पूछा। पहरेवालों ने भी उन्हें देखने से इनकार करके कहा कि हम लोगों ने बलभद्रसिंहजी को फाटक के बाहर निकलते नहीं देखा। अस्तु, हम लोग उनके बारे में कुछ नहीं कह सकते'।

बलभद्रसिंह कहाँ चले गये? आसमान पर उड़ गये, दीवार में घुस गये, या जमीन के अन्दर समा गये, क्या हुए? इस बात ने सभों को तरद्दुद में डाल दिया। धीर-धीरे जीतसिंह को भी इस बात की खबर हुई। जीतसिंह स्वयं उस खँडहरवाले मकान में गये और तमाम कमरों, कोठरियों और तहखानों को देख डाला, मगर बलभद्रसिंह का पता न लगा। भूतनाथ से भी तरह-तरह के सवाल किये गये, मगर इससे कुछ फायदा न हुआ।

सन्ध्या के समय राजा बीरेन्द्रसिंह की सवारी उस तिलिस्मी खँडहर के पास आ पहुँची और राजा बीरेन्द्रसिंह तथा तेजसिंह वगैरह सबकोई उस खँडहर वाले मकान में उतरे। पहर-भर राज जाते तक तो इन्तजामी हो-हल्ला मचता रहा, इसके बाद लोगों को राजा साहब से मुलाकात करने की नौबत पहुँची, मगर राजा साहब ने वहाँ पहुँचने के साथ ही भूतनाथ और बलभद्रसिंह का हाल जीतसिंह से पूछा था और बलभद्रसिंह के बारे में जोकुछ हुआ था, उसे उन्होंने राजा साहब से कह सुनाया था। पहर रात जाने बाद भूतनाथ आज्ञानुसार दरबार में हाजिर हुआ तब राजा बीरेन्द्रसिंह ने उससे पूछा, "कहो भूतनाथ, अच्छे तो हो?"

भूतनाथ : (हाथ जोड़कर) महाराज के प्रताप से प्रसन्न हूँ।

बीरेन्द्र : सफर में हमको जोकुछ रंज और गम हुआ तुमने सुना ही होगा?

भूतनाथ : ईश्वर न करे महाराज को कभी रंज और गम हो, मगर हाँ समयानुकूल जोकुछ होना था, हो ही गया।

बीरेन्द्र : (ताज्जुब से) क्या तुम्हें इस बारे में कुछ मालूम हुआ है?

भूतनाथ : जी हाँ।

बीरेन्द्र : कैसे?

भूतनाथ : इसका जवाब देना तो कठिन है, क्योंकि भूतनाथ बनिस्बत जबान और कान के, अन्दाज से ज्यादे काम लेता है।

बीरेन्द्र : (मुस्कुराकर) तुम्हारी होशियारी और चालाकी में तो कोई शक नहीं है, मगर अफसोस इस बात का है कि तुम्हारे रहस्य तुम्हारी ही तरह द्विविधा में डालनेवाले हैं। अभी कल की बात है कि हमको तुम्हारे बारे में इस बात की खुशखबरी मिली थी कि तुम बलभद्रसिंह को किसी भारी कैद से छुड़ाकर ले आये, मगर आज कुछ और ही बात सुनायी पड़ रही है।

भूतनाथ : जी हाँ, मैं तो हर तरह से अपनी किस्मत की गुत्थी सुलझाने का उद्योग करता हूँ, मगर विधाता ने उसमें ऐसी उलझनें डाल दी हैं कि मालूम पड़ता है कि अब इस शरीर को चुनारगढ़ के कैदखाने का आनन्द अवश्य भोगना ही पड़ेगा।

बीरेन्द्र : नहीं नहीं, भूतनाथ, यद्यपि बलभद्रसिंह का यकायक गायब हो जाना तरह-तरह के खुटके पैदा करता है, मगर हमें तुम्हारे ऊपर किसी तरह का सन्देह नहीं हो सकता। अगर तुम्हें ऐसा करना ही होता तो इतनी आफत उठाकर उन्हें क्यों छुड़ाते और यहाँ तक लाते! अस्तु, तुम हमारी खफगी से तो बेफिक्र रहो, मगर इस बात के जानने का उद्योग जरूर करो कि बलभद्रसिंह कहाँ गये और  क्या हुए।

भूतनाथ : (सलाम करके) ईश्वर आपको सदैव प्रसन्न रक्खे, मैं आशा करता हूँ कि एक सप्ताह के अन्दर ही, बलभद्रसिंह का पता लगाकर उन्हें सरकार में उपस्थिति करूँगा।

बीरेन्द्र : शाबाश, अच्छा अब तुम जाकर आराम करो।

आज्ञानुसार भूतनाथ वहाँ से उठकर अपने डेरे पर चला गया और बाकी लोग भी अपने ठिकाने कर दिये गये। जब राजा बीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह अकेले रह गये तब उन दोनों में यों बातचीत होने लगी—

बीरेन्द्र : कुछ समझ में नहीं आता कि यह रहस्य कैसा है? भूतनाथ की बातों से तो किसी तरह का खुटका नहीं होता।

तेज : जहाँ तक पता लगाया गया है, उससे यही जाहिर होता है कि बलभद्रसिंह इस इमारत के बाहर नहीं गये, मगर इस बात पर भी विश्वास करना कठिन हो रहा है।

बीरेन्द्र : निःसन्देह ऐसा ही है।

तेज : अब देखा चाहिए भूतनाथ एक सप्ताह के अन्दर क्या कर दिखाता है।

बीरेन्द्र : यद्यपि मैंने भूतनाथ की दिलमजई कर दी है, परन्तु उसका जी शान्त नहीं हो सकता। खैर, जो भी हो, मगर तुम उसे अपनी हिफाजत में समझो और पता लगाओ कि यह मामला कैसा है।

तेज : ऐसा ही होगा।

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