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चन्द्रकान्ता सन्तति - 5

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8403
आईएसबीएन :978-1-61301-030-3

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चन्द्रकान्ता सन्तति 5 पुस्तक का ई-संस्करण...

दसवाँ बयान


मायारानी ने जब समझा कि वे फौजी सिपाही इस बाग के बाहर हो गये और गोपालसिंह को भी वहाँ न देखा, तब हिम्मत करके अपने ठिकाने से निकली और पुनः बाग में आकर उस तरफ रवाना हुईं, जिधर उस गोपालसिंह को बेहोश छोड़ आयी थी, जो उसके चलाये हुए तिलिस्मी तमंचे की गोली के असर से बेहोश होकर बरामदे के नीचे आ रहा था, मगर वहाँ पहुचने के पहिले ही उसने उस दूसरे कुएँ के ऊपर एक गोपालसिंह को देखा, जिसे फौजी सिपाहियों ने मिट्टी से पाट दिया था। मायारानी एक पेड़ की आड़ में खड़ी हो गयी और उसी जगह से तिलिस्मी तमंचेवाली एक गोली उसने इस गोपालसिंह पर चलायी। गोली लगते ही गोपालसिंह लुढ़ककर जमीन पर आ रहा और मायारानी दौड़ती हुई उसके पास आ पहुँची। थोड़ी देर तक तो उसकी सूरत देखती रही, इसके बाद कमर से खंजर निकालकर गोपालसिंह का सर काट डाला और तब खुशी-भरी निगाहों से चारों तरफ देखने लगी, यद्यपि उसे पूरा विश्वास न था कि मैंने असली गोपालसिंह को मार डाला है।

यद्यपि दिन बहुत चढ़ चुका था, मगर अभी तक उसे जरूरी कामों से निपटने या कुछ खाने-पीने की परवाह न थी या यों कहिए कि उसे इन बातों की मोहलत ही नहीं मिल सकी थी। गोपालसिंह की लाश को उसी जगह छोड़कर वह बाग के तीसरे दर्जें में जाने की नीयत से अपने दीवानखाने में आयी और उसी मामूली राह से बाग के तीसरे दर्जे में चली गयी, जिस राह से एक दिन तेजसिंह वहाँ पहुँचाये गये थे।

वहाँ से उसने दूर से ही नम्बर दो वाली कोठरी के दरवाजे पर एक गोपालसिंह को बैठे, बल्कि कुछ करते देखा। मायारानी ताज्जुब में आकर थोड़ी देर तक तो उस गोपालसिंह को देखती रही, इसके बाद उसे भी उसी तिलिस्मी तमंचेवाली गोली का निशाना बनाया। जब वह भी बेहोश होकर जमीन पर लेट गया, तब मायारानी ने वहाँ पहुँचकर उसका भी सर काट डाला और एक लम्बी साँस लेकर आप-ही-आप बोली, "क्या अब भी असली गोपालसिंह न मरा होगा। मगर अफसोस, उस एक गोपालसिंह पर तो गोली ने भी असर न किया था। कदाचित असली गोपालसिंह वही हो!"

इसके जवाब में किसी ने कोठरी के अन्दर से कहा, "हाँ असली गोपालसिंह यह भी न था और असली गोपालसिंह अभी तक नहीं मरा!"

इस बात ने मायारानी का कलेजा दहला दिया और वह काँपती हुई ताज्जुब के साथ कोठरी के अन्दर देखने लगी।

अकस्मात् कोठरी के अन्दर से निकलते हुए नानक पर मायारानी की निगाह पड़ी। नानक को देखते ही मायारानी का पुराना क्रोध (जो नानक के बारे में था) पुनः उसके चेहरे पर दिखायी देने लगा। वह कुछ देर तक तो नानक को देखती रही और इसके बाद उसे तिलिस्मी गोली का निशाना बनाना चाहा, मगर नानक मायारानी की अवस्था देखकर हँस पड़ा और बोला, "क्या अब भी मुझे आप अपना पक्षपाती नहीं समझती हैं?"

माया : क्यों? तूने कौन-सा ऐसा काम किया है, जिससे मैं तुझे अपना पक्षपाती समझूँ?

नानक : क्या आपको इस बात की खबर न लगी कि राजा बीरेन्द्रसिंह और उनके खानदान तथा ऐयारों से मेरी गहरी दुश्मनी हो गयी? मेरा बाप गिरफ्तार करके दोषी ठहराया गया, बीरेन्द्रसिंह के ऐयारों ने उसे बहुत तंग किया और इसी के साथ-ही-साथ मेरी भी बहुत बेइज्जती की। मेरा बाप अपने बचाब की फिक्र कर रहा है, और मैं उन सभों से बदला लेने का बन्दोबस्त कर रहा हूँ। इस समय मैं इसलिए यहाँ आया हूँ कि आप मेरी सहायता करें और मैं आपका साथ दूँ।

माया : यदि तेरा कहना वास्तव में सच है तो बड़ी खुशी की बात है।

नानक : जो कुछ मैं कह रहा हूँ, उसके सच होने में किसी तरह का सन्देह न कीजिए, मैं उन लोगों की बुराई में जान तक खर्च करने का संकल्प कर चुका हूँ।

माया : यदि तू पहिले ही मेरी बात मान चुका होता तो आज तुझे और मुझे दोनों को ही यह दिन देखना नसीब न होता। खैर, आज भी अगर तू राह पर आ जाय तो हम लोग मिल-जुलकर बहुत कुछ कर सकते हैं।

नानक : उन दिनों मुझे हरी-हरी सूझती थी और उस दरबार से बहुत कुछ पाने की आशा थी, मगर इस बात की खबर न थी कि उनके ऐयार अपनी मण्डली के सिवाय किसी नये या दूसरे ऐयार को अपने दरबार में देखना पसन्द नहीं करते। मुझे कमलिनी ने जितनी उम्मीदें दिलायी थीं, उनका एक अंश भी पूरा न निकला, उल्टे मेरा बाप दोषी ठहराया गया।

माया : भूतनाथ पर जोकुछ इल्जाम लगाया गया है, मुझे उसकी पूरी-पूरी खबर लग चुकी है। अब भूतनाथ बिना मेरी मदद के किसी तरह अपनी जान नहीं बचा सकता है। सच तो यों है कि भूतनाथ ने मुझे भी बड़ा धोखा दिया।

नानक : उन दिनों जो कुछ उन्होंने किया सो किया, क्योंकि कमलिनी की दिलायी हुई उम्मीदों ने उन्हें भी अन्धा कर दिया था, मगर अब तो उन्हें कमलिनी से भी दुश्मनी हो गयी है, और मैं भी यह सुनकर कि कमलिनी वगैरह को राजा गोपालसिंह ने इसी बाग में लाकर रक्खा है, उससे बदला लेने का खयाल करके यहाँ आया हूँ।

माया : यहाँ का रास्ता तुझे किसने बताया?

नानक : यहाँ के बहुत से रास्तों का हाल कमालनी ने ही मुझे बताया था, मैं एक दफे पहिले भी यहाँ आ चुका हूँ।

माया : कब?

नानक : जब तेजसिंह को आपने कैद किया था और जब चण्डूल ने आकर आप लोगों को छुड़ाया था।

माया : (उन बातों की याद से काँपकर) तब तो तुम्हें मालूम होगा कि वह चण्डूल कौन था।

नानक : वह कमलिनी थी और मैं उसके साथ था।

माया : (कुछ सोचकर) हाँ....ठीक है। प...तब तो तुम्हें...अच्छा...अच्छा तुम मेरे पास आओ, पहिले मैं निश्चय कर लूँ कि तुम ईमानदारी से साथ देने के लिए तैयार हो या सब बातें धोखा देने के लिए कह रहे हो, इसके बाद अगर तुम सच्चे निकले तो हम दोनों आदमी मिलकर बहुत बड़ा काम कर सकेंगे, और तुम्हें भी बहुत-सी...खैर, तुम इधर आओ और मेरे साथ एकान्त में चलो।

नानक : (मायारानी के पास आकर) और यहाँ तीसरा कौन है, जो हम लोगों की बातें सुनेगा।

माया : चाहे न हो मगर शक तो है।

मायारानी नानक को लिये दूसरी तरफ चली गयी।

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