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चन्द्रकान्ता सन्तति - 5

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8403
आईएसबीएन :978-1-61301-030-3

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चन्द्रकान्ता सन्तति 5 पुस्तक का ई-संस्करण...

नौवाँ बयान


चुनारगढ़वाली तिलिस्मी इमारत के चारों तरफ छोटे-बड़े सैकड़ों खेमों, डेरों, रावटियों और शामियानों की बहार दिखायी दे रही है, जिनमें से बहुतों में लोगों के डेरे पड़ चुके हैं, मगर वे भी धीरे-धीरे भर रहे हैं। किशोरी के नाना रणधीरसिंह और किशोरी कमलिनी वगैरह को लिये हुए राजा गोपालसिंह भी आ गये हैं, और इन लोगों के साथ कुछ फौजी सिपाही भी आ पहुँचे हैं, जो कायदे के साथ रावटियों में डेरा डाले हुए हैं। किशोरी इत्यादि महल में पहुँचा दी गयीं हैं, जिसके सबब से अन्दर तरह-तरह की खुशियाँ मनायी जा रही हैं। राजा गोपालसिंह का डेरा भी तिलिस्मी इमारत के अन्दर ही पड़ा है। राजा बीरेन्द्रसिंह ने उनके लिए अपने कमरे के पास ही एक सुन्दर और सजा हुआ कमरा मुकर्रर कर दिया है, और उनके (गोपालसिंह के) साथी लोग इमारत के बाहरवाले खेमों में उतरे हुए हैं, इसी तरह रणधीरसिंह का भी डेरा इमारत के बाहर उन्हीं के भेजे हुए खेमें में पड़ा है, और वे यहाँ पहुँचकर राजा सुरेन्द्रसिंह और कमला बीरेन्द्रसिंह तथा और लोगों से मुलाकात करने बाद किशोरी और कमला से मिलकर खुश हो चुकें हैं, और साथ ही इसके भूतनाथ की नजर भी कबूल कर चुके हैं, जिसकी उम्मीद भूतनाथ को कुछ भी न थी।

इसी तरह राजा बीरेन्द्रसिंह के बचे हुए ऐयार लोग भी जो यहाँ मौजूद न थे, अब आ गए हैं, यहाँ तक कि रोहतासगढ़ से ज्योतिषीजी का डेरा भी आ गया है, और वे भी तिलिस्मी इमारत के बाहर एक खेमे में टिके हुए हैं।

इनके अतिरिक्त कई बड़े-बड़े रईस, जमींदार और महाजन लोग भी गया, रोहतासगढ़, जमानिया और चुनार वगैरह से राजा बीरेन्द्रसिंह को नजर और मुबारक बाद देने की नीयत से आये हुए हैं, जिनके सबब से यहाँ खूब अमन-चमन हो रहा है, और सभों को यह भी विश्वास है कि कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह भी तिलिस्म फतह करते हुए शीघ्र आना चाहते हैं, और उनके आने के साथ ही ब्याह-शादी के जलसे शुरू हो जायँगे। साथ ही इसके भूतनाथ वगैरह के मुकदमे से भी सभों को चिलचस्पी हो रही है, यहाँ तक कि बहुत से लोग केवल कैफियत को देखने-सुनने की नीयत से आये हुए हैं।

तिलिस्मी इमारत के बाहर एक छोटा सा बाजार लग गया है, जिसमें जरूरी चीजें तथा खाने का कच्चा तथा सब तरह का सामान मेहमानों के लिए मौजूद है, और राजा साहब की आज्ञा है कि जिसको जिस चीज की जरूरत हो दी जाय और उसकी कीमत किसी से भी न ली जाय। इस काम की निगरानी के लिए कई नेक और ईमानदार मुन्शी मुकरर्र हैं, तो जो अपना काम बड़ी खूबी और नेकनीयती के साथ कर रहे हैं। यह बात तो हुई है, मगर लोगों को आश्चर्य के साथ उस समय और भी आनन्द मिलता है, जब एक बहुत बड़े खेमे या पण्डाल के अन्दर कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह की शादी का सामान इक्ट्ठा होते देखते हैं।

कैदियों को किसी खेमे में जगह नहीं मिली है, बल्कि वे सब तिलिस्मी इमारत के अन्दर एक ऐसे स्थान में रक्खे गये हैं, जो उन्हीं के योग्य है, मगर भूतनाथ बिल्कुल आजाद है और आश्चर्य के साथ लोगों की उँगलियाँ उठवाता हुआ इस समय चारों तरफ घूम रहा है मेहमानो की खातिरदारी का खयाल भी करता रहता है।

राजा साहब की आज्ञानुसार तिलिस्मी इमारत के अन्दर पहिले खण्ड में एक बहुत पहिले तो भूतनाथ तथा अन्य कैदियों का मुकदमा फैसल किया जायगा और बाद में दोनों कुमारों के ब्याह की महफिल का आनन्द लोगों को मिलेगा, इसे लोग ‘दरबारे आम' के नाम से सम्बोधित करते हैं। इसके अतिरिक्त ‘दरबारे खास' के नाम से दूसरी मंजिल पर एक कमरा सजकर तैयार हुआ है, जिसमें नित्य पहर दिन चढ़े तक दरबार हुआ करेगा और उसमें खास-खास तथा ऐयारी पेशेवाले लोग बैठकर जरूरी कामों पर विचार किया करेंगे। इस समय हम अपने पाठकों को भी इसी दरबारे-खास में ले चलकर बैठाते हैं।

एक ऊँची गद्दी पर महाराज सुरेन्द्रसिंह और उनके बायीं तरफ राजा बीरेन्द्रसिंह बैठे हुए हैं। सुरेन्द्रसिंह के दाहिने तरफ जीतसिंह और बीरेन्द्रसिंह के बायी तरफ तेजसिंह बैठे हैं और उनके बगल में क्रमशः देवीसिंह पण्डित दिखायी दे रहे हैं और भूतनाथ के बगल में चुन्नीलाल हाथ में नंगी तलवार लिये खड़े हैं। उधर भैरोसिंह वगैरह बैठे हैं और उनके बगल में नाहरसिंह नंगी तलावार लिये खड़ा है और इस बात पर विचार हो रहा है कि कैदियों का मुकदमा कबसे शुरू किया जाय तथा उस सम्बन्ध में किन-किन बातों या चीजों की जरूरत है।

इसी समय चोबदार ने आकर अदब से अर्ज किया—"महल के दरवाजे पर एक नकाबपोश हाजिर हुआ है, जो पूछने पर अपना परिचय नहीं देता, परन्तु दरबार में हाजिर होने की आज्ञा माँगता है।"

इस खबर को सुनकर तेजसिंह ने राजा साहब की तरफ देखा और इशारा पाकर उस सवार को हाजिर करने के लिए चोबदार को हुक्म दिया।

वह नौजवान नकाबपोश सवार जो सिपाहियाना ठाठ के बेशकीमत कपड़ों से अपने को सजाये हुए था, हाजिर होने की आज्ञा पाकर घोड़े से उतर पड़ा। अपना नेजा जमीन में गाड़ और उसी के सहारे घोड़े की लगाम अटकाकर वह इमारत के अन्दर गया, और चोबदार के साथ घूमता-फिरता दरबारे-खास में हाजिर हुआ। महाराज सुरेन्द्रसिंह, बीरेन्द्रसिंह, जीतसिंह और तेजसिंह को अदब से सलाम करने बाद उसने अपना दाहिना हाथ, जिसमें एक चीठी थी, दरबार की तरफ बढ़ाया और देवसिंह ने उसके हाथ से पत्र लेकर तेजसिंह के हाथ में दे दिया। तेजसिंह ने राजा सुरेन्द्रसिंह को दिया, उसके हाथ से पत्र लेकर उन्होंने उसे पढ़कर जीतसिंह के हवाले किया और इसके बाद बीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह ने भी वह पत्र पढ़ा।

जीतसिंह : (नकाबपोश से) इस पत्र के पढ़ने से जाना जाता है कि खुलासा हाल तुम्हारी जबानी मालूम होगा?

नकाबपोश : (हाथ जोड़कर) जी हाँ, मेरे मालिकों ने यह अर्ज करने के लिए मुझे यहाँ भेजा है कि हम दोनों भूतनाथ तथा और कैदियों का मुकदमा सुनने के समय उपस्थित रहने की इच्छा रखते हैं और आशा करते है कि इसके लिए महाराज प्रसन्नता के साथ हम लोगों को आज्ञा देंगे। हम लोग यह प्रतिज्ञापूर्वक कहते हैं कि हम लोगों के हाजिर होने का नतीजा देखकर महाराज प्रसन्न होंगे।'

जीतसिंह : मगर पहिले यह तो बताओ कि तुम्हारे मालिक हैं कौन और कहाँ रहते हैं?

नकाबपोश : इसके लिए आप क्षमा करें, क्योंकि हमारे मालिक लोग अभी अपने को प्रकट नहीं किया चाहते और इसीलिए जब यहाँ उपस्थित होंगे तो अपने चेहरे पर नकाब डाले होंगे। हाँ, मुकदमा खतम हो जाने के बाद वे अपने को प्रसन्नता के साथ प्रकट कर देंगे। आप देखेंगे कि उनकी मौजूदगी में मुकदमा सुनने के समय कैसे-कैसे गुल खिलते हैं, जिससे आशा है कि महाराज भी बहुत प्रसन्न होंगे।

जीतसिंह : कदाचित् तुम्हारा कहना ठीक हो, मगर ऐसे मुकदमों में जिन्हें घरेलू मुकदमे भी कह सकते हैं, अपरिचित लोगों को शरीक होने और बोलने की आज्ञा महाराज कैसे दे सकते हैं?

नकाबपोश : ठीक है, महाराज मालिक हैं जो उचित समझें करें, मगर इसमें भी कोई सन्देह नहीं कि अगर उस समय हमारे लोग (केवल दो आदमी) उपस्थिति न होंगे तो मुकदमे की बारीक गुत्थी सुलझ न सकेगी, और यदि वे पहिले ही से अपने को प्रकट कर देंगे तो...

जीतसिंह : (तेजसिंह से) इस विषय में उचित यही है कि एकान्त में इस नकाबपोश से बातचीत की जाय।

तेजसिंह : (हाथ जोड़कर) जो आज्ञा।

इतना कहकर तेजसिंह उठे और उस नकाबपोश को साथ लिये हुए एकान्त में चले गये। इस नकाबपोश को देखकर सभी हैरान थे। इसकी सिपाहियाना चुस्त और बेशकीमती पोशाक, इसका बहादुराना ढंग और इसकी अनूठी बातों ने सभों के दिल में खलबली पैदा कर दी थी, खास करके भूतनाथ के पेट में तो चूहे दौड़ने लग गये, और उसने इस नकाबपोश की असलियत जानने का खयाल अपने दिल में मजबूती के साथ बाँध लिया था। यही कारण था कि जब थोड़ी देर बाद तेजसिंह उस नकाबपोश से बातें करके और उसको साथ लिये हुआ वापस आये, तब सभों का ध्यान उसी तरफ चला गया और सभी यह जानने के लिए व्यग्र होने लगे कि देखें तेजसिंह क्या कहते हैं।

तेजसिंह ने अपने बाप जीतसिंह की तरफ देखकर कहा, "मेरे खयाल से इनकी प्रार्थना स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं है। यदि मान लिया जाय कि वे लोग हमारे साथ दुश्मनी भी रखते हों तो भी हमें इसकी कुछ परवाह नहीं हो सकती और न वे लोग हमारा कुछ बिगाड़ ही सकते हैं।"

तेजसिंह की बात सुनकर जीतसिंह ने महाराज की तरफ देखा और कुछ इशारा पाकर नकाबपोश से कहा, "खैर तुम्हारे मालिकों की प्रार्थना स्वीकार की जाती है। उनसे कह देना कि कलसे नित्य एक पहर दिन चढ़ने के बाद इस दरबार-खास में हाजिर हुआ करें।"

नकाबपोश ने झुककर सलाम किया और जिधर से आया था, उसी तरफ लौट गया। थोड़ी देर तक कुछ बातचीत होती रही, जिसके बाद सबकोई अपने-अपने ठिकाने चले गये। केवल महाराज सुरेन्द्रसिंह, बीरेन्द्रसिंह, जीतसिंह, तेजसिंह और गोपालसिंह रह गये और इन लोगों में कुछ देर तक उसी नकाबपोश के विषय में बातचीत होती रही। क्या क्या बातें हुई इसे हम इस जगह खोलना उचित नहीं समझते, और न इसकी जरूरत ही देखते है।

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