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चन्द्रकान्ता सन्तति - 5

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8403
आईएसबीएन :978-1-61301-030-3

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चन्द्रकान्ता सन्तति 5 पुस्तक का ई-संस्करण...

दसवाँ बयान


दूसरे दिन फिर उसी तरह का दरबार-खास लगा जैसा पहिले दिन लगा था और जिसका खुलासा हाल हम ऊपर के बयान में लिख आये हैं। आज के दरबार में वे दोनों नकाबपोश हाजिर होनेवाले थे, जिनकी तरफ से कल एक नकाबपोश आया था। अस्तु, राजा साहब की तरह से कल ही सिपाहियों और चोबदारों को हुक्म मिल गया था कि जिस समय दोनों नकाबपोश आवें, उसी समय बिना इत्तिला किये ही दरबार में पहुँचा दिये जायँ। यही सबब था कि आज दरबार लगने के कुछ ही देर बाद ही चोबदार के पीछे-पीछे वे दोनों नकाबपोश हाजिर हुए।

इन दोनों नकाबपोशों की पोशाक बहुत ही बेशकीमती थी। सर पर बेलदार शमला था, जिसके आगे हीरे का जगमगाता हुआ सरपेंच था। भद्दी मगर कीमती नकाब में बड़े-बड़े मोतियों की झालर लगी हुई थी। चपकन और पायजामें में भी सलमे सितारे की जगह हीरे और मोतियों की भरमार थी तथा परतले के बेशकीमती हीरे ने तो सभों को ताज्जुब ही में डाल दिया था, जिसके सहारे जड़ाऊ कब्जे की तलवार लटक रही थी। दोनों नकाबपोश की पोशाक एक ही ढंग की थी और दोनों एक ही उम्र के मालूम पड़ते थे।

यद्यपि देखने से तो यही मालूम पड़ता था कि ये दोनों नकाबपोश राजाओं से भी ज्यादे दौलत रखनेवाले और किसी अमीर खानदानों के होनेहार बहादुर हैं, मगर इन दोनों ने बड़े अदब के साथ महाराज सुरेन्द्रसिंह, बीरेन्द्रसिंह, और जीतसिंह को सलाम किया और इन तीनों के सिवाय और किसी की तरफ ध्यान न दिया। महाराज की आज्ञानुसार राजा गोपालसिंह के बगल में इन दोनों को जगह मिली, जीतसिंह ने सभ्यतानुसार कुशल-मंगल का प्रश्न किया।

दुष्टों के सिरताज, पतितों के महाराजाधिराज, नमकहरामों के किबलेगाह, और दोजखियों के जहाँपनाह मायारानी के तिलिस्मी दारोगा साहब तलब किये गये। इस समय इनके हाथों में हथकड़ी और पैरों में ढीली बेड़ी पड़ी हुई थी। जब से इन्हें कैदखाने की हवा नसीब हुई तब से बाहर की कोई खबर इनके कानों तक न थी। इन्हीं के लिए नहीं बल्कि तमाम कैदियों के लिये इस बात का इन्तजाम किया गया था कि किसी तरह की अच्छी या बुरी खबर उनके कानों तक न पहुँचे और न कोई उनकी बातों का जवाब ही दे।

महाराज का इशारा पाकर पहिले राजा गोपालसिंह ने बात शुरू की और दारोगा की तरफ देखकर कहा—

गोपाल : कहिए दारोगा साहब, मिजाज तो अच्छा है! अब आपको अपनी बेकसूरी साबित करने के लिए किन-किन चीजों की जरूरत है?

दारोगा : मुझे किसी चीज की जरूरत नहीं है और उम्मीद करता हूँ कि आपको भी इस बात का कोई सबूत न मिला होगा कि मैंने आपके साथ किसी तरह की बुराई की थी या मुझे इस बात की खबर भी की थी कि आपको मायारानी ने कैद कर रक्खा है।

गोपाल : (मुस्कुराते हुए) नहीं नहीं, आप मेरे बारे में किसी तरह का तरद्दुद न करें। मैं आपसे अपने मामले में बातचीत करना नहीं चाहता और न यही पूछना चाहता हूँ कि शुरू-शुरू में आपने मेरी शादी में कैसे-कैसे नोंक-झोंक के काम किये, और बहुत-सी मड़वे की बातों को तै करते हुए अन्त में किस मायारानी को लेकर, अपने किस मेहरबान गुरुभाई के पास किस तरह की मदद लेने गये थे, या फिर जमाने ने क्या रंग दिखाये, इत्यादि। मेरे साथ जो कुछ आपने किया, उसे याद करने का ध्यान भी मैं अपने दिल में लाना पसन्द नहीं करता, मगर मेरे पुराने दोस्त इन्द्रदेव आपसे कुछ पूछे बिना भी न रहेंगे। उन्हें चाहिए था कि अब भी आपने गुरुभाई का नाता निबाहें, मगर अफसोस किसी बे विश्वासे ने उन्हें यह कहकर रंज कर दिया कि इन्दिरा और सर्यू की किस्मतों का फैसला भी इन्हीं दारोगा साहब के हाथ से हुआ है।

राजा गोपलसिंह की जुबानी थपेड़ों ने दारोगा का मुँह नीचा कर दिया। पुरानी बातों और करतूतों ने आँखों के आगे ऐसी भयानक सूरतें पैदा कर दीं, जिनके देखने की ताकत इस समय उनमें न थी। उसके दिल में एक तरह का दर्द सा मालूम होने लगा और उसका दिमाग चक्कर खाने लगा। यद्यपि उसकी बदकिस्मती और उनके पापों ने भयानक अन्धकार का रूप धारण करके, उसे चारों तरफ से घेर लिया था, परन्तु इस अन्धकार में भी उसे सुबह के झिलमिलाते हुए तारे की तरह उम्मीद की एक बारीक और हल्की रोशनी बहुत दूर पर दिखाई दे रही थी, जिसका सबब इन्द्रदेव था, क्योंकि इसे (दारोगा का) इन्दिरा और सर्यू के प्रकट होने का हाल कुछ भी मालूम न था और वह यही समझ रह था कि इन्द्रदेव पहिले की तरह अभी इन बातों से बेखबर होगा और इन्दिरा तथा सर्यू भी तिलिस्म के अन्दर मर-खपकर अपने बारे में मेरी बदकारियों का सबूत अपने साथ ही लेती गयी होंगी। अस्तु, ताज्जुब नहीं कि आज भी इन्द्रदेव मुझे अपना गुरुभाई समझकर मदद करे। इसी सबब से उसने मुश्किल से अपने दिल को सम्हाला और इन्द्रदेव की तरफ देखके कहा—

"राम राम, भला इस अनर्थ का भी कुछ ठिकाना है! क्या आप भी इस बात को सच मान सकते हैं?"

इतना कहकर इन्द्रदेव ने इन्दिरा की तस्वीरवाला वह कलमदान निकल कर सामने रख दिया।

इन्द्रदेव की बातें सुन और इस कलमदान की सूरत पुनः देखकर दारोगा की बची-बचायी उम्मीद भी जाती रही।उसने भय और लज्जा से सर झुका लिया और बदन में पैदा हुई कँपकपी को रोकने का उद्योग करने लगा। इसी बीच में भूतनाथ बोल उठा—

"दारोगा साहब, इन्दिरा को आपके पंजे से बार-बार छुड़ानेवाला भूतनाथ भी तो आपके सामने ही मौजूद है और अगर आप चाहे तो उस नेकबख्त औरत से मिल भी सकते हैं, जिसने उस बाग में आपको कूएँ के अन्दर और बेचारी इन्दिरा को दुःख के अथाह समुद्र से बाहर किया था।"

भूतनाथ की बात सुनते ही दारोगा काँप गया और घबड़ाकर उन नये आये हुए दोनों नकाबपोशों की तरफ देखने लगा। उसी समय उनमें से एक नकाबपोश ने नकाब हटाकर रूमाल से अपने चेहरे  को इस तरह पोंछा, जैसे पसीना आने पर कोई अपने चेहरे को साफ करता है, लेकिन इससे उसका असल मतलब केवल इतना ही था कि दारोगा उसकी सूरत देख ले।

दारोगा के साथ-ही-साथ और कई आदमियों की निगाह उस नकाबपोश के चेहरे पर पड़ गयी, मगर उनमें से किसी ने भी आज के पहिले उसकी सूरत नहीं देखी थी, इसलिए कोई कुछ अनुमान न कर सका, हाँ, दारोगा उसकी सूरत देखते ही भय और दुःख से पागल हो गया। वह घबड़ा कर उठ खड़ा हुआ और उसी समय चक्कर खाकर जमीन पर गिरने के साथ ही बेहोश हो गया।

यह कैफियत देख लोगों को बड़ा ही ताज्जुब हुआ। राजा सुरेन्द्रसिंहस जीतसिंह, बीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह, देवीसिंह और राजा गोपालसिंह ने भी उस नकाबपोश की सूरत देख ली थी, मगर इनमें से न तो किसी ने उसे पहिचाना और न उनसे कुछ पूछना ही उचित जाना। अस्तु, आज्ञानुसार दरबार बर्खास्त किया गया और यह कमबख्त नकटा दारोगा पुनः कैदखाने की अँधेरी कोठरी में डाल दिया गया। उन दोनों नकाबपोशों में से एक ने तेजसिंह से पूछा, "कल किसका मुकदमा होगा?" जवाब में तेजसिंह ने बलभद्रसिंह का नाम लिया और दोनों नकाबपोश वहाँ से रवाना हो गये।

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