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चन्द्रकान्ता सन्तति - 5

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8403
आईएसबीएन :978-1-61301-030-3

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चन्द्रकान्ता सन्तति 5 पुस्तक का ई-संस्करण...

पन्द्रहवाँ बयान


तिलिस्मी इमारत से लगभग दो कोस दूरी पर जंगल में पेड़ों की घनी झुरमुट के अन्दर बैठा हुआ भूतनाथ अपने दो आदमियों से बातें कर रहा है।

भूतनाथ : तो क्या तुम उनके पीछे-पीछे उस खोह के मुहाने तक चले गये थे।

एक आदमी : जी हाँ, थोड़ी देर तक तो मैं इन नकाबपोशों के पीछे-पीछे चला गया, मगर जब देखा कि वे दोनो बेफिक्र नहीं हैं, बल्कि चौंकन्ने होकर चारों तरफ खास करके मुझे गौर से देखते जाते हैं, तो मैं भी तरह देकर हट गया। दूसरे दिन हम लोग कई आदमी एक-दूसरे से दूर-दूर बैठ गये और आखिर में एक साथी ने उन्हें ठिकाने तक पहुँचाकर पता लगा ही लिया कि ये दोनों इस खोह के अन्दर रहते हैं। उसके बाद हम लोगों ने निश्चय कर लिया और उसी खोह के पास छिपकर मैंने स्वयं कई दफे उन लोगों को उसी के अन्दर आते-जाते देखा और यह भी जान लिया कि वे लोग दस-बारह आदमी से कम नहीं है।

भूतनाथ : मेरा भी यही खयाल था कि वे लोग दस-बारह से कम न होंगे। खैर, जो होगा देखा जायगा, अब मैं सन्ध्या हो जाने पर उस खोह के अन्दर जाऊँगा, तुम लोग हमारी हिफाजत का खयाल रखना और इसके अतिरिक्त इस बात का पता लगाना कि जिस तरह मैं उसकी टोह में लगा हुआ हूँ, उसी तरह और कोई भी उनका पीछा करता है या नहीं!

आदमी : जो आज्ञा!

भूतनाथ : हाँ, एक बात और पूछना है। तुम लोगों ने जिन दस-बारह आदमियों को खोह के अन्दर आते-जाते देखा है, वे सभी अपने चेहरे पर नकाब रखते हैं या दो-चार?

आदमी : जी हम लोगों ने जितने आदमियों को देखा सभों को नकाबपोश पाया।

भूतनाथ : अच्छा तो तुम अब जाओ और अपने साथियों को मेरा हुक्म सुनाकर होशियार कर दो।

इतना कहकर भूतनाथ खड़ा हो गया और अपने दोनों आदमियों को बिदा करने बाद पश्चिम की तरफ रवाना हुआ। इस समय भूतनाथ अपनी असली सूरत मे न था, बल्कि सूरत बदलकर अपने चेहरे पर नकाब डाले हुए था।

यहाँ से लगभग कोस-भर की दूरी पर उस खोह का मुहाना था, जिसका पता भूतनाथ के आदमियों ने दिया था। सन्ध्या होने तक भूतनाथ इधर-उधर जंगल में घूमता रहा और जब अँधेरा हो गया, तब उस खोह के मुहाने पर पहुँचकर चारों तरफ देखने लगा।

यह स्थान एक घने और भयानक जंगल में था। छोटे से पहाड़ के निचले हिस्से में दो-तीन आदमियों के बैठने लायक एक गुफा थी और आगे से पत्थरों के बड़े-बड़े ढोकों ने उसका रास्ता रोक रक्खा था। उसके नीचे की तरफ पानी का एक छोटा-सा नाला बहता था, जिसमें इस समय कम मगर साफ पानी बह रहा था और उस नाले के दोनों तरफ भी पेड़ों की बहुतायत थी। भूतनाथ ने सन्नाटा पाकर, उस गुफा के अन्दर पैर रक्खा और सुरंग की तरह रास्ता पाकर टटोलता हुआ थोड़ी देर तक बेखटके चला गया आगे जाकर जब रास्ता खराब मालूम हुआ तब उसने बटुए में से मोमबत्ती निकालकर जलायी और चारों तरफ देखने लगा। सामने का रास्ता बिलकुल बन्द पाया अर्थात् सामने की तरफ पत्थर की दीवार थी, जो एक चबूतरे की तरह मालूम पड़ती थी, मगर वहाँ की छत इतनी ऊँची थी कि आदमी उस चबूतरे के ऊपर चढ़कर बखूबी खड़ा हो सकता था। अस्तु, भूतनाथ उस चबूतरे के ऊपर चढ़ गया और जब आगे की तरफ देखा तो नीचे उतरने के लिए सीढ़ियाँ नजर आयीं।

भूतनाथ सीढ़ियों की राह नीचे उतर गया और अन्त में उसने एक छोटे से दरवाजे का निशान देखा, जिसमें किवाड़-पल्ले इत्यादि की जगह न थी, केवल बायें-दाहिने और नीचे की तरफ चौखट का निशान था। दरवाजे के अन्दर पैर रखने बाद सुरंग की तरह रास्ता दिखायी दिया, जिसे गौर से अच्छी तरह देखने बाद भूतनाथ ने मोमबत्ती बुझा दी और टटोलता हुआ आगे की तरफ बढ़ा। थोड़ी दूर जाने बाद सुरंग खतम हुई और रोशनी दिखायी दी। यह हलकी और नाम मात्र की रोशनी किसी चिराग या मशाल की न थी, बल्कि आसमान पर चमकते हुए तारों की थी, क्योंकि वहाँ से आसमान तथा सामने की तरफ मैदान का एक छोटा-सा टुकड़ा दिखायी दे रहा था।

यह मैदान आठ या दस बिगहे से ज्यादे न होगा। बीच में एक छोटा-सा बँगला था, उसके आगेवाले दालान में कई आदमी बैठे हुए दिखायी देते थे, तथा चारों तरफ बड़े-बड़े जंगली पेड़ों की भी कमी न थी। सन्नाटा देखकर भूतनाथ सुरंग के पार निकल गया और एक पेड़ की आड़ देकर इस खयाल से खड़ा हो गया कि मौका मिलने पर आगे की तरफ बढ़ेगे। थोड़ी ही देर में भूतनाथ को मालूम हो गया कि उसके पास ही एक पेड़ की आड़ में कोई दूसरा आदमी भी खड़ा है। यह दूसरा आदमी वास्तव में देवीसिंह थे, जो भूतनाथ के पीछे-ही-पीछे थोड़ी देर बाद यहाँ आकर पेड़ की आड़ में खड़े हो गये थे और वह भी सूरत बदलने बाद अपने चेहरे पर नकाब डाले हुए थे, इसलिए एक को दूसरे का पहिचानना कठिन था।

थोड़ी ही देर बाद दो औरतें अपने-अपने हाथों में चिराग लिये बँगले के अन्दर से निकलीं और उसी तरफ रवाना हुईं, जिधर पेड़ की आड़ में भूतनाथ और देवीसिंह खड़े हुए थे। एक तो भूतनाथ और देवीसिंह का दिल इस खयाल से खुटके में था ही कि मेरे पास ही एक पेड़ की आड़ में कोई दूसरा भी खड़ा है, दूसरे इन दो औरतों को अपनी तरफ आते देख और भी घबड़ाये, मगर कर ही क्या सकते थे, क्योंकि इस समय जो कुछ ताज्जुब की बात उन दोनों ने देखी उसे देखकर भी चुप रह जाना, उन दोनों की सामर्थ्य से बाहर था अर्थात् कुछ पास आने पर मालूम हो गया, कि उन दोनों की औरतों में से एक तो भूतनाथ की स्त्री है, जिसे वह लामाघाटी में छोड़ आया था और दूसरी चम्पा!

भूतनाथ आगे बढ़ा ही चाहता था कि पीछे से कई आदमियों ने आकर, उसे पकड़ लिया और उसी की तरह देवीसिंह भी बेकाबू कर दिये गये।


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