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चन्द्रकान्ता सन्तति - 6

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :237
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8404
आईएसबीएन :978-1-61301-031-0

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चन्द्रकान्ता सन्तति 6 पुस्तक का ईपुस्तक संस्करण...

दसवाँ बयान


इस बाग में पहिले दिन, जिस बारहदरी में बैठकर सभों ने भोजन किया था, आज पुनः उसी बारहदरी में बैठने और भोजन करने का मौका मिला। खाने की चीजें ऐयार लोग अपने साथ ले आये थे, और जल की वहाँ कमी ही नहीं थी। अस्तु, स्नान, सन्ध्योपासन और भोजन इत्यादि से छुट्टी पाकर सबकोई उसी बारहदरी में सो रहे, क्योंकि रात के जागे हुए थे और बिना कुछ आराम किये बढ़ने की इच्छा न थी।

जब दिन पहर-भर से कुछ कम बाकी रह गया, तब सबकोई उठे और चश्मे के जल से हाथ-मुँह धोकर आगे की तरफ बढ़ने के लिए तैयार हुए।

हम ऊपर किसी बयान में लिख आये हैं कि यहाँ तीनों तरफ की दीवारों में कई आलमारियाँ भी थीं। अस्तु, इस समय कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने उन्हीं आलमारियों में से एक आलमारी खोली और महाराज की तरफ देखकर कहा, ‘‘चुनार के तिलिस्म में जाने का यही रास्ता है, और हम दोनों भाई इसी रास्ते से वहाँ तक गये थे।’’

रास्ता बिल्कुल अन्धेरा था, इसलिए इन्द्रजीतसिंह तिलिस्मी खंजर की रोशनी करते हुए आगे-आगे रवाना हुए और उनके पीछे महाराज सुरेन्द्रसिंह, राजा बीरेन्द्रसिंह, गोपालसिंह, इन्द्रदेव वगैरह और ऐयार लोग रवाना हुए। सबसे पीछे कुँअर आनन्दसिंह तिलिस्मी खंजर की रोशनी करते हुए जाने लगे, क्योंकि सुरंग पतली थी और केवल आगे की रोशनी से काम नहीं चल सकता था।

ये लोग उस सुरंग में कई घण्टे तक बराबर चले गये और इस बात का पता न लगा कि कब सन्ध्या हुई या अब कितनी रात बीत चुकी है। जब सुरंग का दूसरा दरवाजा इन लोगों को मिला और उसे खोलकर सबकोई बाहर निकले तो अपने को एक लम्बी-चौंड़ी कोठरी में पाया, जिसमें इस दरवाजे के अतिरिक्त तीनों तरफ की दीवारों में और भी तीन दरवाजे थे, जिनकी तरफ इशारा करके कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने कहा, ‘‘अब हम लोग उस चबूतरेवाले तिलिस्म के नीचे आ पहुँचे हैं। इस जगह एक-दूसरे से मिली हुई सैकड़ों कोठरियाँ हैं, जो भूलभुलैये की तरह चक्कर दिलाती है और जिनमें फँसा हुआ अनजान आदमी जल्दी निकल ही नहीं सकता। जब पहिले-पहल हम दोनों भाई यहाँ आये थे तो सब कोठरियों के दरवाजे बन्द थे, जो तिलिस्म किताब की सहायता से खोले गये और जिनका खुलासा हाल आपको तिलिस्मी किताब के पढ़ने से मालूम होगा, मगर इनके खोलने में कई दिन लगे और तकलीफ भी बहुत हुई। इन कोठरियों के मध्य में एक चौखूटा कमरा आप देखेंगे, जो ठीक चबूतरे के नीचे है और उसी में से बाहर निकलने का रास्ता है, बाकी सब कोठरियों में असबाब और खजाना भरा हुआ है। इसके अतिरिक्त छत के ऊपर एक और रास्ता उस चबूतरे में से बाहर निकलने के लिए बना हुआ है, जिसका हाल मुझे पहिले मालूम न था, जिस दिन हम दोनों भाई उस चबूतरे की राह निकले हैं, उस दिन देखा कि इसके अतिरिक्त एक रास्ता और भी है।’’

इन्द्रदेव : जी हाँ, दूसरा रास्ता भी जरूर है, मगर वह तिलिस्म के दारोगा के लिए बनाया गया था, तिलिस्म तोड़नेवाले के लिए नहीं। मुझे उस रास्ते का हाल बखूबी मालूम है।

गोपाल : मुझे भी उस रास्ते का हाल (इन्द्रदेव की तरफ इशारा करके) इन्हीं की जुबानी मालूम हुआ है, इसके पहिले मैं कुछ भी नहीं जानता था और न ही मालूम था कि इस तिलिस्म के दारोगा यही हैं।

इसके बाद कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने सभों को तहखाने अथवा कोठरियों और कमरों की सैर करायी, जिसमें लाजवाब और हद्द दरजे की फिजूल-खर्ची को मात करनेवाली दौलत भरी हुई थी और एक-से-एक बढ़कर अनूठी चीजें लोगों के दिल को अपनी तरफ खैंच रही थीं। साथ ही इसके यह भी समझाया कि इन कोठरियों को हम लोगों ने कैसे खोला और इस काम में कैसी-कैसी कठिनाइयाँ उठानी पड़ीं।

घूमते-फिरते और सैर करते हुए सबकोई उस मध्यवाले कमरे में पहुँचे, जो ठीक तिलिस्मी चबूतरे के नीचे था। वास्तव में यह कमरा कल-पुरजों से बिल्कुल भरा हु्आ था। जमीन से छत तक बहुत-सी तारों और कल-पुरजों का सम्बन्ध था और दीवार के अन्दर से ऊपर चढ़ जाने के लिए सीढ़ियाँ दिखायी दे रही थीं।

दोनों कुमारों ने महाराज को समझाया कि तिलिस्म टूटने के पहिले वे कल-पुरजे किस ढंग पर लगे थे और तोड़ते समय उनके साथ कैसी कार्रवाई की गयी। इसके बाद इन्द्रजीतसिंह ने सीढ़ियो की तरफ इशारा करके कहा, ‘‘अब भी इन सीढ़ियों का तिलिस्म कायम है, हरएक की मजाल नहीं कि इन पर पैर रख सके।’’

बीरेन्द्र : यह सबकुछ है, मगर असल तिलिस्मी बुनियाद वही खोहवाला बँगला जान पड़ता है, जिसमें चलती-फिरती तस्वीरों का तमाशा देखा था और जहाँ से तिलिस्म के अन्दर घुसे थे।

सुरेन्द्र : इसमें क्या शक है। वही चुनार, जमानिया और रोहतासगढ़ वगैरह के तिलिस्मों की नकेल है और वहाँ रहनेवाला तरह-तरह के तमाशे देख-दिखा सकता है और सबसे बढ़के आनन्द ले सकता है।

जीत : वहाँ की पूरी-पूरी कैफियत अभी देखने में नहीं आयी।

इन्द्रजीत : दो-चार दिन में वहाँ की कैफियत देख भी नहीं सकते। जो कुछ आप लोगों ने देखा वह रुपये में एक आना भी न था। मुझे भी अभी पुनः वहाँ जाकर बहुतकुछ देखना बाकी है।

सुरेन्द्र : इस समय तो जल्दी में थोड़ा-बहुत देख लिया है, मगर काम से निश्चिन्त होकर पुनः हम लोग वहाँ चलेंगे और उसी जगह से रोहतासगढ़ के तहखाने की भी सैर करेंगे। अच्छा अब यहाँ से बाहर होना चाहिए।

आगे-आगे कुँअर इन्द्रजीतसिंह रवाना हुए। पाँच-सात सीढ़ियाँ चढ़ जाने के बाद एक छोटा-सा लोहे का दरवाजा मिला, जिसे उसी हीरेवाली तिलिस्मी ताली से खोला और तब सभों के लिये हुए दोनों कुमार तिलिस्मी चबूतरे के बाहर हुए।

सबकोई तिलिस्म की सैर करके लौट आये और अपने-अपने काम धन्धे में लगे। कैदियों के मुकदमें को थोड़े दिन तक मुतलवी रखकर, कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह की शादी पर सभों ने ध्यान दिया और इसी के इन्तजाम की फिक्र करने लगे। महाराज सुरेन्द्रसिंह ने जो काम जिसके लायक समझा, उसके सुपुर्द करके कुल कैदियों को चुनारगढ़ भेजने का हुक्म दिया और यह भी निश्चय कर लिया कि दो-तीन दिन के बाद हम लोग भी चुनारगढ़ चले जायँगे, क्योंकि बारात चुनारगढ़ ही से निकलकर यहाँ आवेगी।

भरथसिंह और दलीपशाह वगैरह का डेरा बलभद्रसिंह के पड़ोस ही में पड़ा और दूसरे मेहमानों के साथ-ही-साथ इनकी खातिरदारी का बोझ भी भूतनाथ के ऊपर डाला गया। इस जगह संक्षेप में हम यह भी लिख देना उचित समझते हैं कि कौन काम किसके सुपुर्द किया गया।

(१) इस तिलिस्मी इमारत के इर्द-गिर्द जिन मेहमानों के डेरे पड़े हैं, उन्हें किसी बात की तकलीफ तो नहीं होती, इस बात को बराबर मालूम करते रहने का काम भूतनाथ के सुपुर्द किया गया।

(२) मोदी, बनिए और हलवाई वगैरह किसी से किसी चीज का दाम तो नहीं लेते, इस बात की तहकीकात के लिए रामनारायण ऐयार मुकर्रर किये गये।

(३) रसद वगैरह के काम में कहीं किसी तरह की बेईमानी तो नहीं होती, या चोरी का नाम तो किसी की जुबान से नहीं सुनायी देता, इसको जानने और शिकायतों को दूर करने पर चुन्नीलाल ऐयार तैनात किये गये।

(४) इस तिलिस्मी इमारत से लेकर चुनारगढ़ तक की सड़क और उसकी सजावट का काम, पन्नालाल और पण्डित बद्रीनाथ के जिम्मे किया गया।

(५) चुनारगढ़ में बाहर से न्योते में आये हुए पण्डितों की खातिरदारी और पूजा-पाठ इत्यादि के सामान की दुरुस्ती का बोझ जगन्नाथ ज्योतिषी के ऊपर डाला गया।

(६) बारात और महफिल वगैरह की सजावट तथा उसके सम्बन्ध में जोकुछ काम हो उसके जिम्मेवार तेजसिंह बनाये गये।

(७) आतिशबाजी और अजायबातों के तमाशे तैयार करने के साथ-ही-साथ उसी तरह की एक इमारत के बनाने का हुक्म इन्द्रदेव को दिया गया, जैसी इमारत के अन्दर हँसते-हँसते इन्द्रजीतसिंह वगैरह एक दफे कूद गये थे और जिसका भेद अभी तक खोला नहीं गया है।* (*देखिए सन्तति पाँचवाँ भाग, चौथा बयान।)

(८) पन्नालाल वगैरह के बदले में रणधीरसिंहजी के डेरे की हिफाजत तथा किशोरी, कामिनी वगैरह की निगरानी के जिम्मेवार देवीसिंह बनाये गये।

(९) ब्याह-सम्बन्धी खर्च की तहवील (रोकड़) राजा गोपालसिंह के हवाले की गयी।

(१॰) कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह के साथ रहकर उनके विवाह-सम्बन्धी शानशौकत और जरूरतों को कायदे के साथ निबाहने के लिए भैरोसिंह और तारासिंह छोड़ दिये गये।

(११) हरनामसिंह को अपने मातहत कर जीतसिंह ने यह काम अपने जिम्मे ले लिया कि हरएक के कामों की जाँच और निगरानी रखने के अतिरिक्त, कुछ कैदियों को भी किसी उचित ढंग से इस विवाहोत्सव के तमाशे दिखा देंगे, ताकि वे लोग भी देख लें कि जिस शुभ-दिन के हम बाधक थे, वह आज किस खुशी और खूबी के साथ बीत रहा है और सर्वसाधारण भी देख लें कि धन-दौलत और ऐश आराम के फेर में पड़कर अपने पैर में आप कुल्हाड़ी मारनेवाले, छोटे होकर बड़ों के साथ बैर बाँध के नतीजा भोगनेवाले, मालिक के साथ में नमकहरामी और उग्र पाप करने का कुछ फल इस जन्म में भी भोग लेनेवाले और बदनीयती तथा पाप के साथ ऊँचे दर्जे पर पहुँचकर यकायक रसातल में पहुँच जानेवाले, धर्म और ईश्वर से विमुख ये ही प्रायश्चित्ती लोग हैं।

इन सभों के साथ मातहती में काम करने के लिए आदमी भी काफी तौर पर दिये गये।

इनके अतिरिक्त और लोगों को भी तरह-तरह के काम सुपुर्द किये गये और सब कोई बड़ी खूबी के साथ अपना-अपना काम करने लगे।

अब हम थोड़ा-सा हाल कुँअर इन्द्रजीतसिंह का बयान करेंगे, जिन्हें इस बात का बहुत ही रंज है कि कमलिनी की शादी किसी दूसरे के साथ हो गयी और वे उम्मीद ही में बैठे रह गये।

रात पहर-भर से ज्यादे जा चुकी है और कुँअर इन्द्रजीतसिंह अपने कमरे में बैठे भैरोसिंह से धीरे-धीरे बातें कर रहे हैं। इन दोनों के सिवाय कोई तीसरा आदमी इस कमरे में नहीं है और कमरे का दरवाजा भी भिड़काया हुआ है।

भैरो : तो आप साफ-साफ कहते क्यों नहीं कि आपकी उदासी का सबब क्या है? आपको तो आज खुश होना चाहिए कि जिस काम के लिए बरसों परेशान रहे, जिसकी उम्मीद में तरह-तरह की तकलीफ उठायी, जिसके लिए हथेली पर जान रखके बड़े-बड़े दुश्मनों से मुकाबिला करना पड़ा और जिसके होने या मिलने ही पर तमाम दुनिया की खुशी समझी जाती थी, आज वही काम आपकी इच्छानुसार हो रहा है और उसी किशोरी के साथ अपनी शादी का इन्तजाम अपनी आँखों से देख रहे हैं फिर भी ऐसी अवस्था में आपको उदास देखकर कौन ऐसा है, जो ताज्जुब न करेगा?

इन्द्रजीत : बेशक, मेरे लिए आज बड़ी खुशी का दिन है और मैं खुश हूँ भी, मगर कमलिनी की तरफ से जो रंज मुझे हुआ है, उसे हजार कोशिश करने पर भी मेरा दिल बरदाश्त नहीं कर पाता।

भैरो : (ताज्जुब का चेहरा बनाकर) हैं, कमलिनी की तरफ से और आपको रंज है! यह आप क्या कह रहे हैं?

इन्द्रजीत : इस बात को तो मैं खुद कह रहा हूँ कि उसके अहसानों के बोझ से मैं जिन्दगी-भर हल्का नहीं हो सकता और अब तक उसके जी में मेरी भलाई का ध्यान बँधा ही हुआ है, मगर रंज इस बात का है कि अब मैं उसे उस मोहब्बत की निगाह से नहीं देख सकता, जिससे कि पहिले देखता था।

भैरो : सो क्यों, क्या इसलिए कि अब वह अपने ससुराल चली जायगी और फिर उसे आप पर एहसान करने का मौका न मिलेगा।

इन्द्रजीत : हाँ, करीब-करीब यही बात है।

भैरो : मगर अब आपको उसकी मदद की जरूरत भी तो नहीं है। हाँ, इस बात का खयाल बेशक हो सकता है कि अब आप उसके तिलिस्मी मकान पर कब्जा न कर सकेंगे।

इन्द्रजीत : नहीं नहीं, मुझे इस बात की कुछ जरूरत नहीं है और न इसका कुछ खयाल ही है!

भैरो : तो इस बात का खयाल है कि उसने अपनी शादी में आपको न्योता नहीं दिया? मगर वह एक हिन्दू लड़की की हैसियत से ऐसा कर भी तो नहीं सकती थी! हाँ, इस बात की शिकायत आप राजा गोपालसिंहजी से जरूर कर सकते हैं, क्योंकि उस काम के कर्ता-धर्ता वे ही हैं।

इन्द्रजीत : उनसे तो मुझे बहुत ही शिकायत है, मगर मैं शर्म के मारे कुछ कह नहीं सकता।  

भैरो : (चौंककर) शर्म तो तब होती है, जब आप इस बात की शिकायत करते कि मैं खुद उससे शादी किया चाहता था।

इन्द्रजीत : हाँ, बात तो ऐसी ही है। (मुस्कुराकर) मगर तुम तो पागलों की-सी बातें करते हो।

भैरो : (हँसकर) यह कहिए न! आप दोनों हाथ लड्डू चाहते थे! तो इस चोर को आप इतने दिन छिपाये क्यों रहे?

इन्द्रजीत : तो यही कब उम्मीद हो सकती थी कि इस तरह यकायक गुमसुम शादी हो जायगी।

भैरो : खैर, अब तो जोकुछ होना था, सो हो गया, मगर आपको इस बात का खयाल न करना चाहिए। इसके अतिरिक्त क्या आप समझते हैं कि किशोरी इस बात को पसन्द करती? कभी नहीं, बल्कि आये दिन का झगड़ा पैदा हो जाता।

इन्द्रजीत : नहीं, किशोरी से मुझे ऐसी उम्मीद नहीं हो सकती। खैर, अब इस विषय पर बहस करना व्यर्थ है, मगर मुझे इसका रंज जरूर है। अच्छा यह तो बताओ तुमने उन्हें देखा है, जिसके साथ कमलिनी की शादी हुई?

भैरो : कई दफे, बातें भी अच्छी तरह कर चुका हूँ।

इन्द्रजीत : कैसे हैं?

भैरो : बड़े लायक, पढ़े-लिखे, पण्डित, बहादुर, दिलेर, हँसमुख और सुन्दर। इस अवसर पर आवेंगे ही, देख लीजियेगा। आपने कमलिनी से इस बारे में बातचीत नहीं की?  

इन्द्रजीत : इधर तो नहीं, मगर तिलिस्म की सैर को जाने के पहिले मुलाकात हुई थी, उसने खुद मुझे बुलाया था, बल्कि उसी की जुबानी उसकी शादी का हाल मुझे मालूम हुआ था। मगर उसने मेरे साथ विचित्र ढंग का बर्ताव किया।

भैरो : सो क्या?

इन्द्रजीत : (जोकुछ कैफियत हो चुकी थी, उसे बयान करने के बाद) तुम इस बर्ताव को कैसा समझते हो

भैरो : बहुत अच्छा और उचित।

इसी तरह की बातचीत हो रही थी कि पहिले दिन की तरह बगलवाले कमरे का दरवाजा खुला और एक लौंडी ने आकर सलाम करने के बाद कहा, ‘‘कमलिनीजी आपसे मिला चाहती हैं, आज्ञा हो तो...’’

इन्द्रजीत : अच्छा मैं चलता हूँ, तू दरवाजा बन्द कर दे।

भैरो : अब मैं भी जाकर आराम करता हूँ।

इन्द्रजीत : अच्छा जाओ फिर कल देखा जायगा।

लौंडी : इनसे (भैरोसिंह से) भी उन्हें कुछ कहना है।

यह कहती हुई लौंडी ने दरवाजा बन्द कर दिया, तब तक स्वयं कमलिनी इस कमरे में आ पहुँची और भैरोसिंह की तरफ देखकर बोली, (जो उठकर बाहर जाने के लिए तैयार था) ‘‘आप कहाँ चले? आप ही से तो मुझे बहुत-सी शिकायत करनी है।’’

भैरो : सो क्या?

कमलिनी : अब उसी कमरे में चलिए, वहाँ बातचीत होगी।

इतनी कहकर कमलिनी ने कुमार का हाथ पकड़ लिया और अपने कमरे की तरफ ले चली, पीछे-पीछे भैरोसिंह भी गये। लौंडी दरवाजा बन्द करके दूसरी राह से बाहर चली गयी और कमलिनी ने इन दोनों को उचित स्थान पर बैठाकर पानदान आगे रख दिया और भैरोसिंह से कहा, ‘‘आप लोग तिलिस्म की सैर कर आये और मुझे पूछा भी नहीं!’’

भैरो : महाराज खुद कह चुके हैं कि शादी के बाद औरतों को भी तिलिस्म की सैर करा दी जाय और फिर तो तुम्हारे लिए कहना ही क्या है, तुम जब चाहो तिलिस्म की सैर कर सकती हो।

कमलिनी : ठीक है, मानो यह मेरे हाथ की बात है।

भैरो : हुई है।

कमलिनी : (हँसकर) टालने के लिए यह अच्छा ढंग है! खैर, जाने दीजिए, मुझे कुछ ऐसा शौक भी नहीं है, हाँ, यह बताइए कि वहाँ क्या-क्या कैफियत देखने में आयी? मैंने सुना कि भूतनाथ वहाँ बड़े चक्कर में पड़ गया था और उसकी पहिली स्त्री भी वहाँ दिखायी पड़ गयी।

भैरो : बेशक, ऐसा ही हुआ।

इतना कहकर भैरोसिंह ने कुल हाल खुलासा बयान किया और इसके बाद कमलिनी ने इन्द्रजीतसिंह से कहा, ‘‘खैर, आप बताइए कि शादी की खुशी में मुझे क्या इनाम मिलेगा?’’

इन्द्रजीत : (हँसकर) गालियों के सिवाय और किसी चीज की तुम्हें कमी ही क्या है, जो मैं दूँ?

कमलिनी : (भैरो से) सुन लीजिए, मेरे लिए कैसा अच्छा इनाम सोचा गया है! (कुमार से हँसकर) याद रखियेगा, इस जवाब के बदले में मैं आपको ऐसा छकाऊँगी कि खुश हो जाइयेगा!

भैरो : इन्हें तो तुम छका ही चुकी हो, अब इससे बढ़के क्या होगा कि चुपचाप दूसरे के साथ शादी कर ली और इन्हें अँगूठा दिखा दिया। अब तुम्हें ये गालियाँ न दें तो क्या करें!

कमलिनी : (मुस्कुराती हुई) आपकी राय भी यही है?

भैरो : बेशक!

कमलिनी : तो बेचारी किशोरी के साथ आप अच्छा सलूक करते हैं।

भैरो : इसका इलजाम तो कुमार के ऊपर हो सकता है!

कमलिनी : हाँ, साहब, मर्दों की मुरौवत जोकुछ कर दिखाये थोड़ा है, मैं किशोरी बहिन से इसका जिक्र करूँगी!

भैरो : तब तो अहसान पर अहसान करोगी।

इन्द्रजीत : (भैरो से) तुम भी व्यर्थ की छेड़छाड़ मचा रहे हो, भला इन बातों से क्या फायदा?

भैरो : ब्याह-शादी में ऐसी बातें हुआ ही करती हैं!

इन्द्रजीत : तुम्हारा सिर हुआ करता है! (कमलिनी से) अच्छा यह बताओ कि इस समय तुमने मुझे क्यों याद किया?

कमलिनी : हरे राम! अब क्या मैं ऐसी भारी हो गयी कि मुझसे मिलना भी बुरा मालूम होता है?

इन्द्रजीत : नहीं नहीं, अगर मिलना बुरा मालूम होता तो मैं यहाँ आता ही क्यों? पूँछता हूँ कि आखिर कोई काम भी है या...?

कमलिनी : हाँ, है तो सही।

इन्द्रजीत : कहो!

कमलिनी : आपको शायद मालूम होगा कि मेरे पिता जब से यहाँ आये हैं, उन्होंने अपने खाने-पीने का इन्तजाम अलग कर रक्खा है, अर्थात् आपके यहाँ का अन्न नहीं खाते, और न अपने लिए कुछ खर्च कराते हैं।

इन्द्रजीत : हाँ, मुझे मालूम है।

कमलिनी : अब उन्होंने इस मकान में रहने से भी इनकार कर दिया है। उनके एक मित्र ने खेमे वगैरह का इन्तजाम कर दिया है और वे उसी में अपना डेरा उठा ले जानेवाले हैं।

इन्द्रजीत : यह भी मालूम है।

कमलिनी : मेरी इच्छा है कि यदि आप आज्ञा दें तो लाडिली को साथ लेकर मैं भी उसी डेरे में चली जाऊँ।

इन्द्रजीत : क्यों, तुम्हें यहाँ रहने में परहेज ही क्या हो सकता है?

कमलिनी : नहीं नहीं, मुझे किस बात का परहेज होगा, मगर यों ही जी चाहता है कि मैं दो-चार दिन अपने बाप के साथ ही रहकर उनकी खिदमत करूँ।

इन्द्रजीत : यह दूसरी बात है, इसकी इजाजत तुम्हें अपने मालिक से लेनी चाहिए, मैं कौन हूँ जो इजाजत दूँ?

कमलिनी : इस समय वे तो यहाँ हैं नहीं। अस्तु, उसके बदले में मैं आप ही को अपना मालिक समझती हूँ।

इन्द्रजीत : (मुस्कुराकर) फिर तुमने वही रास्ता पकड़ा? खैर, मैं इस बात की इजाजत न दूँगा।

कमलिनी : तो मैं आज्ञा के विरुद्ध कुछ न करूँगी।

इन्द्रजीत : (भैरो से) इनकी बातचीत का ढंग देखते हो?

भैरो : (हँसकर) शादी हो जाने पर भी ये आपको नहीं छोड़ा चाहती तो मैं क्या करूँ।

कमलिनी : अच्छा मुझे एक बात की इजाजत तो जरूर दीजिए।

इन्द्रजीत : वह क्या?

कमलिनी : आपकी शादी में मैं आपसे एक विचित्र दिल्लगी किया चाहती हूँ।

इन्द्रजीत : वह कौन-सी दिल्लगी होगी?

कमलिनी : यही बता दूँगी तो उसमें मजा ही क्या रह जायगा? बस आप इतना कह दीजिए कि उस दिल्लगी से रंज न होंगे चाहे वह कैसी ही गहरी क्यों न हो।

इन्द्रजीत : (कुछ सोचकर) खैर, मैं रंज न होऊँगा।

इसके बाद थोड़ी देर तक हँसी की बातें होती रहीं और फिर सब कोई उठकर अपने-अपने ठिकाने चले गये।

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