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चन्द्रकान्ता सन्तति - 6

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :237
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8404
आईएसबीएन :978-1-61301-031-0

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चन्द्रकान्ता सन्तति 6 पुस्तक का ईपुस्तक संस्करण...

ग्यारहवाँ बयान


ब्याह की तैयारी और हँसी-खुशी में ही कई सप्ताह बीत गये और किसी को कुछ मालूम न हुआ। हाँ, कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह को खुशी के साथ ही रंज और उदासी से भी मुकाबला करना पड़ा। यह रंज और उदासी क्यों? शायद कमलिनी और लाडिली के सबब से हो। जिस तरह कुँअर इन्द्रजीतसिंह कमलिनी से मिलकर और उसकी जुबानी उसके ब्याह का हो जाना सुनकर दुःखी हुए, उसी तरह आनन्दसिंह को भी लाडिली से मिलकर दुःखी होना पड़ा या नहीं सो हम नहीं कह सकते, क्योंकि लाडिली से और आनन्दसिंह से जो बातें हुईं, उससे और कमलिनी की बातों से बड़ा फर्क है। कमलिनी ने तो खुद इन्द्रजीतसिंह को अपने कमरे में बुलवाया था, मगर लाडिली ने ऐसा नहीं किया। लाडिली का कमरा भी आनन्दसिंह के कमरे के बगल ही में था। जिस रात कमलिनी से और इन्द्रजीतसिंह से दूसरी मुलाकात हुई थी, उसी रात आनन्दसिंह ने भी अपने बगलवाले कमरे में लाडिली को देखा था, मगर दूसरे ढंग से। आनन्दसिंह अपने कमरे में मसहरी पर लेटे हुए तरह-तरह की बातें सोच रहे थे कि उसी समय बगलवाले कमरे में से कुछ खटके की आवाज आयी, जिससे आनन्दसिंह चौंके और उन्होंने घूमकर देखा तो उस कमरे का दरवाजा कुछ खुला हुआ नजर आया। इन्हें यह जरूर मालूम था कि हमारे बगल ही में लाडिली का कमरा है और उससे मिलने की नीयत से इन्होंने कई दफे दरवाजा खोलना भी चाहा था, मगर बन्द पाकर लाचार हो गये थे। अब दरवाजा खुला पाकर बहुत खुश हुए और मसहरी पर से उठ धीरे-धीरे दरवाजे के पास गये। हाथ के सहारे दरवाजा कुछ विशेष खोला और अन्दर की तरफ झाँक कर देखा। लाडिली पर निगाह पड़ी, जो एक शमादान के आगे बैठी हुई कुछ लिख रही थी। शायद उसे इस बात की कुछ खबर ही न थी कि मुझे कोई देख रहा है।

भीतर सन्नाटा पाकर अर्थात् किसी गैर को न देखकर आनन्दसिंह बेधड़क कमरे के अन्दर चले गये। पैर की आहट पाते ही लाडिली चौंकी तथा आनन्दसिंह को अपनी तरफ आते देख उठ खड़ी हुई और बोली, आपने दरवाजा कैसे खोल लिया?’’

आनन्द : (मुस्कुराते हुए) किसी हिकमत से!

लाडिली : क्या आज के पहिले वह हिकमत मालूम न थी? शायद सफाई के लिए किसी लौंडी ने दरवाजा खोला हो और बन्द करना भूल गयी हो।

आनन्द : अगर ऐसा ही हो तो क्या कुछ हर्ज है?

लाडिली : नहीं, हर्ज काहे का है, मैं तो खुद ही आपसे मिला चाहती थी, मगर लाचारी...

आनन्द : लाचारी कैसी? क्या किसी ने मना कर दिया था?

लाडिली : मना ही समझना चाहिए जबकि मेरी बहिन कमलिनी ने जोर देकर कह दिया कि ‘या तो तू मेरी इच्छानुसार शादी कर ले, या इस बात की कसम खा जा कि किसी गैर मर्द से कभी बातचीत न करेगी’। जिस समय उनकी (कमलिनी की) शादी होने लगी थी, उस समय भी लोगों ने मुझ पर शादी कर लेने का दबाव डाला था, मगर मैं इस समय जैसी हूँ, वैसी ही रहने के लिए कसम खा चुकी हूँ, मतलब यह है कि इसी बखेड़े में मुझसे और उनसे कुछ तकरार भी हो गयी है।

आनन्द : (घबराहट और तज्जुब के साथ) क्या कमलिनी की शादी हो गयी?

लाडिली : जी हाँ,।

आनन्द : किसके साथ?

लाडिली : सो तो मैं नहीं कह सकती, आपको खुद मालूम हो जायगा।

आनन्द : यह बहुत बुरा हुआ।

लाडिली : बेशक, बहुत बुरा हुआ मगर क्या किया जाय, जीजाजी (गोपालसिंह) की मर्जी ऐसी ही थी, क्योंकि किशोरी ने ऐसा करने के लिए उन पर बहुत जोर डाला था। अस्तु, कमलिनी बहिन दबाव में पड़ गयीं, मगर मैंने साफ इनकार कर दिया कि जैसी हूँ वैसी ही रहूँगी।

आनन्द : तुमने बहुत अच्छा किया।

लाडिली : और मैं ऐसा करने के लिए सख्त कसम खा चुकी हूँ।

आनन्द : (ताज्जुब से) क्या तुम्हारे इस कहने का यह मतलब लगाया जाय कि अब तुम शादी करोगी ही नहीं?

लाडिली : बेशक!

आनन्द : यह तो कोई अच्छी बात नहीं!

लाडिली : जो हो, अब तो मैं कसम खा चुकी हूँ और बहुत जल्द यहाँ से चली जानेवाली भी हूँ, सिर्फ कामिनी बहिन की शादी हो जाने का इन्तजार कर रही हूँ।

आनन्द : (कुछ सोचकर) कहाँ जाओगी?

लाडिली : आप लोगों की कृपा से अब तो मेरा बाप भी प्रकट हो गया है, अब इसकी चिन्ता ही क्या है?

आनन्द : मगर जहाँ तक मैं समझता हूँ, तुम्हारे बाप, तुम्हें शादी करने के लिए जरूर जोर देगें।

लाडिली : इस विषय में उनकी कुछ न चलेगी।

लाडिली की बातों से आनन्दसिंह को ताज्जुब के साथ-ही-साथ रंज भी हुआ और ज्यादे रंज तो इस बात का था कि अब तक लाडिली ने खड़े-ही-खड़े बातचीत की और कुमार को बैठने तक के लिए नहीं कहा। शायद इसका यह मतलब हो कि ‘मैं ज्यादे देर तक आप से बात नहीं कर सकती’। अस्तु, आनन्दसिंह को क्रोध और दुःख के साथ लज्जा ने भी धर दबाया और वे यह कहकर कि ‘अच्छा मैं जाता हूँ’ अपने कमरे की तरफ लौट चले।

आनन्दसिंह के दिल में जो बात घूम रही थीं, उनका अन्दाजा शायद लाडिली को भी मिल गया और जब वे लौटकर जाने लगे, तब उसने पुनः इस ढंग पर कहा मानो उसकी आखिरी बात अभी पूरी नहीं हुई थी–‘‘क्योंकि जिनकी मुझ पर कृपा रहती थी, अब वे और ही ढंग के हो गये!!’’

इस बात ने कुमार को तरद्दुद में डाल दिया। उन्होंने घूमकर एक तिरछी निगाह लाडिली पर डाली और कहा, ‘‘इसका क्या मतलब?’’

लाडिली : सो कहने की सामर्थ्य मुझमें नहीं है। हाँ, जब आपकी शादी हो जायगी, तब मैं साफ आपसे कह दूँगी, उस समय जोकुछ आप राय देंगे उसे मैं कबूल कर लूँगी!

इस आखिरी बात से कुमार को कुछ हिम्मत बँध गयी, मगर बैठने की या और कुछ कहने की हिम्मत न पड़ी, और ‘अच्छा’ कहकर वे अपने कमरे में चले आये।

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