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चन्द्रकान्ता सन्तति - 6

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :237
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8404
आईएसबीएन :978-1-61301-031-0

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चन्द्रकान्ता सन्तति 6 पुस्तक का ईपुस्तक संस्करण...

तेरहवाँ बयान


आज कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह के खुशी का कोई ठिकाना नहीं है, क्योंकि तरह-तरह की तकलीफें उठाकर, एक मुद्दत के बाद इन दोनों की दिली मुरादें हासिल हुई हैं।

रात आधी से कुछ ज्यादे जा चुकी है और एक सुन्दर सजे हुए कमरे में ऊँची और मुलायम गद्दी पर किशोरी और कुँअर इन्द्रजीतसिंह बैठे हुए दिखायी देते हैं। यद्यपि कुँअर इन्द्रजीतसिंह की तरह किशोरी के दिल में भी तरह-तरह की उमँगें भरी हुई हैं, और वह आज इस ढंग पर कुँअर इन्द्रजीतसिंह की पहिली मुलाकात को सौभाग्य का कारण समझती है, मगर उस अनोखी लज्जा के पाले में पड़ी हुई किशोरी का चेहरा घूँघट की ओट से बाहर नहीं होता, जिसे प्रकृति अपने हाथों से औरत की बुद्धि में जन्म ही से दे देती है। यद्यपि आज से पहले कुँअर इन्द्रजीतसिंह को कई दफे किशोरी देख चुकी है, और उनसे बातें भी कर चुकी है, तथापि आज पूरी स्वतंत्रता मिलने पर भी यकायक सूरत दिखाने की हिम्मत नहीं पड़ती। कुमार तरह-तरह की बातें कहकर और समझाकर उसकी लज्जा दूर किया चाहते हैं मगर कृतकार्य नहीं होते। बहुत कुछ कहने-सुनने पर कभी-कभी किशोरी एक-दो शब्द बोल देती है, मगर वह भी धड़कते हुए कलेजे के साथ। कुमार ने सोच लिया कि यह स्त्रियों की प्रकृति है अतएव इसके विरुद्ध जोर न देना चाहिए, यदि इस समय इसकी हिम्मत नहीं खुलती तो क्या हुआ, घण्टे-दो-घण्टे, पहर या दो दिन में खुल ही जायगी। आखिर ऐसा ही हुआ।

इसके बाद किस तरह की छेड़छाड़ शुरू हुई या क्या हुआ सो हम नहीं लिख सकते, हाँ, उस समय का हाल जरूर लिखेंगे, जब धीरे-धीरे सुबह की सुफेदी आसमान पर फैलने लग गयी थी और नियमानुसार प्रातः काल बजायी जानेवाली नफीरी की आवाज ने कुँअर इन्द्रजीतसिंह और किशोरी को नींद से जगा दिया था। किशोरी जो कुँअर इन्द्रजीतसिंह के बगल में सोई हुई थी, घबड़ाकर उठ बैठी और मुँह धोने तथा बिखरे हुए बालों को सुधारने की नीयत से उस सुनहरी चौकी की तरफ बढ़ी, जिस पर सोने के बर्तन में गंगाजल भरा हुआ था, और जिसके पास ही जल गिराने के लिए एक बड़ा-सा चाँदी का आफताबा भी रक्खा हुआ था। हाथ में जल लेकर चेहरे पर लगाने और पुनः अपना हाथ देखने के साथ ही किशोरी चौंक पड़ी और घबराकर बोली, ‘‘हैं! यह क्या मामला है?’’

इन शब्दों ने कुँअर इन्द्रजीतसिंह को चौंका दिया। वे घबड़ाकर किशोरी के पास चले गये और पूछा, ‘‘क्यों क्या हुआ?’’

किशोरी : मेरे साथ यह क्या दिल्लगी की!!

इन्द्रजीत : कुछ कहो भी तो क्या हुआ?

किशोरी : (हाथ दिखाकर) देखिए यह रंग कैसा है, जो चेहरे पर से पानी लगने के साथ ही छूट रहा है।

इन्द्रजीत : (हाथ देखकर) हाँ, है तो सही! मगर मैंने तो कुछ भी नहीं किया, तुम खुद सोच सकती हो कि मैं भला तुम्हारे चेहरे पर रंग क्यों लगाने लगा। मगर तुम्हारे चेहरे पर यह रंग आया ही कहाँ से!

किशोरी : (पुनः चेहरे पर जल लगाके) यह देखिए है, या नहीं!

इन्द्रजीत : सो तो मैं खुद कह रहा हूँ कि रंग जरूर है, मगर जरा मेरी तरफ देखो तो सही!

किशोरी ने जो अब समयानुकूल लज्जा के हाथों से छूटकर ढिठाई का पल्ला पकड़ चुकी थी, और जब कई घण्टों की कशमकश और चालचलन की बदौलत बातचीत करने लायक समझी जाती थी, कुमार की तरफ देखा और फिर कहा, ‘‘देखिए और कहिए यह किसकी सूरत है?’’

इन्द्रजीत : (और भी हैरान होकर) बड़े ताज्जुब की बात है! और इस रंग के छूटने से तुम्हारा चेहरा भी कुछ बदला हुआ-सा मालूम पड़ता है! अच्छा जरा अच्छी तरह मुँह धो डालो।

किशोरी ने ‘अच्छा’ कह मुँह धो डाला और रुमाल से पोंछने के बाद कुमार की तरफ देखकर बोली, ‘‘बताइए अब कैसा मालूम पड़ता है, रंग अब छूट गया या अभी नहीं?’’

इन्द्रजीत : (घबड़ाकर) हैं! अब तो तुम साफ कमलिनी मालूम पड़ती हो! यह क्या मामला है?

किशोरी : मैं कमलिनी तो हूँ। क्या पहिले कोई दूसरी मालूम पड़ती थी?

इन्द्रजीत : बेशक! पहिले तुम किशोरी मालूम पड़ती थीं, कम रोशनी और कुछ लज्जा के कारण यद्यपि बहुत अच्छी तरह तुम्हारी सूरत रात को देखने में नहीं आयी तथापि मौके-मौके पर कई दफे निगाह पड़ ही गयी थी। अस्तु, किशोरी के सिवाय दूसरी होने का गुमान भी नहीं हो सकता था! मगर सच तो यों है कि तुमने मुझे बड़ा धोखा दिया!

कमलिनी : (जिसे अब इसी नाम से लिखना उचित है) मैंने धोखा नहीं दिया, बल्कि आप मुझे इस बात का जवाब तो दीजिए कि अगर आपने मुझे किशोरी समझा था तो इतनी ढिठाई करने की हिम्मत कैसे पड़ी? क्योंकि किशोरी आपकी स्त्री नहीं थी!

इन्द्रजीत : क्या पागलपने की-सी बातें कर रही हो। अगर किशोरी मेरी स्त्री नहीं थी तो क्या तुम मेरी स्त्री थीं?

कमलिनी : अगर आपने मुझे किशोरी समझा था तो आपको मेरे पास से उठ जाना चाहिए था। जबकि आप जानते हैं कि किशोरी कुमार के साथ ब्याही गयी है, तो आपको उसके पास बैठने या उससे बातचीत करने का क्या हक था?

इन्द्रजीत : तो क्या मैं इन्द्रजीतसिंह नहीं हूँ? बल्कि उचित तो यह था कि तुम मेरे पास से उठ जातीं। जब तुम कमलिनी थीं तो तुम्हें पराये मर्द के पास बैठना भी न चाहिए था।

कमलिनी : (ताज्जुब और कुछ क्रोध का चेहरा बनाकर) फिर आप वही बातें कहे जाते हैं? आप अपने को समझ ही क्या रहे हैं? पहिले आप आईने में अपनी सूरत देखिए और तब कहिए कि आप किशोरी के पति हैं या कमलिनी के! (आले पर से आईना उठा और कुमार को दिखाकर) बतलाइए आप कौन हैं? और मैं क्यों आपके पास से उठ जाती?

अब तो कुमार के ताज्जुब का कोई हद्द न रहा, क्योंकि आईने में उन्होंने अपनी सूरत में फर्क पाया। यह तो नहीं कह सकते थे कि किस आदमी की सूरत मालूम पड़ती है, क्योंकि ऐसे आदमी को कभी देखा भी न था, मगर इतना जरूर कह सकते थे कि सूरत बदल गयी है और अब मैं इन्द्रजीतसिंह नहीं मालूम पड़ता। इन्द्रजीतसिंह समझ गये कि किसी ने मेरे और कमलिनी के साथ चालबाजी करके दोनों का धर्म नष्ट किया और इसमें बेचारी कमलिनी का कोई कसूर नहीं है, मगर फिर भी कमलिनी को आज का सामान देखकर चौंकना चाहिए था। हाँ, ताज्जुब की बात यह है कि इस घर में आने के पहिले मुझे किसी ने टोका भी नहीं! तो क्या इस घर में आने के बाद मेरी सूरत बदली गयी? मगर ऐसा भी क्योंकर हो सकता है? इत्यादि बातें सोचते हुए कुमार कमलिनी का मुँह देखने लगे। कमलिनी ने आईना हाथ से रख दिया और पूछा, ‘‘अब बताइए आप कौन हैं!’’ इसके जवाब में इन्द्रजीतसिंह ने कहा, ‘‘अब मैं भी अपना मुँह धो डालूँ तो कहूँ।’’

इतना कहकर कुमार ने भी जल से अपना चेहरा साफ किया और रूमाल से पोंछने के बाद कमलिनी की तरफ देखके कहा–‘‘अब तुम ही बताओ कि मैं कौन हूँ?’’

कमलिनी : अरे, यह क्या हुआ तुम तो बेशक बड़े कुमार हो! मगर तुमने मेरे साथ ऐसा क्यों किया? तुम्हें जरा भी धर्म का विचार नहीं हुआ!! बताओ, अब मैं किस लायक रह गयी, और क्या कर सकती हूँ? लोगों को कैसे अपना मुँह दिखाऊँगी, और इस दुनिया में क्योंकर रहूँगी?

इन्द्रजीत : जिसने ऐसा किया वह बेशक मारे जाने लायक है। मैं उसे कभी न छोड़ूँगा, क्योंकि ऐसा होने से मेरा भी धर्म नष्ट हुआ और इस बदनामी को मैं कभी बर्दाश्त नहीं कर सकता, मगर यह तो बताओ कि आज का सामान देखकर तुम्हारे दिल में किसी प्रकार का शक पैदा न हुआ?

कमलिनी : क्योंकर शक पैदा हो सकता था जबकि आप ही की तरह मेरे लिए भी ‘सोहागरात’ आज ही तै की गयी थी! मैं नहीं कह सकती कि दूसरी तरफ का क्या हाल है! ताज्जुब नहीं कि जिस तरह मैं धोखे में डाली गयी, उसी तरह किशोरी के साथ भी बेईमानी की गयी हो और आपके बदले में किशोरी मेरे पति के पास पहुँचायी गयी हो!!’’

ओ हो! कमलिनी की इस बात ने तो कुमार की रही-सही अक्ल भी खो दी! जिस बात का अब तक कुमार के दिल में ध्यान भी न था, उसे समझाकर तो कमलिनी ने अनर्थ कर दिया। ब्याह हो जाने पर भी किशोरी किसी दूसरे मर्द के पास भेजी जाय, क्या इस बात को कुमार बर्दाश्त कर सकते थे? कभी नहीं! सुनने के साथ ही मारे क्रोध के उनका शरीर काँपने लगा और वे घबड़ाकर कमलिनी से बोले, ‘‘यह तो तुमने ठीक कहा! ताज्जुब नहीं कि ऐसा हुआ हो। लेकिन अगर ऐसा हुआ होगा तो मैं उन दोनों को इस दुनिया से उठा दूँगा!’’

इतना कहकर कुमार ने अपनी तलवार उठा ली जो गद्दी पर पड़ी हुई थी और कमरे के बाहर जाने लगे। उस समय कमलिनी ने कुमार का हाथ पकड़ लिया और कहा, ‘‘कृपानिधान, जरा मेरी एक बात का जवाब दे दीजिए तो यहाँ से जाइए!’’

इन्द्रजीत : कहो!’’

कमलिनी : आपका धर्म नष्ट हुआ, खैर कोई चिन्ता नहीं, क्योंकि धर्मशास्त्र में मर्दों के लिए कोई कड़ी पाबन्दी नहीं लगायी गयी है, मगर औरतों को तो किसी लायक नहीं छोड़ा है। आपके लिए तो प्रायश्चित है, मगर मेरे लिए तो प्रायश्चित भी नहीं, जिसे कर मैं सुधर जाऊँगी, इतना जानकर भी मेरा धर्म नष्ट होने पर आपको उतना रंज या क्रोध नहीं हुआ, जितना यह सोचकर हुआ कि किशोरी की भी ऐसी ही दशा हुई होगी! ऐसा क्यों? क्या मेरा पति कमजोर और नामर्द है? क्या वह भी आपकी ही तरह क्रोध में न आया होगा? क्या इसी तरह वह भी तलवार लेकर मेरी और आपकी खोज में न निकला होगा? आप जल्दी क्यों करते हैं, वह खुद यहाँ आता होगा, क्योंकि वह आपसे ज्यादे क्रोधी हैं, मैं तो खुद उसके सामने अपनी गर्दन झुका दूँगी!!

कुमार को क्रोध-पर-क्रोध, रंज-पर-रंज और अफसोस-पर-अफसोस होता ही जाता था। कमलिनी की इस आखिरी बात ने कुमार के दिल में दूसरा ही रंग पैदा कर दिया। उन्होंने घबड़ाकर एक लम्बी साँस ली और ऊपर की तरफ मुँह करके कहा, ‘‘विधाता! तूने यह क्या किया? मैंने कौन-सा ऐसा पाप किया था, जिसके बदले में इस खुशी को रंज के साथ तूने बदल दिया! अब मैं क्या करूँ? क्या अपने हाथ से अपना गला काटकर निश्चिन्त हो जाऊँ? मुझ पर आत्मघात का दोष तो नहीं लगाया जायगा!!’’

इन्द्रजीतसिंह ने इतना ही कहा था कि कमरे का दरवाजा, जिसे कुमार बन्द समझते थे, खुला और किशोरी और कमला अन्दर आती हुई दिखायी पड़ीं। कुमार ने समझा कि बेशक किशोरी इसी ढंग का उलाहना लेकर आयी होगी, मगर उन दोनों के चेहरे पर हँसी देखकर कुमार को ताज्जुब हुआ और यह देखकर ताज्जुब और बढ़ गया कि किशोरी और कमला को देखकर कमलिनी खिलखिलाकर हँस पड़ी और किशोरी से बोली–‘‘लो बहिन, आज मैंने तुम्हारे पति को अपना बना लिया!’’ इसके जवाब में किशोरी बोली, ‘‘तुमने पहिले ही अपना बना लिया था, आज की बात ही क्या है!!’’


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