उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
वकील–वहाँ कोरम ही पूरा न हुआ, बैठकर क्या करता। कोई दिल से काम करना नहीं चाहता, सब मुफ्त में नाम कमाना चाहते हैं। यह क्या कोई जौहरी है?
जौहरी ने उठकर सलाम किया।
वकील साहब रतन से बोले–क्यों, तुमने कोई चीज़ पसन्द की?
रतन–हाँ, एक हार पसन्द किया है, बारह सौ रुपये माँगते हैं।
वकील–बस ! और कोई चीज़ पसन्द करो। तुम्हारे पास सिर की कोई अच्छी चीज नहीं है।
रतन–इस वक्त मैं यही हार लूँगी। आजकल सिर पर चीजें कौन पहनता है।
वकील–लेकर रख लो, पास रहेगी तो कभी पहन भी लोगी। नहीं तो कभी दूसरों को पहने देख लिया, तो कहोगी, मेरे पास होता, मैं भी पहनती।
वकील साहब को रतन से पति का-सा प्रेम नहीं, पिता का–सा स्नेह था। जैसे कोई स्नेही पिता मेले में लड़कों से पूछ-पूछकर खिलौने लेता है, वह भी रतन से पूछ-पूछकर खिलौने लेते थे। उसके कहने भर की देर थी। उनके पास उसे प्रसन्न करने के लिए धन के सिवा और चीज़ ही क्या थी। उन्हें अपने जीवन में एक आधार की ज़रूरत थी–सदेह आधार की, जिसके सहारे वह इस जीर्ण दशा में जीवन संग्राम में खड़े रह सकें, जैसे किसी उपासक को प्रतिमा की ज़रूरत होती है। बिना प्रतिमा के वह किस पर फूल चढ़ाये, किसे गंगा जल से नहलाये, किसे स्वादिष्ट चीजों का भोग लगाये। इसी भाँति वकील साहब को भी पत्नी की जरूरत थी। रतन उसके लिए सन्देह कल्पना मात्र थी जिससे उनकी आत्मिक पिपासा शान्त होती थी। कदाचित् रतन के बिना उनका जीवन उतना ही सूना होता, जितना आँखों के बिना मुख।
रतन ने केस में से हार निकालकर वकील साहब को दिखाया और बोली–इसके बारह सौ रुपये माँगते हैं।
वकील साहब की निगाह में रुपये का मूल्य उसकी आनन्ददायिनी शक्ति थी। अगर हार रतन को पसन्द है तो उन्हें इसकी परवाह न थी कि उसके दाम क्या देने पड़ेंगे। उन्होंने चेक निकालकर जौहरी की तरफ देखा और पूछा–सच-सच बोलो, कितना लिखूँ ! अगर फ़र्क पड़ा तो तुम जानोगे।
जौहरी ने हार को उलट-पलटकर देखा और हिचकते हुए बोला–साढे़ ग्यारह सौ कर दीजिए। वकील साहब ने चेक लिखकर उसको दिया, और वह सलाम करके चलता हुआ।
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