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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


जालपा ने त्योरियाँ चढ़ाकर कहा–क्यों चिढ़ाते हो मुझे ! क्या मैं गहनों पर और स्त्रियों से ज्यादा जान देती हूँ? मैंने तो तुमसे कभी आग्रह नहीं किया? तुम्हें जरूरत हो, आज इन्हें ले जाओ, मैं खुशी से दे दूँगी।

रमा ने मुस्कराकर कहा–तो फिर बतलाती क्यों नहीं?

जालपा–मैं यही माँगती कि मेरा स्वामी सदा मुझसे प्रेम करता रहे। उनका मन कभी मुझसे न फिरे।

रमा ने हँसकर कहा–क्या तुम्हें इसकी भी शंका है?

‘तुम देवता भी होते तो शंका होती, तुम आदमी हो। मुझे तो कोई स्त्री न मिली, जिसने अपने पति की निष्ठुरता का दुःखड़ा न रोया हो। साल-दो-साल तो वह खूब प्रेम करते हैं फिर न जाने क्यों उन्हें स्त्री से अरुचि-सी हो जाती है। मन चंचल होने लगता है। औरत के लिए इससे बड़ी विपत्ति नहीं। उस विपत्ति से बचने के सिवा मैं और क्या वरदान माँगती?  यह कहते हुए जालपा ने पति के गले में बाँहें डाल दीं और प्रणय संचित नेत्रों से देखती हुई बोली–सच बताना, तुम अब भी मुझे वैसे ही चाहते हो, जैसे पहले चाहते थे? देखो, सच कहना बोलो !

रमा ने जालपा के गले से चिमटकर कहा–उससे कहीं अधिक, लाख गुना !

जालपा ने हँसकर कहा–झूठ ! बिलकुल झूठ ! सोलहों आना झूठ !

रमानाथ–यह तुम्हारी जबरदस्ती है। आखिर, ऐसा तुम्हें कैसे जान पड़ा?

जालपा–आँखों से देखती हूँ, और कैसे जान पड़ा। तुमने मेरे पास बैठने की कसम खा ली है। जब देखो, तुम गुमसुम रहते हो। मुझसे प्रेम होता, तो मुझ पर विश्वास भी होता। बिना विश्वास के प्रेम हो ही कैसे सकता है? जिससे तुम अपनी बुरी-से-बुरी बात न कह सको, उससे तुम प्रेम नहीं कर सकते। हाँ, उसके साथ विहार कर सकते हो, विलास कर सकते हो। उसी तरह जैसे कोई वेश्या के पास जाता है। वेश्या के पास लोग आनन्द उठाने ही जाते हैं, कोई उससे मन की बात कहने नहीं जाता। हमारी भी वही दशा है। बोलो, है या नहीं? आँखें क्यों छिपाते हो? क्या मैं देखती नहीं तुम बाहर से कुछ घबड़ाये हुए आते हो? बातें करते समय देखती हूँ, तुम्हारा मन किसी और तरफ रहता है। भोजन में भी देखती हूँ, तुम्हें कोई आनन्द नहीं आता। दाल गाढ़ी है या पतली, शाक कम है या ज्यादा, चावल में कमी है या पक गये हैं। इस तरफ तुम्हारी निगाह नहीं जाती। बेगार की तरह भोजन करते हो और जल्दी ही भागते हो। मैं यह सब क्या नहीं देखती? मुझे देखना न चाहिए ! मैं विलासिनी हूँ, इसी रूप में तो तुम मुझे देखते हो। मेरा काम है–विहार करना, विलास करना, आनन्द करना। मुझे तुम्हारी चिन्ताओं से मतलब ! मगर ईश्वर ने वैसा हृदय नहीं दिया। क्या करूँ। मैं समझती हूँ, जब मुझे जीवन ही व्यतीत करना है, जब मैं केवल तुम्हारे मनोरंजन की ही वस्तु हूँ तो क्यों अपनी जान विपत्ति में डालूँ?

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