उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
मगर उसे फिर शंका हुई, कहीं जालपा की आँख न खुल जाये? फिर तो उसके लिए त्रिवेणी के सिवा और कोई स्थान ही न रह जायेगा। जो कुछ भी हो, एक बार तो यह उद्योग करना ही पड़ेगा। उसने धीरे से जालपा का हाथ अपनी छाती पर से हटाया, और नीचे खड़ा हो गया। उसे एक खयाल हुआ कि जालपा हाथ हटाते ही चौकी और फिर मालूम हुआ कि यह भ्रम-मात्र था। उसे अब जालपा के सलूके की जेब से चाभियों का गुच्छा निकालना था। देर करने के अवसर न था। नींद में भी निम्नचेतना अपना काम करती रहती है। बालक कितना ही गाफिल सोया हो, माता के चारपाई से उठते ही जाग पड़ता है; लेकिन जब चाभी निकालने के लिए झुका, तो उसे जान पड़ा जालपा मुस्करा रही है। उसने झट हाथ खींच लिया और लैम्प के क्षीण प्रकाश में जालपा के मुख की ओर देखा, जो कोई सुखद स्वप्न देख रही थी। उसकी स्वप्न सुख विलसित छवि देखकर उसका मन कातर हो उठा। हा ! इस सरला के साथ मैं ऐसा विश्वासघात करूँ? जिसके लिए मैं अपने प्राणों को भेंट कर सकता हूँ, उसी के साथ यह कपट? जालपा का निष्कपट स्नेह-पूर्ण हृदय मानो उसके मुखमण्डल पर अंकित हो रहा था। आह ! जिस समय इसे ज्ञात होगा, इसके गहने फिर चोरी हो गये, इसकी क्या दशा होगी। पछाड़ खायेगी, सिर के बाल नोचेगी। वह किन आँखों से उसका यह क्लेश देखेगा? उसने सोचा–मैंने इसे आराम ही कौन सा पहुँचाया है। किसी दूसरे से विवाह होता, तो अब तक वह रत्नों से लद जाती। दुर्भाग्यवश इस घर में आयी, जहाँ कोई सुख नहीं उलटे और रोना पड़ा।
रमा फिर चारपाई पर लेट रहा। उसी वक्त जालपा की आँखें खुल गयी। उसके मुख की ओर देखकर बोली–तुम कहाँ गये थे? मैं बड़ा अच्छा सपना देख रही थी। बड़ा बाग है, और हम-तुम दोनों उसमें टहल रहे हैं। इतने में तुम न जाने कहाँ चले जाते हो, और एक साधु आकर मेरे सामने खड़ा हो जाता है। बिलकुल देवताओं का-सा उसका स्वरुप है। वह मुझसे कहता है–बेटी, मैं तुझे वर देने आया हूँ। माँग, क्या माँगती है। मैं तुम्हें इधर-उधर खोज रही हूँ कि तुमसे पूछूँ क्या माँगू। और तुम कहीं दिखायी नहीं देते। मैं सारा बाग छान आयी। पेड़ों पर झाँककर देखा, तुम न जाने कहाँ चले गये हो। बस इतने में नींद खुल गयी, वरदान न माँगने पायी।
रमा ने मुस्कराते हुए कहा–क्या वरदान माँगतीं?
‘माँगती जो जी में आता, तुम्हें क्यों बता दूँ।’
‘नहीं बताओ, शायद तुम बहुत सा धन माँगती।’
‘धन को तुम बहुत बड़ी चीज समझते होंगे? मैं तो कुछ नहीं समझती।’
‘हाँ, मैं तो समझता हूँ। निर्धन रहकर जीना मरने से भी बदतर है। मैं अगर किसी देवता को पकड़ पाऊँ, तो बिना काफी रुपये लिये न मानूँ। मैं सोने की दीवार नहीं खड़ी करना चाहता, न राकफेलर और कारनेगी बनने की मेरी इच्छा है। मैं केवल इतना धन चाहता हूँ कि ज़रूरत की मामूली चीजों के लिए तरसना न पड़े। बस कोई देवता मुझे पाँच लाख दे दे, तो मैं फिर उससे कुछ न माँगूँगा। हमारे ही गरीब मुल्क में ऐसे कितने ही रईस, सेठ, ताल्लुकेदार हैं, जो पाँच लाख एक साल में खर्च करते हैं; बल्कि कितनों ही का महावार खर्च पाँच लाख होगा। मैं तो इसमें सात जीवन काटने को तैयार हूँ; मुझे कोई इतना भी नहीं देता। तुम क्या माँगती? अच्छे-अच्छे गहने !’
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